राजीव त्यागी की मौत…पूछता है हिंदुस्तान !

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प्रकाश हिंदुस्तानी (वरिष्ठ पत्रकार )

पूछता है भारत के नाम पर अपनी निजी आस्था वाले चैनेलों की डिबेट में कैसे न्यूज़ एंकर मुद्दे को अपने मनमाफिक मोड़ने के लिए चीख-चीख कर प्रवक्ताओं की बात को गलत बताने पर लड़ाई के हद तक उतर आते हैं, ऐसी ही डिबेट का शिकार हुए कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी।

गत 20 जून को ही राजीव त्यागी 50 वर्ष के हुए थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उत्तर प्रदेश के महासचिव थे। उनके नज़दीकी लोगों का कहना है कि वे काफी खुशमिजाज व्यक्ति थे और बातचीत के लिए अपनी तेज़तर्रार शैली के लिए मशहूर थे। शायद इसीलिए कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व उन्हें बहुत पसंद करता था।

वे वाकपटु थे और टीवी चैनलों में होने वाली डिबेट्स में शामिल होने के लिए कांग्रेस के नेताओं की पहली पसंद हुआ करते थे। वे कांग्रेस का पक्ष शानदार तरीके से रखते थे और अपने विरोधियों की धज्जियां उड़ा देते थे। बीते बुधवार यानी 12 अगस्त की शाम में एक राष्ट्रीय चैनल पर बातचीत डिबेट में चर्चा ले रहे थे कि उन्हें हार्ट अटैक आया और उनका निधन हो गया।

अक्सर उनकी भिड़ंत भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा से होती थी। बुधवार को भी संबित पात्रा ही उनके साथ सामने थे। चर्चा में और लोग भी थे लेकिन वे उतने चर्चित नहीं थे। 12 अगस्त को दोपहर तीन बजकर 40 मिनट पर उन्होंने आखिरी ट्वीट किया था, जिसमें बताया था कि शाम बजे वे टीवी बहस में हिस्सा लेंगे।

फिर वे अपने घर पर ही वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए डिबेट में हिस्सा ले रहे थे। इसी दौरान ही उन्हें असहजता महसूस हुई और पहले नज़दीकी डॉक्टर को बुलाया गया, लेकिन बाद में उन्हें एनसीआर के यशोदा अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था।

राजीव त्यागी अपने जीवन की जिस आखिरी डिबेट में शामिल हुए रहे थे उसमें संबित पात्रा के साथ उनकी गरमागरम बहस भी हुई। शो में उन्होंने एक मुस्लिम स्कॉलर को लताड़ भी लगाई थी। यह डिबेट वास्तव में बेंगलुरु में हुई हिंसा को लेकर थी, जिसका कारण कोई फेसबुक पोस्ट थी।

टीवी एंकर ने जब कहा कि बेंगलुरु हिंसा में कांग्रेस के विधायक का नाम आया है, वह कोई दलित है। ना कोई दलित चिंतक बोला ना संविधान को सड़कों पर रौंदते वक़्त संविधान का कोई ठेकेदार बाहर निकला और अभिव्यक्ति की आजादी तो भूल ही जाइए क्योंकि अल्पसंख्यकों का मामला है। ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी एक तरफ चली जाती है।

इस पर राजीव त्यागी ने कहा था कि सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि किसी भी संस्था या किसी भी व्यक्ति द्वारा की गई हिंसा का कांग्रेस विरोध करती है। वह सरकार से सिर्फ इतना कहना चाहती है कि जो भी दोषी होगा, उसे सजा मिलनी चाहिए। दोषी चाहे कोई भी हो लेफ्ट या राइट विंग का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके बाद उन्होंने कहा कि मैं अब इस्लामिक स्कॉलर की बात पर आता हूं। ये जो इस्लामिक स्कॉलर हैं इन्होंने धर्म को नहीं जाना है। इन्हें की जानकारी होती तो ये शान्ति की बात करते।

