गांधीवाद पर हक़ जताने वालों को इस स्वयंसेवक से सीखना चाहिए !

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सुनील कुमार (संपादक दैनिक छत्तीसगढ़)

गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के गुजरने पर आम लोगों को बहुत तकलीफ हुई क्योंकि खास ओहदे पर पहुंचने के बाद भी वे आम बने हुए थे। आईआईटी से पढ़कर निकलकर मुख्यमंत्री बनने वाले वे पहले हिन्दुस्तानी थे, और उन गिने-चुने सादगीपसंद नेताओं में से एक थे जो मुख्यमंत्री बनकर भी स्कूटर पर चलते थे, सड़क किनारे ठेले पर चाय पी लेते थे, और एयरपोर्ट पर कतार मेें लगकर सुरक्षा जांच करवाते थे, या विमान में सवार होते थे। उन पर निजी भ्रष्टाचार का कोई दाग भी नहीं लगा था, और यही बात उनकी साख बनकर आज लोगों के मन को उदास कर रही है। किसी नेता के गुजरने पर उससे कभी न मिलने वाले, उसके प्रदेश के बाहर के लोग भी अगर इस तरह उदास हैं, और सादगी की याद कर रहे हैं, तो उसका मतलब यही है कि हिन्दुस्तानी सत्ता की राजनीति में सादगी अभी भी मायने रखती है, वजन रखती है।
आमतौर पर किसी गुजरने वाले के खिलाफ कुछ सोचा भी नहीं जाता, लिखना तो दूर की बात रहती है। फिर गुजरने वाला अगर पर्रिकर जैसा निजी ईमानदारी वाला हो, तो फिर उनकी जिंदगी और उनके काम का कोई बारीक विश्लेषण आसान भी नहीं रह जाता। लेकिन इस मौके पर लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि ईमानदारी दो किस्म की होती है, एक व्यक्तिगत ईमानदारी, और दूसरी संस्थागत ईमानदारी। लोग जिस पार्टी संगठन में काम करते हैं, उसकी बेईमानी को अनदेखा करते हुए बस अपने ही हाथ साफ रखना एक हिसाब से ईमानदारी हो सकती है, और दूसरे हिसाब से नहीं भी हो सकती है। भारत में बहुत से मौकों पर प्रतिरक्षा मंत्री ऐसे व्यक्ति को ही बनाया जाता है जिसकी निजी साख अच्छी हो। कांग्रेस में भी ए.के. एंटोनी को प्रतिरक्षा मंत्री बनाया गया था जो सादगी के लिए भी जाने जाते थे, और निजी ईमानदारी के लिए भी। यहां पर यह समझने की जरूरत है कि ईमानदारी और निजी ईमानदारी में खासा फर्क होता है। लोग सरकार में रहते हुए खुद एक पैसा भी न कमाए, यह निजी ईमानदारी होती है। लेकिन दूसरी तरफ अगर वे अपने सामने आई हुई ऐसी फाईलों की अनदेखी करें जो कि सरकार की संस्थागत बेईमानी या गड़बड़ी दिखाती हो, तो फिर निजी ईमानदारी का कोई महत्व नहीं रह जाता, और संस्थागत ईमानदारी की अनिवार्यता सामने आ जाती है।
अभी भारत में जो सबसे बड़ा मुद्दा पिछले हफ्तों में हाशिए पर धकेल दिया गया है, वह है फ्रांस की एक कंपनी से रफाल विमान की खरीदी का। अभी तक सुप्रीम कोर्ट के सामने जितने तरह की गोपनीय फाईलों के कागज कुछ लोगों ने जनहित याचिका के तहत पेश किए हैं, वे बताते हैं कि मनोहर पर्रिकर के प्रतिरक्षा मंत्री रहते हुए उनके सामने ऐसी फाईलें आई थीं जिन पर लिखा था कि प्रतिरक्षा मंत्रालय की मोलभाव कमेटी से परे भारत का प्रधानमंत्री कार्यालय फ्रांस की कंपनी या सरकार से ऐसी सीधी बातचीत कर रहा है जिससे कि मोलभाव कमेटी की स्थिति कमजोर हो रही है। इन फाईलों पर मनोहर पर्रिकर के दस्तखत भी थे, लेकिन अपने ही मंत्रालय की इस आपत्ति को उन्होंने अनदेखा किया था, और प्रधानमंत्री कार्यालय की नाजायज दखल का विरोध नहीं किया था। बाद में यह सामने आ रहा है कि इस विमान सौदे में शायद भारत ने बहुत अधिक रेट पर खरीदी की है, और भुगतान किया है। इसके अलावा यह भी सामने आ रहा है कि भारत सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने की अपनी शर्तों को खत्म करके सिर्फ इस एक सौदे के लिए कई किस्म की रियायतें फ्रांसीसी कंपनी या फ्रांस की सरकार को दी है। ये तमाम बातें एक प्रतिरक्षा मंत्री के सामने आई हुई फाईलों पर खासे खुलासे से दर्ज है, लेकिन पर्रिकर ने इसे रोकने की कोई कोशिश की हो, ऐसी बात अब तक सामने आई हुई फाईलों में नहीं दिख रही है।
