हिंदुस्तान में जनता वोट देकर प्रोडक्ट बनाने का कारखाना बनकर रह गई, उसके चुने विधायक मंडी में बिकने को खड़े हो गए, खरीदार वही जिसके पास 56 इंची साहस
दर्शक
राजस्थान को लेकर एक बार फिर विधायकों की खरीद-फरोख्त, या उनका पार्टी तोडक़र अलग होना, या बागी होना, चल रहा है। उसमें जीते चाहे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, या बागी सचिन पायलट, हार तो जनता रही है जो कि इस झांसे में रहती है कि वह सरकार चुनती है। दरअसल वह मंडियों में बिकने वाले सामान बनाती है, और उसके बाद वे सामान अपना दाम खुद लगाकर रिसॉर्ट से विधानसभा के शक्ति परीक्षण तक आते-जाते हैं। इस मुद्दे पर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर, या उसके पहले कर्नाटक में हम ये मंडियां देख चुके हैं। अब वैसे ही अगले मौकों पर हम नई सोच कहां से लेकर आएं? वही पुरानी गंदगी, वही एक के बाद दूसरा राज्य, ऐसे में अधिक सही यही है कि पिछले महीनों में लिखी गई बातों में से कुछ को हम यहां दुहरा दें।
कुछ हफ्ते पहले हमने लिखा था- भारत में लोकतंत्र में जब-जब, जहां-जहां विधायकों या सांसदों की मंडी में खरीद-फरोख्त होती है, तब-तब बिकती जनता है। वह जनता जिसे यह झांसा दिया जाता है कि उसके वोट से सरकार बनती है। अब तो चुनाव आयोग भी लुभावने इश्तहार जारी करके वोट देने के लिए बुलाता है। वह जनता इस खुशफहमी में रहती है कि वह पांच बरस के लिए विधायक और सांसद चुनती है। जनता आज की तारीख में हिन्दुस्तान में सामान चुनती है जो कि मंडियों में जरूरत के वक्त असंभव से लगने वाले दाम पर बिकते हैं। बिकाऊ माल चुनने को कुछ लोग लोकतांत्रिक अधिकार मान लेते हैं, कुछ लोग पांच बरस में एक बार आने वाला जलसा मान लेते हैं। फिर इसी खुशफहमी में मगरूर घूमते हैं, फिर वे चाहे भूखे पेट हों।
दलबदल कानून न होता तो पूरी सरकार बिक जाती
हमने लिखा था- भारतीय लोकतंत्र में जिस रफ्तार से, जिस बड़े पैमाने पर दौलत और बेईमानी का खेल चल रहा है, उससे अब यह लगता है कि दलबदल कानून के तहत अगर बाकी कार्यकाल के लिए सदन की सदस्यता खत्म नहीं होगी, तो मौजूदा कानून तो थोक में खरीदी को बढ़ावा देने वाला एक बाजारू फॉर्मूला होकर रह गया है। आज किसी विधायक दल या सांसद दल के एक तिहाई सदस्य दलबदल करते हैं, तो वह दलबदल नहीं, दलविभाजन कहलाता है। आज की राजनीति में अरबपति उम्मीदवारों की बढ़ती गिनती, दलबदल में पूरी तरह स्थापित हो चुकी बेशर्मी, और पार्टियों के पीछे खरबपतियों की दौलत की ताकत, इन सबने मिलकर लोगों की शर्म और झिझक खत्म कर दी है। लोगों के नीति-सिद्धांत खत्म कर दिए है। मोटे तौर पर लोकतंत्र को खत्म कर दिया है। आज इस देश में ऐसे लतीफे बनने लगे हैं कि पिछले चुनाव तक तो यह कहा जाता था कि किसी भी निशान पर वोट दो, वह जाएगा तो एक कमल निशान पर ही। अब तस्वीर बदल गई है कि कोई किसी भी पार्टी से जीते उम्मीदवार जाएगा भाजपा में ही।
सिंधिया की गद्दारी को इतिहास तय करेगा
