हार के फॉर्मूले को सींचती कांग्रेस

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हार के फॉर्मूले को सींचने का काम कांग्रेस बखूबी कर रही है. हर चुनाव के बाद खूब मंथन होता है. पर अगले चुनाव में फिर वही “देखाभाला”फार्मूला ओढ़ने में पार्टी को महारत हासिल है. कांग्रेस के तजुर्बेकार (हार) नेता उसी फॉर्मूले को हरा-भरा कर चुनावी बागीचे में पेश कर देते हैं. मानो, पराजय के फॉर्मूले को सावधि जमा कर दिया हो, पांच साल बाद ये दोगुना होकर पार्टी के खजाने में जमा हो जाता है. इसी जमा खजाने की उपज है मध्यप्रदेश कांग्रेस का चुनावी फैसला. कमलनाथ-ज्योतिरादित्य की जोड़ी. ऐसी जोड़ी पिछले विधानसभा चुनाव में कांतिलाल भूरिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया की थी. इस बार खजाने से ब्याज के तौर पर चार कार्यकारी अध्यक्ष भी निकले हैं. जीतू पटवारी, बाला बच्चन, सुरेंद्र चौधरी, रामनिवास रावत. रिज़र्व बैंक गवर्नर की तरह इस ब्याज और मुनाफे पर निग़ाहें लगाये बैठे दिग्विजय सिंह तो हैं ही. कांग्रेस 2013 में मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव हारी. ताज़ा फैसलों से लग रहा है, कांग्रेस अभी भी वहीँ खड़ी है. कोई विशेष विचार, नयापन नहीं. पांच साल में पार्टी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी. इसमें चकित कर देना कुछ नहीं. ठहरे हुए पानी को उलीचकर नया बताने की कोशिश कांग्रेस के भीतर समा चुकी है. ताज़ा टीम भी ऐसा ही ठहरा हुआ पानी दिख रही है.

 कांग्रेस के ताज़ा फॉर्मूले और पिछली हार कितनी एक सी, समझते हैं…

2013 में कांतिलाल अब कमलनाथ

पिछले विधानसभा चुनाव के चेहरे याद करिये. कांतिलाल भूरिया-ज्योतिरादित्य सिंधिया.  इस बार क्या बदला? ज्योतिरादित्य वही हैं, जहाँ पिछली बार थे-चुनाव अभियान प्रभारी. बहुत थोड़ा सा बदलाव. भूरिया की जगह कमलनाथ. अंतर है तो धनशक्ति का.  चुनाव  में पैसा खर्च करने की ताकत भूरिया से ज्यादा कमलनाथ के पास है. बाकी सब वही का वही. परदे के पीछे के आका भी नहीं बदले. भूरिया के पीछे दिग्विजय रहे तो कमलनाथ का नाम भी दिग्विजय की फिरकी से ही निकला है. क्या कमलनाथ और भूरिया में कोई बड़ा अंतर है. शायद नहीं. पार्टी में और बाहर कमलनाथ जरूर बड़ा नाम दिखते हैं. दोनों सांसद हैं, केंद्र में मंत्री रहे. दोनों सीमित क्षेत्र तक सीमित नेता हैं. दोनों कम बोलने और बयानबाजी से दूरी रखते हैं. समर्थकों के मामले में कमलनाथ भूरिया से थोड़ा आगे हैं. पर उनके समर्थक प्रदेश में छितरे हुए हैं.   भूरिया आदिवासियों के और आम जनता में अपना सा चेहरा तो रहे हैं, पर कमलनाथ का चेहरा जनता के लिए पराया सा है. इस तुलना का मकसद भूरिया या कमलनाथ के कद को मापना नहीं है. इसे बताना इसलिए जरुरी है कि कांग्रेस ने पांच साल में क्या सबक लिया, क्या बदलाव किये. बेशक मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से है, पर जब तक आप अपनी पुरानी कमजोरियों को नहीं मापेंगे नया कैसे गढ़ेंगे. आखिर कमलनाथ को कमान सौंपकर पार्टी क्या हासिल करना चाहती है. वही पुराने परिणाम?

2013 की लेटलतीफी अब भी कायम

पूरे देश से सिमटती कांग्रेस अब भी खुद को अखिल भारतीय पार्टी मानकर जी रही है. टिकट बंटवारे से लेकर नेता चुनने तक में वही भाव बना हुआ है. मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल से बेकार बैठी पार्टी अब क्यों काम पर लगी. लेटलतीफी कांग्रेस के डीएनए में समा चुकी है. गोवा में इसी कारण सबसे अधिक सीट जीतने के बावजूद पार्टी सरकार नहीं बना सकी.वहां के प्रभारी दिग्विजय सिंह थे. ये बताने का आशय कांग्रेस को कमतर बताना या दिग्विजय विरोध कतई नहीं है. सीधा सवाल कांग्रेस आलाकमान से है. आखिर कब तक शीर्ष नेतृत्व ऐसे फैसले लेता रहेगा. 230 विधानसभा सीट तक पहुंचने लायक वक्त तो कमलनाथ को मिलना ही चाहिए. एन चुनाव के वक्त उन्हें जिम्मेदारी देने का क्या तुक है. पिछले चुनाव में भी पार्टी ने एन वक्त पर ज्योतिरादित्य को चुनाव अभियान प्रभारी बनाया था. वे पूरी सीटों तक पहुँच ही नहीं पाये। अचानक ज्योतिरादित्य को लाने से उस वक्त भी कांग्रेस विभाजित हो गई थी और हार के सिवा कुछ बचा नहीं.

कैसे टिकेगा नया फार्मूला

क्षत्रपों में बंटी कांग्रेस को बीजेपी से पहले खुद से निपटना होगा. ये नया नहीं है. पर इस बार जो फार्मूला आया है वो बेहद खतरनाक साबित हो सकता है. इसमें बड़ी खामियां है. राजनीति में सही वक्त और उचित सम्मान से ही सबको साधा जा सकता है. कांग्रेस ने कई बड़े नेताओं को किनारे कर दिया. बंटवारा ठीक से नहीं हुआ.

कमलनाथ अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव अभियान प्रभारी. यहाँ तक तो ठीक. पर चार कार्यकारी अध्यक्ष  विचार अच्छा है. पर इन पदों पर नियुक्ति कमजोर है. बेहतर होता चार कार्यकारी अध्यक्ष वरिष्ठ नेताओं को बनाया जाता. महेश जोशी, कांतिलाल भूरिया, सज्जनसिंह वर्मा, अजय सिंह, अरुण यादव कार्यकारी अध्यक्ष बनाये जाते. इससे इन नेताओं में जिम्मेदारी का अहसास रहता और अपने-अपने इलाकों में ये कमलनाथ के हाथ मजबूत करते. जीतू पटवारी, बाला बच्चन, सुरेंद्र चौधरी, रामनिवास रावत जैसे युवाओं को प्रचार अभियान समिति में रखा जाता. ये फार्मूला कमलनाथ, ज्योतिरादित्य और कांग्रेस तीनो के लिए फायदेमंद होता. कीचड होती कांग्रेस में कमल का खिलना और बीजेपी के कमल को पंजे में कैद करना आसान नहीं होगा.

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