#अल्लाह सब देख रहा है…

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*एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति की एक और ‘सांप्रदायिक’ टिप्पणी*

 

हेमंत शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार और इंदौर से प्रकाशित प्रजातंत्र के संपादक )

सुबह जैसे ही इस धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति की “सांप्रदायिक’ टिप्पणी सोशल मीडिया पर शाया हुई, तुरंत जवाब आया- अल्लाह सब देख रहा है…!

देखना भी चाहिए।

क्योंकि अब अल्लाह ने भी तय किया है कि वह देखेगा कौन उसके बताए दीन-ओ-ईमान पर नहीं चल रहा है? वह यह भी देखेगा कि कैसे “पोंगा पंडित’ अपना नाम बदलकर उस मजहब में भी घुस आए हैं, जहां ऊपर वाले और उसके बंदे के बीच किसी की जगह नहीं थी? वह यह भी देखेगा कि कैसे कुछ जाहिलों ने उसका नाम लेने वाले हजारों बंदों की जान एक महामारी के दौरान मरकज़ में जोखिम में डाल दी? वह यह भी देखेगा कि इंदाैर में महामारी का इलाज करने वाले जब मरीजों के घर जा रहे थे तो किसके कहने पर उनके ऊपर थूका गया?

असल में यह निज़ामुद्दीन का मरकज़ है ही नहीं। हो भी नहीं सकता। वह तो सिर्फ निज़ामुद्दीन इलाके में तबलीगी ज़मात का एक बड़ा दफ्तर है, जो वहाबी विचारों के सबसे बड़े झंडाबरदार देवबंद के “दारूल उलूम’ द्वारा चलाए जा रहे कई संगठनों में से एक है। एशिया में सूफी परंपरा के सबसे बड़े संवाहक हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह जहां है वहां लाखों हिंदू और करोड़ों मुस्लिम हर साल सजदा करने पहुंचते हैं। उनका इन तबलीगियों से कोई नाता नहीं। तबलीगी ज़मात के लाेग ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाना किसी पाप से कम नहीं समझते। आखिर समझेंगे भी क्यों नहीं? अमीर खुसरो के गुरु हजरत निज़ामुद्दीन प्रेम, भाईचारे और इंसानियत की बात जो सिखाते हैं।

खैर!

तो इसी तबलीगी ज़मात के मरकज़ में हुई इस घटना में ज़मात का बचाव करने के लिए तर्क गढ़े जाने लगे। कहा गया कि 24 मार्च को ही थाने पर सूचना दे दी थी कि अंदर 1000-1500 लोग मौजूद हैं। उन्हें बाहर निकालने के लिए गाड़ियों के “पास’ बना दिए जाएं। और स्थानीय प्रशासन जब व्यस्तता के चलते पास नहीं बना पाया तो सारा कसूर सरकार का और प्रशासन का। क्योंकि हमने तो पत्र लिख दिया था। और सुबह-सुबह उस पत्र को सोशल मीडिया पर डाल भी दिया था।

अब कोई हमसे यह न पूछे कि 12 मार्च को जब दिल्ली सरकार ने महामारी एक्ट लागू कर दिया था और 13 मार्च को 200 से ज्यादा लोगों के इकट्‌ठा होने पर पाबंदी थी, 16 मार्च को 50 से ज्यादा लोगों का एक जगह रहना गैरकानूनी था, 19 मार्च को 20 लोग भी एक साथ नहीं रह सकते थे और 21 मार्च को पांच लोगों के भी एक साथ होने पर कानून का उल्लंघन हो रहा था तो आप 24 मार्च तक क्या करते रहे?

आपने पुलिस, प्रशासन, सरकार या मीडिया को क्यों नहीं बताया कि आपने अपने दफ्तर (इसे यहां मरकज़ पढ़ा जाए) में दुनियाभर से आए दो-ढाई हजार देसी-विदेशी लोगों को क्यों जमा किया हुआ था?