संबित पात्रा ने इस टीवी डिबेट में जयचंदों का जिक्र बार-बार किया था। संबित पात्रा को संबोधित करते हुए राजीव त्यागी ने कहा था कि संबित पात्रा के कहने का मतलब यह है कि हिंदुओं पर बड़ा अत्याचार हो रहा है, जबकि हिन्दू वादी सरकार है। तैमुरलंग, मोहम्मद गजनबी, अंग्रेज, डच आदि पता नहीं कौन-कौन आए, लेकिन हिन्दू दर्द को खत्म नहीं कर पाए। पता नहीं 2014 से हिन्दू धर्म पर कितना आक्रमण हो रहा है।

बेहतर होगा कि इन लोगों को रोजगार दे दो, शिक्षा दे दो। यही बात हो रही थी कि राजीव त्यागी असहज महसूस करने लगे। बार-बार अपना पसीना पोंछते हुए नजर आ रहे थे। उनकी पत्नी के अनुसार टीवी डिबेट करने के बाद नीचे गिरे और कुछ देर बाद अस्पताल ले जाने पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित किया।

राजीव त्यागी की मृत्यु से पूरा मीडिया जगत, राजनीतिक दल और देश सकते में है। संबित पात्रा ने ट्वीट करके बताया कि राजीव त्यागी मेरे मित्र थे और उनके निधन पर मुझे बहुत ज्यादा अफसोस है। अपने ट्वीट में संबित पात्रा ने लिखा कि विश्वास नहीं हो रहा है कांग्रेस के प्रवक्ता मेरे मित्र राजीव त्यागी मेरे साथ नहीं है। शाम पांच बजे हम दोनों ने साथ में एक टीवी चैनल पर डिबेट भी किया था।

जीवन बहुत अनिश्चित है। अभी भी शब्द नहीं मिल रहे हैं। गोविंद राजीव जी को अपने श्री चरणों में स्थान देना। संबित पात्रा ने एक अन्य ट्वीट में चैनल के एंकर को संबोधित करते हुए कहा था कि माफ कीजिएगा आज मैं गुस्से में कुछ ज्यादा ही बोल गया। उन्होंने यह भी कहा कि हम सब बैठे हुए हैं, इसी का नतीजा है कि देश में यह सब कुछ हो रहा है। बेंगलुरु में हिंसा एक सोची समझी साजिश है। संबित पात्रा के तेवर सोशल मीडिया पर भी नजर आए।

ट्विटर पर उन्होंने लिखा कि यह लोग जो कहते हैं कि बेंगलुरु में हिन्दू मंदिर को बचा लिया गया, उसका उत्तर यह है कि आतंकी हाफिज सईद भी चावल बांटने लगे तो क्या वह मदर टेरेसा भी बन जाएगा?

यह ड्रामा बंद होना चाहिए। एक अन्य ट्वीट में संबित पात्रा ने लिखा कि इस्लामिक स्कॉलर अतीकउर्र रहमान कहते हैं कि जो लोग तंग कर रहे हैं तो उन्हें जेल में डालो, फांसी पर टांग दो। जब आतंकवादी को फांसी दे रहे थे, तब छाती पीट-पीटकर हल्ला कर रहे थे। इसके पहले एक ट्वीट में उन्होंने लिखा था कि उनका मेरे दिल में बहुत आग है। आज से अभिव्यक्त करना है।

संबित पात्रा के ट्वीट को लेकर समाज का एक वर्ग उद्वेलित है। यहां तक कि सुबह तक तो अरेस्ट संबित पात्रा हैशटैग भी चलन में आ गया था। लोगों का यह भी कहना था कि जिस तरह सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले में रिया चक्रवर्ती से पूछताछ हो रही है, उसी तरह संबित पात्रा से भी पूछताछ होनी चाहिए। जो लोग इस से ऐसी बातें करते हैं वह खुद जानते हैं कि वह क्या कर रहे हैं। गुरुवार दोपहर तक इस हैशटैग से डेढ़ लाख ट्वीट किये जा चुके थे।

