‘ऑफ द रिकॉर्ड’ दिग्विजय !

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एक खबर में ये सामने आया कि दिग्विजय सिंह झूठा भरोसा देते रहे इसलिए कमलनाथ सरकार नहीं बचा सके,   वायरल खबर के बहाने पत्रकारिता और राजनीति पर नजर

पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )

इंदौर। दो दिन पूर्व एक खबर राजनीतिक गलियारों में खूब उछली। सोशल मीडिया पर वायरल हुई। मुख्य मीडिया ने इसे हाथों हाथ लिया। राजनीतिक मसाला इस खबर में भरपूर रहा। एक के बाद एक ट्वीट, ने माहौल गरमा दिया। खबर थी -कमलनाथ ने कहा दिग्विजय ने उन्हें झूठे भरोसे में रखा, जिसके चलते प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिर गई। इसका सीधा मतलब ये दिखा कि दिग्विजय ने कमलनाथ की सरकार धोखा देकर गिरा दी। यानी अविश्वास का सामना नाथ को अपने करीबी दिग्विजय से करना पड़ा।

ये खबर देश के सबसे बड़े न्यूज़ चैनल में से एक की वेबसाइट पर चली। दूसरे मीडिया के लिए सोर्स भी ये वेबसाइट ही रही। कुल मिलाकर 48 घंटे बाद जब इस मूल सोर्स वाली वेबसाइट पर जाते हैं, तो कहानी से दिग्विजय का किरदार पूरी तरह से डिलीट है। तो क्या खबर गलती से चल गई। किसी दबाव में हटा ली गई। खैर, कारण जो भी हो मुख्य वेबसाइट ने खबर हटा ली। पर तब तक वो पूरे हिंदुस्तान में वायरल हो चुकी थी।

पिछले एक दशक से पत्रकारिता में खबरों के खंडन। आंकड़ों की तोड़ मरोड़। अपने हिसाब से तथ्य गढ़ना। सत्ता के दबाव में ख़बरें हटाने की मजबूरी। खबरें डेस्क पर गढ़ने, समान तथ्यों के बावजूद अलग दिखने की होड़। पत्रकारों सम्पादकों की इसमें बहुत गलती नहीं है, दरअसल संस्थानों के सबसे अलग, सबसे तेज़ के दबाव इतने हैं कि सबको इस रंग में रंगना पड़ रहा है। राजनेता भी इस तथ्य को भांप चुके हैं, वे भी मीडिया संस्थानों के इस सबसे तेज़ और अलग की होड़ का फायदा उठाने में कई कदम आगे हैं। वे पत्रकारों, सम्पादकों को पुड़िया पकड़ा देते हैं, और हो गई वायरल खबर।

इन सबके बीच एक जो सबसे बड़ी अविश्वसनीयता और टूटन सामने आई है, वो है -राजनेताओं और पत्रकारों के बीच भरोसे का खत्म होना। दोनों ही एक दूसरे को यूज एंड थ्रो से ज्यादा नहीं मानते। पर सभी दलों में और पत्रकारिता में ऐसे लोग अब भी हैं, जो अपने भरोसे और साख को बनाये रखे हैं। वे खबरों को अपनी कसौटी पर कसे बिना प्रसारित नहीं करते।

कमलनाथ कांग्रेस के एक ऐसे ही नेता है, जो बहुत मीडिया फ्रेंडली नहीं हैं, वे थोड़े खिचे-खिचे से रहते हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि वे मीडिया से दूरी रखना चाहते हैं। जब भी वे मीडिया के सामने होते हैं, खुलकर बातें करते हैं। बिना लाग-लपेट के वे दोस्ताना ढंग से सब कुछ कह जाते हैं। दिग्विजय के बारे में जो भी उन्होंने कहा वो इसी तरह की बातचीत का फ्लो रहा होगा।

वैसे भी कुछ चुनिंदा पत्रकारों से उनकी लॉकडाउन के बीच में ये बातचीत केवल एक अनौपचारिक मेल मुलाकात या सौजन्य भेंट थी (ऐसा उनके करीबियों का कहना है) . अब सवाल ये है कि वहां चार पत्रकार मौजूद थे, खबर एक ही चैनल पर आई। क्या बाकी तीन चूक गए। ऐसा भी संभव है कि औपचारिक बातचीत (ऑफ द रिकॉर्ड ) को खबर बना लिया गया हो। ये भी इस पत्रकारिता का सबसे संकट का दौर है। इसमें औपचारिक मुलाकातों और ऑफ द रिकॉर्ड की दोस्ताना चर्चा भी खबरें बनने लगी है। ये सही है या गलत ये लम्बी बहस का विषय है।

आज से दस साल पहले तक सभी नेताओं और राजनीतिक दलों के कुछ लेखकों, पत्रकारों से करीबी रिश्ते (चापलूसी, चाटुकारिता नहीं) रहे हैं। करीबी रिश्ते यानी आज की तरह धंधे की बातें करने, ट्रांसफर. पोस्टिंग उद्योग वाले नहीं। ऐसे पत्रकारों से जनता की नब्ज़ समझने और अपनी सरकार की परेशानियां भी नेता,मंत्री साझा करते रहे हैं। ये सब निजी समझ पर आधारित रहता था। कभी ऐसी बातें अख़बारों में नहीं छपी। अब ऐसी विश्वसनीयता ख़तम हो चुकी है। इसके जिम्मेदार नेता और पत्रकार दोनों हैं।

नेता भी उनके पास आने वाले पत्रकारों को पीठ पलटते ही चापलूस, अपना पट्ठा कहने से बाज़ नहीं आते, और पत्रकार, संपादक भी खुद को नेता का करीबी बताने में खुद को बड़ा महसूस करते हैं। प्रदेश की ही बात करें तो दिग्विजय सिंह, सुन्दर लाल पटवा, बाबूलाल गौर, अर्जुन सिंह के कई पत्रकारों से बिलकुल करीबी रिश्ते रहे। पर इसके मायने ये भी कभी नहीं रहे कि ऐसे संपादकों और पत्रकारों ने ऐसे रिश्तों के चलते कभी खबरों से समझौता किया है। इन नेताओं को आइना दिखाने वाली खबरें भी ऐसे पत्रकार लिखने में पीछे नहीं रहे।  नेताओं ने भी सत्ता में रहतें कभी इन पत्रकारों को सच लिखने के लिए प्रताड़ित नहीं किया।

अब वापस मुद्दे पर आते हैं। कमलनाथ का इस खबर के बाद स्पष्टीकरण आया कि -उन्होंने ये पूरी बातचीत में कहीं नहीं कहा कि दिग्विजय पर भरोसे के चलते सरकार गिर गई। नाथ ने कहा कि उन्हें और दिग्विजय दोनों को भरोसा था कि विधायक लौट आएंगे। खैर, जो भी हुआ ये सामने आ गया कि ‘दिग्विजय अब खबर में ऑफ द रिकॉर्ड’ हो गए।

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