डोलो की गोली और डॉक्टरों की बेईमानी … हजार करोड़ की रिश्वत !

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बेईमान डॉक्टरों का इलाज जरुरी ..

डोलो की टेबलेट की मामला अदालत में है। आरोप है कि कोरोना के दौर में डॉक्टरों को रिश्वत देकर अंधाधुंध ये टेबलेट लिखवाई गई। पर अकेले इस गोली का मामला नहीं है चिकित्सा का पूरा क्षेत्र ही रिश्वत और बेईमानी पर टिकता जा रहा है। मेडिकल कॉलेज में प्रवेश से लेकर पोस्टमॉर्टम तक में रिश्वत ली जा रही है।

सुनील कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

यह बात सुनने में कुछ हैरान कर सकती है कि अदना सी दवा की टेबलेट पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बताया गया है कि पिछले दो दौर की कोरोना महामारी के दौरान बुखार और बदन दर्द में काम आने वाली पैरासिटामॉल टेबलेट के एक खास ब्रांड डोलो-650 की बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनी ने डॉक्टरों को रिश्वत दी, ताकि वे इसे अंधाधुंध लिखें।

अदालत में यह जनहित याचिका फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने दायर की है, जिसका कहना है कि इस कंपनी ने डॉक्टरों को रिश्वत देने पर हजार करोड़ रूपये खर्च किए हैं। कंपनी ने इस खर्च को गलत बताया है और कहा है कि यह कोरोना के दौरान का खर्च नहीं है, यह पिछले कई बरसों का मार्केटिंग का खर्च है।

अभी यह मामला अदालत में चलना है, और जज भी इसे गंभीरता से ले रहे हैं। अदालत ने उपहारों के नाम पर डॉक्टरों को दी गई रिश्वत पर कंपनी से जानकारी मांगी है। कुछ समय पहले आयकर विभाग ने भी यह दवा बनाने वाली कंपनी के 9 राज्यों के 36 ठिकानों पर छापा मारा था।

लेकिन हम आज की बात को इसी एक दवा पर शुरू और खत्म करना नहीं चाहते, क्योंकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सुनवाई कर ही रही है, और वहां से कोई न कोई नतीजा सामने आएगा। हम चिकित्सा और दवा कारोबार में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार की बात जरूर करना चाहते हैं जो कि बहुत ही संगठित है, इस कारोबार से जुड़े लोगों की नजरों में हैं, लेकिन उसे रोकने की कोशिश नहीं होती है।

बड़े-बड़े कामयाब कारोबारी-अस्पताल और डॉक्टर मरीज लेकर आने वाले दलालों को कमीशन देते हैं, मरीज भेजने वाले छोटे डॉक्टरों को इलाज के बाद की निगरानी के नाम पर चेक से भुगतान करते हैं। इसके अलावा तरह-तरह की जांच करने वाले जो मेडिकल सेंटर हैं, वे भी अपने को मरीज भेजने वाले लोगों को संगठित तरीके से कमीशन देते हैं।

यह पूरा कारोबार चिकित्सकों के संगठनों की नीतियों के खिलाफ है, वहां से कई बार नोटिस जारी होते भी हैं, लेकिन जिंदगी से जुड़े इस पेशे और कारोबार से इस गंदगी को दूर करने की कोई ठोस कोशिश दिखाई नहीं देती है।

दरअसल चिकित्सा से जुड़ा हुआ यह पूरा कारोबार निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिले में होने वाले पूरी तरह से संगठित भ्रष्टाचार से शुरू होता है, और सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए दी जाने वाली रिश्वत पर खत्म होता है।

फिर एक बात यह भी है कि इलाज के तौर-तरीके, जांच का फैसला, और दवाओं की पसंद, इन सबमें अलग-अलग डॉक्टरों की अलग-अलग सोच हो सकती है, और किसी को भी तेजी से तब तक खारिज नहीं किया जा सकता, जब तक उनके इन फैसलों को किसी रिश्वत से प्रभावित साबित न किया जा सके।