सवाल यह है भारतीय समाचार चैनलों पर डिबेट के नाम पर जो कुछ दिखाया जाता है, वह कितना उचित है? इन टीवी डिबेट में एंकर मदारी की भूमिका में होता है और वह मुर्गे लड़वाने जैसा काम करता है।

कई एंकर तो इतने पढ़े लिखे भी नहीं होते हैं। वे एक पैनलिस्ट के जवाब को दूसरे पेनलिस्ट के सामने बात को दोहराते हैं और पूछते हैं कि बताइए इस पर आपका क्या कहना है? ऐसा लगता है कि टीवी के कई एंकर्स के पास पढ़ने के लिए समय नहीं होता है। दो और दो चार होते हैं जैसी बात कहना हो तो भी वे ऐसे चीख कर कहते हैं मानो दुनिया की सबसे बड़ी गणित की खोज की सूचना दे रहे हों।

भारतीय समाचार चैनलों के अधिकांश न्यूज़ एंकर बातचीत में आपा खो देते हैं या आपा खोने का नाटक करते हैं। वे चीख चीख कर कोई भी बात बार-बार कहते हैं और अपनी बात को ही देश की बात मानने लगते हैं।

वे कुछ सवाल पूछना चाहते हो तो कहते हैं भारत सवाल कर रहा है। वे खुद ही भारत हैं और खुद ही मसीहा। ये एंकर्स ऐसे चिल्लाते हैं मानो सारे पैनलिस्ट बहरे हों। इन न्यूज़ चैनल्स के एंकर्स के प्रोमो भी बेहद अजीब होते हैं। संसद भवन के सामने, हाथ बांधकर वे ऐसे खड़े होकर पोज़ देते हैं मानो प्रधानमंत्री के बाद देश का सारा बोझ उन्हीं के कंधे पर हो। जबकि उनके कंधे पर देश तो क्या, चैनल का भी बोझ नहीं होता। कई चैनल्स में तो वे खुद ही बोझ के समान होते हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि समाचार एंकर्स की बदतमीजी को ही उनकी विशेषता माने जाने लगा है। जो एंकर जितना ज्यादा बदतमीज है, वह खुद को उतना लोकप्रिय समझता है। जो जितना आक्रामक, वह उतना बड़ा बुद्धिजीवी ! यह अवधारणा बनने के कारण अनेक बुद्धिजीवी लोगों ने टीवी चैनल देखना ही बंद कर दिया।

कई लोगों ने टीवी चैनलों की बहस में पैनलिस्ट के रूप में जाना मना कर दिया है। और अब तो एक बड़ा वर्ग समाचार चैनल नहीं देखता। कई लोग अब भी मानते हैं कि इंटरटेनमेंट के नाम पर न्यूज़ चैनल देखना सस्ता है, जिसके लिए कोई अकल नहीं लगती, ना कोई मेहनत करनी पड़ती है।

ज़रा न्यूज़ चैनल के कार्यक्रमों के नाम भी देख लीजिए। दंगल, थर्ड डिग्री, हल्ला बोल, टक्कर, ताल ठोक के… आदि ! ये कोई टीवी डिबेट के नाम हैं? क्या दंगल के नाम पर कोई डिबेट्स हो सकती है? दंगल होगा तो वहां शक्ति प्रदर्शन ही होगा। विचारों का शक्ति प्रदर्शन नहीं होगा।

पुलिस थानों में दी जाने वाली अवैधानिक गतिविधि को थर्ड डिग्री कहा जाता है तो टीवी चैनल वाले भी थर्ड डिग्री के नाम पर लोगों को बुलाकर इस तरह की बातें करते हैं। अदालत एक पवित्र शब्द है, लेकिन अदालत का भी इतना मजाक उड़ाया गया है कि न्यायालय को इस बात पर आपत्ति उठानी चाहिए कि किसी भी कार्यक्रम का नाम अदालत नहीं रखा जाए।