ज्योतिरादित्य के दलबदल और सत्ता पलट पर हमने लिखा था- 1857 के इतिहास में अंग्रेजों के लिए हिन्दुस्तान से गद्दारी के लिए, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की शहादत के लिए ज्योतिरादित्य को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकत। उनका दलबदल 21वीं सदी की भारतीय राजनीतिक संस्कृति के हिसाब से है, उसे सही और गलत तो इतिहास लिखेगा,जनता बताएगी। देश में एक ऐसी नौबत आ गई है कि चुनाव में ईवीएम मशीनों की बेईमानी की खबरें तो खारिज हो गई हैं कि कोई भी बटन दबाओ वोट आखिरकार सांसद या विधायक की शक्ल में एसयूवी पर सवार होकर भाजपा को जाता है।
वोट देने में भी शर्म आएगी अब तो
अब नौबत यह आ गई है कि किसी भी पार्टी का विधायक चुनो, सरकार भाजपा बना लेती है। एक के बाद एक कई प्रदेशों में विधायकों के ऐसे हृदय-परिवर्तन से सरकारें बदलीं, और भाजपा सत्ता में आ गई। लेकिन यह सिलसिला नया नहीं हैं, यह जुर्म करने वाली भाजपा पहली या अकेली पार्टी नहीं है। ऐसा दूसरी पार्टियां भी दूसरी जगहों पर किसी दूसरे वक्त कर चुकी हैं। लेकिन आज भाजपा जितने बड़े पैमाने पर ऐसी सरकारें गिराने, और फिर खुद की बनाने में महारत हासिल कर चुकी है।
यह पैमाना डरावना है। उसका ऐसा व्यापक इस्तेमाल सिर्फ यह सुझाता है कि इस देश में विधायकों और सांसदों के दलबदल पर, अपनी पार्टी की सरकारें गिराने पर एक नए किस्म के कानून की जरूरत है, क्योंकि मौजूदा कानून आधी सदी पहले के पेनिसिलिन की तरह का बेअसर हो चुका है। अब छठवीं पीढ़ी के एंटीबायोटिक की जरूरत है। भाजपा अगर इस सिलसिले को इतने बड़े पैमाने पर न ले गई होती, तो शायद नए कानून की चर्चा शुरू नहीं होती। लेकिन आज हिन्दुस्तानी केन्द्र और राज्य सरकारों में जिस तरह भाजपा का एकाधिकार हो रहा है, और जायज-नाजायज सभी तरीकों से हो रहा है, तो वैसे में कम से कम नाजायज वाले हिस्से को रोकने के लिए एक नए कानून की जरूरत है। ठीक उसी तरह जिस तरह की आज कोरोना वायरस को रोकने के लिए नए किस्म की सरकारी रोकथाम की जरूरत है, नई सावधानी की जरूरत है।
बहुत महंगा है लोकतंत्र
हमने लिखा था- एक रिपोर्ट यह थी कि अभी-अभी हुए आम चुनाव दुनिया के सबसे महंगे चुनाव थे। हिन्दुस्तान के इतिहास के तो सबसे महंगे चुनाव थे ही। अब कर्नाटक या किसी दूसरे प्रदेश में किसी एक पार्टी या किसी दूसरी पार्टी की खरीद-फरोख्त देखकर लगता है कि चुनाव के बाद भी हिन्दुस्तान का लोकतंत्र सबसे महंगा लोकतंत्र साबित हो रहा है। जहां विधायकों के इतने दाम लगने की चर्चा खुले रहस्य की तरह होती है। यह सिलसिला उन लोगों को निराश करता है जो संविधान की बात करते हैं, जो लोग लोकतंत्र पर भरोसा करते हैं। जो लोग अपने वोट की ताकत पर एक बेबुनियाद आत्मविश्वास रखते हैं। इस मंडी को लोकतंत्र समझ लेने की खुशफहमी महज हिन्दुस्तानी कर सकते हैं।
अब आज राजस्थान को देखते हुए हम बस इतना ही लिख सकते हैं कि इस किस्म के दलबदल या इस किस्म के तथाकथित दल विभाजन के सिलसिले को खत्म करने के लिए एक नए कानून की जरूरत है वरना विधायक और सांसद चुनाव लडऩे और जीतने को एक पूंजीनिवेश मानकर चलेंगे, और उसके बाद या तो सत्ता में कमाऊ कुर्सी पाएंगे, या फिर खुद बिकने का मौका ढूंढेंगे।
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