भारतीय डीएनए की अमेरिकी कामयाबी का जश्न और अब्दुला दीवाना

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सुनील कुमार (सम्पादक,डेली छत्तीसगढ़ )
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अमरीका में आज भारतीय मूल के एक व्यक्ति को वहां की फौज में प्रमुख प्रवक्ता बनाया गया तो परंपरानुसार मीडिया और सोशल मीडिया पर भारत के लोगों ने बड़ी खुशी जाहिर की, और गर्व किया। हिन्दुस्तानी नाम, हिन्दुस्तानी जाति-नाम, और हिन्दुस्तानी चेहरा दुनिया में जहां कहीं कामयाबी पाएं, हिन्दुस्तान के लोग खुश हो जाते हैं, और अपनी जमीन पर गर्व करने लगते हैं।
आज अमरीका में अगली सरकार के लिए निर्वाचित- राष्ट्रपति ने ऐसे कई भारतवंशी चेहरों को अलग-अलग जिम्मेदारियां दी हैं। लेकिन अमरीकी सरकार से परे भी ब्रिटिश सरकार, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की सरकार, मॉरीशस या दूसरी कई सरकारों में भारतवंशी बड़े महत्वपूर्ण ओहदों पर हैं। अमरीका की तरफ से अंतरिक्ष में जाने वाली सुनीता विलियम्स की जड़ें भारत के गुजरात में थीं।

अब छोटा सा सवाल यह उठता है कि इन लोगों की कामयाबी पर फख्र करने का हक किसे है? सरकारों से परे भी भारत से अमरीका गए हुए बहुत से बिजनेस मैनेजर दुनिया की सबसे बड़ी-बड़ी कंपनियों, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, पेप्सी के मुखिया बने हैं और अभी भी हैं।

इनमें से कई लोगों की पढ़ाई हिन्दुस्तान के आईआईटी या आईआईएम, या इन दोनों में हुई है। लेकिन इनकी सारी संभावनाएं हिन्दुस्तान के बाहर जाने के बाद एक ऐसे देश में सामने आईं जहां पर काम करने का खुला माहौल है, सरकारी दखल शून्य है, राजनीतिक दबाव नहीं हैं, टैक्स एजेंसियों और सरकारों के भ्रष्टाचार से नहीं जूझना पड़ता है।

ऐसे लोग भारत से पढक़र जरूर गए हैं, इनके डीएनए में पिछड़ी पीढिय़ों का हिन्दुस्तानी डीएनए जरूर है, लेकिन इनकी कामयाबी उस देश के नियम-कायदों, वहां की सरकारी व्यवस्था, वहां के प्रतिस्पर्धी बाजार की वजह से हुई है।

हिन्दुस्तान के आईआईटी और आईआईएम से पढ़े हुए लोग इस देश में भी काम करते हैं, उनमें से बहुत से लोग यहां भी कुछ या अधिक हद तक कामयाब होते हैं, लेकिन उनकी संभावनाओं को इस देश के सरकारी शिकंजों और भ्रष्टाचार का ग्रहण लग जाता है।

जब कभी कोई भारतवंशी भारत के बाहर जाकर कामयाब हो, तो उस पर गर्व करने के बजाय हिन्दुस्तानियों को यह सोचना चाहिए कि क्या भारत में उसकी ऐसी संभावनाओं को एक खुला आसमान मिल सकता था? आज अमरीका की बड़ी से बड़ी कंपनियां वहां के राष्ट्रपति से असहमति रखते हुए काम कर सकती हैं।

सरकार के अगुवा का ट्विटर या फेसबुक अकाऊंट ब्लॉक कर सकती हैं, और वहां का कानून उनकी हिफाजत के लिए खड़े रहता है। अमरीका में आज मौलिक और अनोखी सोच की कारोबारी कामयाबी से वह देश आसमान पर पहुंचा है, लेकिन वहां जमीन से आसमान तक के इस सफर में इन कारोबारियों को जगह-जगह सरकारी और राजनीतिक बैरियरों पर रंगदारी टैक्स नहीं देना पड़ता।

अपनी राजनीतिक सोच की वजह से उन्हें प्रताडि़त नहीं होना पड़ता। जो भारतीय आज दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं, वे अगर हिन्दुस्तान में ही रह गए होते तो क्या होता? वे आसमान पर कितनी ऊंचाई तक पहुंच पाते? इसलिए डीएनए पर गर्व कोई अच्छी बात नहीं है।

कोई किस देश में पैदा हुए हैं, वह मायने नहीं रखता, किस देश ने उनकी संभावनाओं को खुलकर निखरने का मौका दिया, वह मायने रखता है। हिन्दुस्तानी खून वाली कमला हैरिस की मां अमरीका पहुंची थी, पिता किसी और देश से वहां पहुंचे थे, और वहां पर उनकी यह संतान बिना किसी पुरानी जड़ों के बराबरी के अवसर पाकर आगे बढ़ी, और आज उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो चुकी है।

अब अगर वह हिन्दुस्तान के अपने पुरखों के प्रदेश तमिलनाडू में रहती, तो क्या वह अपने दम पर इतनी आगे बढ़ सकती थी? हो सकता है कि हिन्दुस्तान में भी कुछ ऐसी मिसालें हों, लेकिन अधिकतर पार्टियों में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेतागिरी कर रहे हैं।

ऐसी कुनबापरस्ती के बिना पश्चिम के जो विकसित और परिपक्व लोकतंत्र लोगों को बराबरी के अवसर देते हैं, वहां पर किसी की कामयाबी पर उसके जन्म के कुनबापरस्त देश को गर्व करने का कोई हक नहीं होना चाहिए। अमरीका अपनी जिस मिलीजुली संस्कृति की वजह से विकसित हो पाया है, उस संस्कृति को कुचलने में लगे हुए देश भी अगर अमरीका में अपने डीएनए की कामयाबी का जश्न मनाते हैं, तो यह एक बड़ा पाखंड होता है।

देश के भीतर उस माहौल का दम घोंट दो जिस माहौल की वजह से अमरीका में दूसरे देशों से आए लोग भी कामयाब होते हैं, और फिर उस कामयाबी पर उनके पुरखों के देश में जश्न मनाया जाए, तो शायद ऐसी ही हरकत के लिए किसी ने लिखा था- बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।

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