राजनीति के द्वंद्व और रणदिवे का दायित्व…
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राजनीति के द्वंद्व और रणदिवे का दायित्व…

इंदौर भाजपा के नए अध्यक्ष गौरव रणदिवे के लिए कोरोना संकट कितना
मददगार साबित हुआ बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत कालीधर

इंदौरi गौरव प्रकाश रणदिवे। महानगर भाजपा का नया चेहरा। इस चेहरे पर अब आपत्तियां चस्पा होने लगी हैं। सीनियरिटी को बुरा लग रहा है। जूनियर कैसे दांव मार गया। वैसे ही जैसे भाजपा के शिखर पुरुष आडवाणी को नजरंदाज कर तब के जूनियर मोदी को संघ ने आगे कर दिया था।

मैं जानता हूँ रणदिवे जैसे छोटे कार्यकर्ता के मामले में यह उदाहरण बहुत विराट है लेकिन हर कस्बे, नगर और महानगर में संगठन का ढांचा वही है और उसमें मार्गदर्शक, वरिष्ठ नेता और उभरते चेहरों का द्वंद्व भी एक सा ही है। यह द्वंद्व इंदौर में भी है। इसमें नया कुछ नहीं।

अगर नया कुछ है तो वह रणदिवे का दायित्व। अब इसपर सवाल उठना या उठाना संगठन के आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई कही जा सकती है। हां, “पोलिटिक्स” का हिस्सा तो बिल्कुल है ही। यह भी सच है कि अगर कोरोना संकट न होता तो रणदिवे के लिए सामने खड़ी सीनियरिटी महासंकट खड़ा कर देती। उनके आका सुहास भगत के लिए भी इसे सुलझाना आसान नहीं होता क्योंकि कसौटियों की गठानें कई बार तर्कों से ढीली कर दी जाती हैं। पर अभी रणदिवे की गांठ कसी हुई है, मजबूत हैं।

सारे बड़े लोग समझ रहे हैं उन्हें बदलने की जो अटकलें हैं स्वतः समाप्त हो जाएंगी। इसके कारण भी हैं। युवा होते संगठन में (बुजुर्ग होते चेहरे) सीनियर कितनी बार एक ही नाम का विरोध करेंगे। जो राजनीति की अंदरखाने चलने वाली उठापटक को जानते हैं वे भूले नहीं होंगे कि राऊ से टिकट की जुगत की इबारत भी तो रणदिवे के लिए लिखने के प्रयास हुए थे। यही नहीं ताई का टिकट कटने के बाद इंदौर लोकसभा के लिए भी तो नाम आगे बढ़ाने की भरसक कोशिश की गई थी, यह अलग बात है कि इस पर संगठन ने ही कान नहीं धरा।

फिर युवा मोर्चा प्रदेश अध्यक्ष के लिए भी जोर लगाया गया था। यह हैमरिंग काम कर गई। चौथी बार में बात बन गई। जिनकी बात नहीं बन पाई वे निराश हैं। उदास भी हैं। होना स्वाभाविक भी है क्योंकि नगर में काम करते हुए संगठन को सींचने वालों के लिए हर नए माली की नियुक्ति अप्रत्याशित होती है।

वैसे मोदी युग में प्रत्याशित का परसेंटेज अब रह कितना गया है…! उमेश शर्मा सरीखे नेता जो अपने भाषणों से पानी में आग लगा दे, उन्हें ठंडा रखने की कोशिशें न जाने कब तक चलती रहेगी। एक बात और…। रजनीति में अक्सर विरोध किसी डिमांड का पूरक होता है। बदनावर में राज्यवर्धनसिंह ने भँवरसिंह शेखावत की जगह को भर दिया है और यह संगठन को भी पता है।

(फेसबुक वॉल से साभार )

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