और आपने जिन एक-डेढ़ हजार लोगों को वहां से रवाना करने की बात कही है, क्या आपकी जिम्मेदारी नहीं थी कि सरकार से पूछते- महामारी के इस दौर में हम अपने इन “शांतिदूतों’ को देशभर की मस्जिदों और मदरसों में भेजें या नहीं? छोटे भाई का पाजामा और बड़े भाई का कुर्ता पहने इन्हीं में से कई “शांतिदूत’ इंदौर से लेकर हैदराबाद और मुंबई से लेकर सुदूर उत्तर तक कोरोना वायरस के वाहक बने।

मरकज़ के इंतजाम अली और प्रमुख मौलाना साद पर तो इन लोगों की तरफ से भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जो उस मुकदमे से अलग हो।

जिसमें वे 18 मार्च को इसी मरकज़ में अपनी तकरीर में कह रहे हैं कि भले ही जान चली जाए, मस्जिद मत छोड़ना। हर पढ़ा-लिखा मुसलमान और इस्लाम के जानकार जब मस्जिदें बंद करने का सुझाव दे रहे थे, तब ये जनाब इस्लाम के नेक बंदों को बिना इलाज मस्जिद में ही अंतिम सांसें गिनने की सलाह दे रहे थे। यहां हम उस कानूनी नियम की बात तो खैर कर ही नहीं रहे हैं, जिसके तहत टूरिस्ट वीजा पर आए ये लोग किसी धार्मिक प्रचार के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते। खैर हमारी राज्य सरकारें इतनी उदार और निकम्मी हैं कि इस तरह के नियम कभी सख्ती से लागू नहीं करा पातीं।

असल में परेशानी यह है कि जब भी मुस्लिम समाज के सामने कुछ चुनने का मौका आया तो उसने हमेशा जल्दबाजी की और गलत चुनाव किया। जैसे बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में मरकज़़ के साथ आ गए या 1947 में जैसे मोहम्मद अली जिन्ना के साथ जाने को खड़े हो गए थे। तब भी आपके-हमारे पुरखे मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने जामा मस्जिद से कहा था- रुक जाओ, यही तुम्हारा वतन है। फिर भी लोग चले गए उस इस्लामिक राष्ट्र के लिए, जो घोषित तौर पर एक नास्तिक ने बनवाया।

जो शराब पीता था और इंग्लैंड में पढ़ाई पूरी करने तक जिसका नाम एमए जिन्ना था। जिन जवाहरलाल नेहरू को अब मुस्लिम समाज अपना पैरोकार मानता है, उन्होंने तब कहा था- जिन्ना को देखकर ऐसा शख्स याद आता है, जिसने खुद अपने मां-बाप का कत्ल कर दिया हो और फिर वह अदालत से अपना जुर्म माफ करने की अपील इस आधार पर कर रहा है कि वह अनाथ है…।

यह आलेख छपने के बाद इस लेखक को और इस आलेख को पसंद करने वालों को फिर सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है। असल में यह बहुत आसान काम है। जिस दिन आपके मन की बात न हो, आपके धर्म या मजहब के लोगों की हरकतों पर सवाल उठा दिए जाएं, उसी पल से आप सांप्रदायिक करार दे दिए जाएंगे। लेकिन, इस देश की धर्मनिरपेक्षता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि पाकिस्तान का विचार देने वाले अल्लामा इकबाल का तराना “सारे जहां से अच्छा…’ आज भी पूरा हिंदुस्तान गाता है। पिछले दिनों नागरिकता कानून की जब बात बिगड़ी तो शहर में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पैरोकार और कानून के जानकार आनंद मोहन माथुर ने कई-कई बार फोन करके “प्रजातंत्र’ को उसके निष्पक्ष होने और सही को सही तथा गलत को गलत कहने के लिए हौसला अफज़ाई की।

दरअसल, भारत के मुसलमानों की विडंबना ही यही है कि आपको यह नहीं पता कब, किस बात पर साथ देना है और किस बात का विरोध करना है। अरब देशों को इतने बरसों तक आप अपना रहनुमा समझते रहे, लेकिन जब महामारी का संकट आया तो उन्होंने बिना भेदभाव किए हिंदू-मुसलमानों को लतिया कर देश के बाहर का रास्ता दिखा दिया। वह भी बिना इलाज किए।

और इसी जन्मभूमि ने आपका स्वागत किया, आप घरों में छिप गए तो सरकारी अमला आपके दरवाजे तक आया। आपकी बीमारी का हाल पूछने। बदले में आपने क्या दिया- जरा सोचिएगा। बात इंदौर की कर रहा हूं।

यकीन मानिए, भारत से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष देश और लोग कहीं नहीं हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता हमारे खून में है। एक बात और। धर्मनिरपेक्षता का धर्म या मजहब से कोई वास्ता नहीं है। सिर्फ तालीम से है…।

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