मीडिया की मनमानी- ये अर्नब या पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की आज़ादी की जंग नहीं है, ये सीधे-सीधे मनमानी और रुतबे के दुरूपयोग का मामला
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मीडिया की मनमानी- ये अर्नब या पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की आज़ादी की जंग नहीं है, ये सीधे-सीधे मनमानी और रुतबे के दुरूपयोग का मामला

प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड जैसे संस्थान पत्रकारिता से अनैतिक हित
साधने वालों पर बोलेंगे ? और पत्रकारिता को बचाने के लिए कभी सामने आएंगे ?

पंकज मुकाती

मुंबई से लेकर दिल्ली तक बुधवार को खूब हलचल रही हड़कंप मचा रहा। क्यों ? क्योंकि रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। अर्नब पर किसी को आत्महत्या के लिए मजबूर करने का मामला है। अर्नब उनकी टीम और उनके समर्थक इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने, निजी कुंठा और आपतकाल बता रहे हैं।

सोचिये, ये पत्रकारिता से जुड़ा हुआ नहीं एक आपराधिक मामला है। कालचक्र में एक ही जैसे दो मामलों की अलग-अलग कानूनी व्यवस्था कैसे हो सकती है। कुछ दिनों पूर्व अपनी ही अदालत में अर्नब ने रिया चक्रवर्ती और बॉलीवुड की तमाम हस्तियों पर एक मुकदमा चला रखा था। फैसला तक वे सुना रहे थे, वो भी एक जज नहीं शासक की तरह, अपनी चैनल के सिहासन पर बैठकर कमर पर हाथ रखकर। क्या वो पत्रकारिता का सही तरीका था।

अर्नब के पूछता है भारत वाली अदालत में मुकदमा चला-सुशांत सिंह राजपूत को आत्महत्या के लिए मजबूर करने का। आज वैसे ही आरोप में खुद अर्नब को गिरफ्तार किया गया है। उन्हें इसे कानूनी रूप से स्वीकार करना चाहिए और अदालत के फैसले का इंतज़ार करना चाहिए। क्योंकि अर्नब पर आरोप लगाने वाले शख्स न अपने अंतिम नोट में अर्नब का नाम भी लिखा है। अपनी मां के साथ आत्महत्या करने वाले इस इंटीरियर डिज़ाइनर ने लिखा है कि अपने स्टूडियो का काम करवाकर अर्नब ने उन्हें 5 करोड़ रुपये नहीं दिए। इसलिए वे आत्महत्या करने को मजबूर हैं।

अर्नब ने रिया और दूसरों पर जो मुक़दमे चलाये उनमे तो सुशांत सिंह राजपूत ने कोई नोट भी नहीं छोड़ा। अब मामला ये है कि लगातार कानूनी बातें करने वाले अर्नब अपने और उस डिज़ाइनर के बीच के सच को बताएं। हो सकता है वो इंटीरियर डिज़ाइनर भी सच नहीं बोल रहा हो। पर आज के दौर में अधिकांश मीडिया हाउस और उनके पत्रकारों ने मुफ्त में बाज़ार से काम करवाने, काम करवाने के बाद पैसे न चुकाने को अपना अधिकार मान लिया है।

अर्नब गोस्वामी का मामला इसलिए कुछ अधिक तूल पकड़ रहा है कि वे देश में सत्तारूढ़ भाजपा के भक्त हैं। रात-दिन सोनिया गांधी और कांग्रेस से नफरत पर जिंदा रहते हैं।पाकिस्तान को अपने सिंहासन से धमकी देते हैं। कई मौके पर तो वे पाक को तबाह कर देते हैं। देश में सांप्रदायकिता को जगाये रखने को वे भी दिन रात एक किये रहते हैं।

उनकी बात के सामने जो भी बोलता है उसे वे चीख-चीख कर पुकारते है-दम हो तो आओ, वे तू-तड़ाक में भी पीछे नहीं रहते। क्या इसी अभिव्यक्ति की आज़ादी और पत्रकारिता को बचाने के लिए हम इकठ्ठा होते रहेंगे। चीखना और मीडिया ट्रायल ही आज की पत्रकारिता है। अपनी बात रखिये पर दूसरे का मुंह दबाकर उसको चुप करने की आज़ादी तो मीडिया नहीं है।

अर्नब की गिरफ्तारी इस वजह से भी अधिक तूल पकड़ रही है कि पिछले महीनों में उनका महाराष्ट्र की शिवसेना की अगुवाई वाली राज्य सरकार से बहुत बुरा टकराव चल रहा है। मुम्बई पुलिस के साथ तो जंग छिड़ी हुई है। ऐसे में उनकी गिरफ्तारी के कुछ मिनटों के भीतर यह जायज ही था कि केन्द्र सरकार के बड़े-बड़े कई मंत्री उन्हें बचाने के लिए ट्विटर पर टूट पड़े। मंत्री समूह ने इस पर अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई।

अब सवाल यह है कि आपातकाल में मीडिया पर हुए हमले से इसकी तुलना करना जो शुरू हो गया है, क्या वह तुलना सचमुच जायज है? आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का यह मामला किसी के भुगतान का है। उसकी आत्महत्या की चिट्ठी में लिखा मिला था कि अर्नब गोस्वामी ने उसके कई करोड़ रूपए का भुगतान नहीं किया। इंटीरियर डिज़ाइनर की पत्नी ने पुलिस में 2018 में रिपोर्ट दर्ज कराई थी और मृतक की चिट्ठी भी लगाई थी जिसमें अर्नब और दो दूसरे लोगों द्वारा 5.04 करोड़ रूपए का बकाया भुगतान न करने की बात लिखी थी, और आर्थिक तंगी की वजह से आत्महत्या करने की।

अब सवाल यह उठता है कि क्या एक टीवी चैनल के मालिक और उसके चीखने के शोर में बाकी सभी आवाज़ें दबा देनी चाहिए ? क्या देनदारी के विवाद के बाद हुई आत्महत्या पर इसलिए कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए कि देनदार एक टीवी चैनल का मालिक है, जो जर्नलिस्ट भी है ? पत्रकारिता और पत्रकारों को बचाने का दावा करने वाली एडिटर्स गिल्ड ने भी गिरफ्तारी का विरोध किया। प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया और ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन की तो बात करना किसी काम का नहीं।

प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड और पूरे देश के कस्बों तक फैले प्रेस क्लब। इन सबकी जिम्मेदारी (जैसा ये आने संविधान में लिखते हैं) पत्रकारिता और पत्रकारों के हितों की रक्षा है। पत्रकारों के और पत्रकारिता पर नाम पर जो हित मीडिया मालिक अनैतिक रूप से साध रहे हैं, उस पर ये संस्थाये क्यों नहीं बोलती। प्रेस कौंसिल और एडिटर्स गिल्ड कब पत्रकारिता को बचाने को सामने आएंगे ?

 

 

 

 

 

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