अभी सुप्रीम कोर्ट में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स का जो संगठन कंपनी और डॉक्टरों के बीच बेईमान रिश्ते का आरोप लेकर पहुंचा है, वह एक जागरूक संगठन है, और वह समय-समय पर कंपनियों की बेईमानी के खिलाफ लड़ते भी रहता है। हिन्दुस्तान में मरीजों का तो कोई संगठन न है, और न बन सकता, लेकिन मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स का संगठन ही दवाओं की बढ़ती हुई कीमतों के खिलाफ हर समय आवाज उठाते रहता है, और दवा उद्योग के दूसरे नाजायज तौर-तरीकों का भांडाफोड़ भी करता है।

इसलिए ऐसे संगठन की कोशिशों का साथ देने की जरूरत है ताकि वह मरीजों के हित के लिए लड़ सके, और दवा कंपनियों और डॉक्टरों के अनैतिक गठबंधन के खिलाफ भी।आज हिन्दुस्तान में निजी चिकित्सा कारोबार लगातार बढ़ते चल रहा है, और केन्द्र और राज्य सरकारें भी मरीजों को दिए जाने वाले स्वास्थ्य बीमा कार्ड को इन अस्पतालों से जोड़ते जा रही हैं।

नतीजा यह है कि आज सरकारी अस्पताल लगातार उपेक्षित हो रहे हैं, और निजी चिकित्सा कारोबार बढ़ते ही जा रहा है। जब गरीब बीमार होते हैं, तो अगर सरकारी स्वास्थ्य बीमा कार्ड उस खर्च को नहीं उठा पाता, तो लोग गहने और मकान बेचकर भी इलाज करवाते हैं। ऐसे में उनके साथ अगर दवाओं के रेट को लेकर बेईमानी होती है, गैरजरूरी जांच करवाई जाती है, जांच में कमीशन लिया जाता है, तो इन सबका भांडाफोड़ होना चाहिए।

लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब कई अस्पतालों ने अपने दलालों के मार्फत यह पाया कि लोगों के स्वास्थ्य बीमा कार्ड पर अभी और इलाज करवाने लायक रकम बाकी है, तो कुछ अस्पतालों ने गांव के गांव की महिलाओं को उठवा लिया, और उनकी उम्र देखे बिना भी उनके गर्भाशय निकाल दिए गए थे।

अस्पतालों ने तो छप्पर फाडक़र कमाई कर ली थी, लेकिन बाद में जब यह पूरी धोखाधड़ी उजागर हुई तो कई डॉक्टरों और अस्पतालों को ब्लैकलिस्टेड किया गया था, और उनका कारोबार रोका गया था। इसलिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा जहां सबसे गरीब लोगों के लिए मुफ्त इलाज का एक जरिया है, वहीं गैरजरूरी इलाज करके गरीबों के बदन का नुकसान भी किया जाता है, और सरकार को चूना भी लगाया जाता है।

लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले मेडिकल कॉलेजों के दाखिलों को लेकर बड़ा भ्रष्टाचार पकड़ाया था, और मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने वाली कमेटी एमसीआई में भी फेरबदल किया गया था। आज जरूरत यही है कि जिस तरह दवा प्रतिनिधियों के संगठन ने सुप्रीम कोर्ट तक पहल की है, बाकी सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी चिकित्सा कारोबार की बाकी गड़बडिय़ों के खिलाफ पहल करनी चाहिए, और जरूरत हो तो स्टिंग ऑपरेशन भी करना चाहिए।

देश की राजधानी में यह बात आम प्रचलित है कि निजी मेडिकल कॉलेजों से लेकर निजी अस्पतालों, और दवा कंपनियों तक के खेमे सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में करने की अपार ताकत रखते हैं। ऐसी लॉबियों की मर्जी के खिलाफ कुछ कर पाना सरकारों के लिए भी आसान नहीं रहता है। ऐसे में सुबूतों और स्टिंग ऑपरेशनों के साथ अदालतों तक जनहित याचिका लेकर जाना एक असरदार तरीका हो सकता है।

 

 

 

 

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