ट्रम्प पर सितम, मोदी पर करम… ऐ मीडिया, तू ये जुर्म न कर…

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उमेश त्रिवेदी (लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है)

अमेरिका के तथाकथित बे-मुरव्वत, बे-रहम और बे-गैरत मीडिया के शत्रुतापूर्ण सवालों से उत्तेजित अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नाराजी के बाद भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति मीडिया की रहमदिली और रजामंदी के अफसानों की खामोशी छप्पन इंच का सीना तानकर लोकतंत्र के सामने खड़ी हो गई है। अमेरिका का बेरहम मीडिया और भारत के रहमदिल मीडिया का यह कोलाज दिलचस्प है। अमेरिका और भारत में… ट्रम्प पर सितम और मोदी पर करम करने वाला यह विरोधाभासी मीडिया परिद्दश्य दिलचस्प है।

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के मुताबिक अमेरिका में प्रेस की आजादी का क्रम 42वां है, जबकि भारत 142वें स्थान पर है। ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में प्रेस की आजादी को लगातार नुकसान पहुंचाया जा रहा है, जबकि भारत में उग्र राष्ट्रवाद के गिद्ध अभिव्यक्ति के पखेरूओं को आफत बनकर टूट रहे हैं। भारत सरकार के कामकाजों पर सवाल उठाना राष्ट्रद्रोह की परिधि में आने लगा है।
ट्रम्प को पहले से ही मीडिया नापसंद है, लेकिन अमरिकी मीडिया का मौजूदा गुनाह (?) कोरोना जैसी बीमारी में ट्रम्प की हायपोथीसिस को न समझ पाना है। उसने ट्रम्प द्वारा प्रतिपादित अल्ट्रा वॉयलेट रे और कीटनाशकों के इंजेक्शन से कोरोना के इलाज के संभावित नुस्खों की गंभीरता समझने में कमअक्ली (?) से काम लिया है।

ट्रम्प कोरोना को लेकर अब प्रेस-ब्रीफिंग नहीं करेंगे। वजह यह है कि मीडिया उनसे याने सरकार से शत्रुतापूर्ण सवाल पूछता है, झूठ फैलाता है, सच और तथ्यों को सही तरीके से लोगों तक नहीं पहुंचाता है। बकौल ट्रम्प मीडिया को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि ’तीन साल के कार्यकाल में ट्रम्प ने जितना काम किया है, शायद इसके पहले उतना काम अमेरिका के किसी भी राष्ट्रपति ने नहीं किया होगा…फिर जितने लोग मुझे याने ट्रम्प को और अमेरिका के इतिहास को जानते हैं, उनका कहना है कि मैं सबसे ज्यादा मेहनती राष्ट्रपति हूं…मैं सुबह से लेकर देर रात तक काम करता हूं पिछले कई महिनो से वहाइट-हाउस नहीं छोड़ा है और फेक न्यूज से नफरत करता हूं…’।

भारत और अमेरिका के मीडिया में यही बुनियादी फर्क है। अमेरिका में राष्ट्रपति को भीगे शब्दों के साथ अपना अफसाना बयां करना पड़ रहा है, गुरूवार को न्यूयार्क टाइम्स ने खबर छाप दी थी कि ट्रम्प कई दिनों से ओवल ऑफिस में दोपहर तक ही पहुंचते हैं। उनके सुबह-शाम व्हाइट हाउस में अपने बेड रूम में टीवी पर खबरें देखते हुए बीतते हैं। ट्रम्प को पसंद नहीं है कि उनके खाने-पीने से जुड़े सवाल मीडिया के सवालों का हिस्सा बनें।

अमेरिका में मीडिया राष्ट्रपति के खिलाफ खबरें छापने से बाज नहीं आता है, जबकि भारत में सरकारी स्तर पर प्रयासपूर्वक यह ध्यान रखा जाता है कि किसी खबर से प्रधानमंत्री आहत नहीं हों। बड़े मीडिया घराने भी स्वत: यह चिंता करते है। ट्रम्प हो या कोई अन्य नेता, मीडिया के बारे में यह ’एटीट्यूड’ ज्यादातर देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मनोदशा को बयां करता है। राष्ट्राध्यक्ष मीडिया को अपने अनुकूल और नियंत्रण में ऱखना चाहते हैं। मीडिया की आजादी की यह चुनौती नई नहीं हैं। विडम्बना है कि अब अमेरिका या भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी मीडिया पर नियंत्रण की होड़ बढ़ने लगी है।

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत बहुत पीछे याने 142वें स्थान पर है। रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक 2019 में भाजपा के दुबारा जीतने के बाद मीडिया पर हिंदू राष्ट्रवादियों का दबाव बढ़ा है।
भारत में औपचारिक रूप से आपातकाल के दरम्यान सेंसरशिप लगी थी। उसके बाद मीडिया हमेशा नियंत्रण के दायरों से बाहर ही रहा है, लेकिन अब उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर मीडिया पर शिकंजा धुंधलके पैदा करने वाला है। ब्रिटिश कंपनी इकॉनामिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट की रिपोर्ट के अनुसार निष्पक्ष चुनाव, राजनीतिक भागीदारी और बहुलतावाद व सिविल लिबर्टी जैसे पैमानों पर भारत की रैंकिंग दस पायदान फिसल गई है।

2016 में भारत 32वें स्थान पर था। अब वह 42वें स्थान पर है। यहां यह उल्लेख करना मुनासिब होगा कि मोदी सरकार उन लोगों से कतई संवाद स्थापित नहीं करना चाहती है, जो उसकी नीतियों और योजनाओं से असहमत हैं और, यही मौजूदा मोदी सरकार की पहचान भी है। सरकार से सवाल पूछना तो राष्ट्रद्रोह जैसे गुनाहों का सबब बनता जा रहा है।
डोनाल्ड ट्रम्प कोरोना से संबंधित मीडिया के तीखे सवालों को शत्रुतापूर्ण व्यवहार मानते हैं। भारत में मीडिया के साथ यह हादसा घटित नहीं हो सका, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन के एक दिन पहले 23 मार्च को ही देश के मीडिया मालिकों और संपादकों को राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में सवाल उठाने और पूछने की लक्ष्मण रेखाओं से अवगत करा दिया था। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी से वही मीडिया पर्सन सवाल पूछ सकता है, जिसे वो पसंद करते हैं। केन्द्र सरकार के कार्यकलापों पर सवाल उठाना उन्हें कबूल नहीं है। शायद इसीलिए कोरोना की पड़ताल में प्रवासी मजदूरों का दर्द नदारद है, स्वास्थ्य संबंधी सरकार की अक्षमताएं सवालों से परे है, कोरोना पीड़ितों के टेस्ट की परेशानियां शब्दांकन से दूर हैं।

 (यह आलेख दैनिक समाचार पत्र सुबह सवेरे के 28 April 2020 के अंक में प्रकाशित  है)

 

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