मोदी की अच्छी पहल -अब जरुरत है सब मिलकर पर्यावरण बचाएं

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भारत की विख्यात पर्यावरणशास्त्री सुनीता नारायण का मानना है कि भारत के प्रधानमंत्री का यह लक्ष्य घोषित करना तारीफ के काबिल है, और भारत ने समृद्ध दुनिया के पाले में गेंद डाल दी है, अब उन देशों को इसके मुकाबले अपने प्रदूषण और कार्बन उत्पादन कम करना है।

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

अभी-अभी निपटे दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरण सम्मेलन कॉप-26 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुस्तान के नेट जीरो एमिशिन पाने के लिए 2070 तक का जो लक्ष्य घोषित किया है, उसे देश के सबसे बड़े पर्यावरणवादियों ने बड़ा महत्वाकांक्षी कहा है।

भारत की आज की ऊर्जा की जरूरत लगातार बढ़ती चली जा रही है, और बिजली का उत्पादन भी बढ़ते जा रहा है, लेकिन देश में बिजली का अधिकतर उत्पादन कोयले से हो रहा है, और दुनिया का लक्ष्य कोयले के इस्तेमाल को, और दूसरे जीवाश्म ईंधन को घटाते चलने का है। ऐसे में भारत ने यह भी कहा है कि वह 2040 तक पर्यावरण में कारबन या प्रदूषण की बढ़ोतरी अधिकतम स्तर पर पहुंचने पर स्थिर कर देगा, और उसके बाद 2070 तक वह इसे नेटजीरो कर देगा, जिसका मतलब है कि वह पर्यावरण में प्रदूषण या कार्बन नहीं जोड़ेगा।

भारत की विख्यात पर्यावरणशास्त्री सुनीता नारायण का मानना है कि भारत के प्रधानमंत्री का यह लक्ष्य घोषित करना तारीफ के काबिल है, और भारत ने समृद्ध दुनिया के पाले में गेंद डाल दी है, अब उन देशों को इसके मुकाबले अपने प्रदूषण और कार्बन उत्पादन कम करना है।

पूरी दुनिया के अलग-अलग देशों का पर्यावरण को बचाने में क्या रुख है, उनके क्या खतरे हैं, और उनकी क्या जिम्मेदारियां हैं, इस पर बहुत चर्चा दुनिया भर में जानकार लोग कर रहे हैं, लेकिन हम उसके हिंदुस्तान वाले हिस्से पर, और खासकर देश के संघीय ढांचे को लेकर कुछ बुनियादी बातों पर आज चर्चा करना चाहते हैं, जिन पर गौर किए बिना भारत अपना भी पर्यावरण नहीं बचा सकेगा, और दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकेगा।

प्रदूषण को कम करना, कार्बन उत्पादन को घटाना, चीजों की खपत को घटाना, और साफ-सुथरी बिजली बनाना, यह पूरा का पूरा काम अकेले केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, और इसमें से बहुत सारा काम राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, और जिम्मेदारी है तो जाहिर तौर पर अधिकार क्षेत्र भी उन्हीं का है।

यह पूरा का पूरा काम केंद्र सरकार अपने बजट से, अपने पैसों से पूरा नहीं कर पाएगी, यह भी है कि अगर वह बजट भी देगी तो भी उस पर अमल तो राज्य सरकारों के रास्ते ही होगा। इसलिए भारत सरकार को देश के संघीय ढांचे के तकाजे के मुताबिक पर्यावरण के मुद्दे पर राज्य सरकारों को भरोसे में लेकर, और राज्य सरकारों को इस मंजिल को हासिल करने के मकसद में शामिल करके इस काम को आगे बढ़ाना चाहिए।

अभी हमारे सामने यह बात साफ नहीं है कि ब्रिटेन के ग्लासगो में हुए इस पर्यावरण सम्मेलन के पहले प्रधानमंत्री ने देश के राज्यों से विस्तृत विचार-विमर्श किया था या नहीं, लेकिन अगर नहीं भी किया था तो भी उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर यह काम इसलिए भी करना चाहिए कि 2070 तक के जो लक्ष्य हैं, उनके पूरे होने तक केंद्र में बहुत सी सरकारें आएंगी-जाएगी, राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की अलग-अलग सरकारें आएंगी-जाएंगी, और जब तक मन, वचन, और कर्म से केंद्र और राज्य सरकारें इस मुद्दे पर एक साथ नहीं रहेंगी तब तक ऐसी कोई भी घोषणा पूरी होने से रही।

हम आज इस मुद्दे को देश के संघीय ढांचे की शुरू से चली आ रही व्यवस्था के बीच भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसलिए मान रहे हैं क्योंकि देश का पर्यावरण बाकी दुनिया के पर्यावरण से अछूता नहीं है। और देश का पर्यावरण अलग-अलग राज्यों में बंटा हुआ नहीं है, मौसम और पर्यावरण राज्यों की सरहदों का सम्मान नहीं करते, वे तो देशों की सरहदों का भी सम्मान नहीं करते।

इसलिए प्रदेशों के नक्शे से परे जाकर केंद्र सरकार को पहल करके मौसम के बदलाव से जूझने की इस जंग में देश के तमाम राज्यों को शामिल करना चाहिए। प्रधानमंत्री को अपनी इन घोषणाओं के बाद इस जिम्मेदारी को राज्यों के साथ बांटना चाहिए, वरना राजनीतिक मतभेदों के चलते इसकी आशंका अधिक है कि राज्यों पर अगर केंद्र की कोई मनमानी थोपी जाएगी तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र को यह जवाब दे सकते हैं कि ग्लासगो में की गई घोषणा क्या उनसे पूछकर की गई?