अब सवाल यह उठता है कि निजी ईमानदारी तो ठीक है, लेकिन एक सरकार का हिस्सा रहते हुए जब वह सरकार जाहिर तौर पर कुछ गलत करते दिख रही है, तो भी उस गलत के खिलाफ कुछ न करना क्या निजी ईमानदारी के साथ कदमताल कर सकता है? यह एक विरोधाभास है जो कि पर्रिकर के कामकाज में सामने आया है कि रफाल सौदे में देश के सबसे भले के फैसले शायद मोलभाव के दौरान नहीं लिए गए, और मोदी सरकार के पीएमओ की दखल शायद देश के सौदे के हित में नहीं थी। यह बात खुद पर्रिकर के मंत्रालय ने लिखने की जुर्रत की थी, लेकिन मंत्री अपने विभाग के हित में, अपनी वायुसेना के हित में, और अपने देश के हित में पीएमओ का विरोध करने के बजाय चुप रह गए। अब सोचने की बात यह है कि क्या ऐसी चुप्पी को उनकी निजी ईमानदारी को देखते हुए अनदेखा किया जाए, या यह चुप्पी उनकी निजी ईमानदारी को ढांककर रख देती है? किसी गुजरे हुए की जिंदगी अगर सार्वजनिक जीवन के जनता के पैसों से जुड़ी रहती है, तो उसका मूल्यांकन खुलकर होना चाहिए, और पारदर्शी तरीके से होना चाहिए। किसी की जिंदगी के एक पहलू को छोड़कर उसका कोई सार्थक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
और आज तो देश में माहौल ऐसा है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किए हुए, या नहीं किए हुए कामों को लेकर सच्चे इतिहास को लेकर तो उनको खलनायक साबित करने की कोशिश हो रही है, और यह कोशिश कामयाब न होने पर एक ऐसा इतिहास गढ़ा भी जा रहा है जो कि पल भर में झूठा साबित हो भी जाता है। लेकिन इस पल भर के वक्त में भी नेहरू के आलोचक लोग उस झूठे इतिहास को सच्चा बताते हुए चारों तरफ फैला रहे हैं, और अफवाहों की इस गढ़ी हुई गंदगी को साफ करने में समझदार लोगों का एक सीमित समुदाय मेहनत करते रह जाता है, पूरी गंदगी कभी साफ नहीं हो पाती। ऐसे झूठ के माहौल में जब आधी सदी पहले के इतिहास को गढ़ा जा रहा है, जब कब्र से लोगों को निकालकर बदनाम किया जा रहा है, जब पंचतत्वों में विलीन शरीर को फिर से सभी तत्व जुटाकर बनाया जा रहा है, और उसे खलनायक की तरह चौराहे पर खड़ा करके उस पर पत्थर चलाए जा रहे हैं। ऐसे वक्त में फाइलों और कागजात पर दर्ज बातों को लेकर किसी का सार्थक विश्लेषण जरूरी हो जाता है, और मनोहर पर्रिकर सार्वजनिक जीवन में रहने की वजह से जनता के प्रति जवाबदेह हैं, अपने जाने के बाद भी। इस किस्म के विश्लेषण से यह जवाबदेही उनकी पार्टी की सरकार के बाकी लोगों पर भी आती है कि मनोहर पर्रिकर को ऐसी चुप्पी क्यों साधनी पड़ी थी?
हमने छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी देखा है जब पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने प्रदेश के सबसे भ्रष्ट और बदनाम सरकारी विभाग, आबकारी विभाग का मंत्री रामचन्द्र सिंहदेव जैसे एक खाटी ईमानदार को बनाया था जिन पर विपक्ष भी पूरी जिंदगी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा पाया। इसके बाद रामचन्द्र सिंहदेव किसी दुकान के शोकेस के पुतले की तरह इस्तेमाल किए जाते रहे, विभाग उतने ही भ्रष्टाचार के साथ चलाया गया था, महज उसके मुखिया की ईमानदार साख को भुनाया गया था। आज रामचन्द्र सिंहदेव भी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन जब कभी उनके काम का विश्लेषण होगा, तो बेरहम इतिहास उस दौर की उनकी चुप्पी को भी अच्छी तरह दर्ज करेगा, या आज हम यहां पर उसे दर्ज कर ही रहे हैं।
फिलहाल मनोहर पर्रिकर की जिंदगी से देश भर के नेताओं को कम से कम यह तो सीखने की जरूरत है ही कि गांधी की पार्टी का न होने के बावजूद गांधीवादी किफायत इस देश के प्रति वफादारी की एक अनिवार्य खूबी होनी चाहिए, अगर ऐसे नेता जनता के पैसों पर जीते हैं। गरीब जनता के हक के खजाने से अपने ऊपर ऐशोआराम जुटाना लोकतंत्र के तहत एक जुर्म है, इसके खिलाफ कोई कानून तो नहीं है, लेकिन इतिहास इसे जुर्म की तरह ही दर्ज करता है। मनोहर पर्रिकर की सादगी भी इतिहास में उन्हें हमेशा एक सम्मान दिलाती रहेगी।

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