अदालत न्याय पाने का स्थान है, मनोरंजन का नहीं। कुछ समय पूर्व एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने अपने सामने बैठे पैनलिस्ट को मां की गाली तक दे डाली थी। एक कार्यक्रम में एक महिला पैनलिस्ट ने मौलाना को थप्पड़ ही मार दिया था। टीवी डिबेट में आकर मां की गाली देने वाले पूर्व सैन्य अधिकारी के खिलाफ कभी कोई बयान नहीं दिया गया। उल्टे उनके पक्ष में ही बातें की जाने लगी।

किसी ने यह नहीं कहा कि टीवी चैनलों की भाषा मर्यादित होनी चाहिए। कोई ऐसा नियम बनना चाहिए कि टीवी डिबेट में आने वाले वक्ताओं की बातें सुनने के लिए और उनको अपनी बात कहने के लिए कम से कम 30 या 40 सेकंड तो देने ही जानी चाहिए।

लेकिन होता यह है कि कोई भी प्रतिभागी अपनी बात शुरू करता है और 5 या 10 सेकेंड के भीतर उस डिबेट को संचालित करने वाला उचकने लगता है। कुल मिलाकर यह टीवी डिबेट टीवी एंकर का एकालाप यानी मोनोलॉग हो जाता है। ऊपर से स्टूडियो के भीतर की कुटिल राजनीति भी होती है, जब किसी पैनलिस्ट की सही बात को भी म्यूट कर दिया जाता है क्योंकि चैनल को अपना एजेंडा पूरा करना होता है।

जब अकेला दूरदर्शन था, तब उस में होने वाली बौद्धिक चर्चाओं का स्तर काफी उच्च होता था। आज भी दूरदर्शन और उससे जुड़े हुए चैनलों के बौद्धिक कार्यक्रम दर्शनीय होते हैं। जहां आने वाले अतिथि को अपनी बात कहने के लिए कुछ सेकेंड तो मिलते ही हैं। एंकर बीच में टोका टाकी नहीं करते। बीबीसी और कुछ भारतीय चैनलों में ही एंकार के पास धैर्य होता है कि वह इनकी बात सुनें।

टेलीविजन के समाचार चैनल पर आए दिन यह बात देखी जा सकती है कि चर्चा का मूल मुद्दा कुछ और होता है, लेकिन चर्चा आकर रुक जाती है जाति, धर्म या क्षेत्रीयता पर। पैनलिस्ट डिबेट में तर्क – वितर्क से ज्यादा कुतर्क करते नज़र आते हैं और एंकर उन्हें प्रोत्साहित करता रहता है।

ऐसा लगता है मानो सड़क के किनारे मुर्गे लड़ाए जा रहे हों। हमारे देश में शास्त्रार्थ यानी शास्त्रों के आधार पर चर्चा करने की सदियों पुरानी परंपरा है। यहां बाहुबल का नहीं, ज्ञान का सम्मान होता है, लेकिन शास्त्रार्थ करने वाली परंपरा न्यूज़ चैनलों में नहीं है। डिबेट का आयोजन इसलिए होता है ताकि समाचार संकलन पर होने वाला भारी भरकम खर्च नहीं करना पड़े और मुफ्त में आए मेहमानों से बातचीत करके पूरा समय बिताया जा सके।

इससे लोगों को भ्रम होता है कि वे कोई बौद्धिक कार्यक्रम देख रहे हैं। यह अफसोसजनक है कि मर्यादित आचरण टीवी के स्क्रीन पर अब कम ही नज़र आता है। एक दूसरे का विरोध करने वाले नेताओं का आपस में चिल्लाना , अमर्यादित बोल चकित करनेवाला है। आज़ादी के बाद हमें लगातार परिपक्व होनाचाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं है।

पुरानी कहावत है कि जिन लोगों में आत्मबल, आत्मविश्वास और ज्ञान की कमी होती है, वे वो ऊंची आवाज़ में बात करते हैं और चिल्लाकर अपनी बात मनवाने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि ऊंची आवाज़ में बोलने और चीखने से ही उनकी बात सुनी जाएगी।

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