जरा ठोस शब्दों में अपनी बात को अगर हम कहें तो देश में आज एक पर्यावरण-संसद बनाने की जरूरत है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा केंद्रीय पर्यावरण मंत्री, संसद की पर्यावरण के मामलों से जुड़ी हुई, कोयले और बिजली के मामलों से जुड़ी हुई संसदीय समितियों के सांसद, और इन मंत्रालयों के मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और उद्योग, वित्त, तथा पर्यावरण विभागों के मंत्री रहें।

इन सबको शामिल करके एक राष्ट्रीय पर्यावरण संसद तुरंत ही बनानी चाहिए जिसकी साल में कम से कम 2 बैठकें हों। पर्यावरण के मुद्दों को किसी एक राज्य की मनमानी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, और न ही इन्हें केंद्र सरकार के रहमोकरम पर छोड़ा जाए। एक राज्य और केंद्र सरकार यह मिलकर भी इसे किसी विपक्षी मुद्दे की तरह ना निपटाएं, क्योंकि किसी भी राज्य का पर्यावरण दूसरे राज्यों को भी प्रभावित करता ही है।

इसलिए हमारा यह साफ मानना है कि दुनिया के इस सबसे जलते-सुलगते मुद्दे से निपटने के लिए भारत के भीतर हर प्रदेश को दूसरे प्रदेश के मामलों में अपनी राय रखने का हक रहना चाहिए। जिस तरह संसद में हर प्रदेशों से आए हुए सांसद किसी भी प्रदेश के मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं, ठीक उसी तरह ऐसी एक पर्यावरण संसद बनाकर उसमें तुरंत ही केंद्र सरकार अपनी सोच रखे, अपने बजट को सामने रखे, और राज्य सरकारों से उस पर राय मांगे, उस पर राजनीति से परे का विचार-विमर्श हो, और हर प्रदेश को दूसरे प्रदेशों के मामलों में वहां पर बोलने का खुला मौका मिले।

किसी राज्य के मुख्यमंत्री को भी ऐसी पहल करनी चाहिए कि वह प्रधानमंत्री से पर्यावरण-संसद बनाने को कहे जिसमें कोई ऊपर नीचे न रहे, और जो केंद्र से राज्यों को किसी हुक्म की तरह भी काम न करे, जिसमें हर बात रिकॉर्ड पर दर्ज हो जाए।

हमारा तो यह भी मानना है कि किसी भी जिम्मेदार संस्था की तरह ऐसी पर्यावरण-संसद को भी देश और दुनिया के पर्यावरणशास्त्रियों और दूसरे विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय भी सुननी चाहिए ताकि केंद्र और राज्य सरकारों का अपना ज्ञान भी बढ़ सके, उनमें समझ भी बेहतर हो सके, और उनके फैसले भी बेहतर हो सकें।

अलग-अलग राज्य इस मुद्दे पर काम करें इसके बजाय केंद्र के साथ बैठकर तमाम राज्यों को खुली बातचीत करनी चाहिए और ऐसी कोई पहल प्रधानमंत्री के स्तर पर ही हो सकती है। यह बात प्रधानमंत्री के लिए बहुत सुहानी शायद ना हो कि उन्हें अपनी घोषणा पूरी करने के लिए राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मदद लेनी पड़े, लेकिन देश का संघीय ढांचा यही कहता है, और इसके बिना प्रधानमंत्री अपनी कही किसी बात को पूरा कर भी नहीं पाएंगे।

साल में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री और सारे मुख्यमंत्री पूरे दिन बैठकर पिछले 6 महीनों का हिसाब सामने रखें, और अगले छह महीनों की योजना बनाएं। आज दुनिया में मौसम का बदलाव और पर्यावरण की बर्बादी करोड़ों लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने की कगार पर है, इसलिए इस अभूतपूर्व खतरे से निपटने के लिए अभूतपूर्व रास्ते निकालने की जरूरत है, और ऐसा ही एक रास्ता आज हम यहां सुझा रहे हैं। हिंदुस्तान में केंद्र और राज्यों की ऐसी मिली-जुली पर्यावरण-संसद ही 2030 या 2070 तक देश को दुनिया के सामने जिम्मेदार साबित कर सकेगी और ऐसा कुछ करने से पहले ही यह भी जरूरी है कि इस देश के भीतर अपने लोगों को बचाने के लिए पर्यावरण का खराब होना थामा जाए।

 

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