अपने बेटे को कोरोना से बचाने1400 किलोमीटर स्कूटी चलाई इस मां ने
बुरा वक्त लोगों के भीतर के सबसे अच्छे और सबसे बुरे को सामने लेकर धर देने का वक्त भी रहता है। अभी आंध्र-तेलंगाना में अलग-अलग फंस गए मां-बेटे की कहानी सामने आई है कि किस तरह बेटे को लाने के लिए मुस्लिम बुरकापरस्त महिला अपने छोटे से दुपहिए पर 700 किलोमीटर दूर गई, और उतना ही सफर बेटे को लेकर लौटते हुए भी किया।
कोई मजदूर अपनी बीवी को साइकिल पर बिठाकर 750 किलोमीटर ले गया। हाथ-पैर सभी पर चलने वाले एक दिव्यांग की कहानी आई है कि किस तरह वह दिल्ली से जमीन पर बैठे चलते हुए मध्यप्रदेश के सागर के पास अपनी बहन के गांव पहुँचा कि उसे कुछ रुपयों की मदद कर सके। ना तो इनमें से किसी ने यह सोचा होगा कि उनके भीतर ऐसी ताकत है, और ना ही आज इन असली कहानियों को पढऩे वालों को यह भरोसा होता है कि सच में किसी ने ऐसा किया होगा।
दुनिया की हकीकत यही है कि आग में तपकर ही सोना खरा होता है, ये सारे लोग अब बाकी जिंदगी दुनिया के लिए हौसले की, इरादे की मिसालें बने रहेंगे। कल ही इसी जगह हमने छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सल इलाके में काम करते-करते कैंसर से गुजर जाने वाली एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता को सलाम किया था।
ये तमाम लोग बहुत साधारण लोग हैं, इसलिए इनकी कहानियां स्कूलों की किताबों में शायद ना आ सकें, लेकिन आज जब बड़े और बच्चे सभी घरों में खाली बैठे हैं, तो यह सही वक्त है कि लोग बहादुरी की ये असली कहानियां आपस में बाँटें। यह भी जरूरी नहीं है कि बड़े लोग ही छोटों को पढ़कर बताएं, पढऩे के लायक बच्चे भी अपने बड़ों को इन्हें सुना सकते हैं, क्योंकि उन बड़ों के पास भी इतनी जिंदगी तो बची ही होगी कि वे भी अपनों के लिए, अनजान लोगों के लिए कुछ कर सकें, और अपने बच्चों के लिए मिसाल बन सकें, उनको भी गर्व का एक मौका दे सकें. ।
दिल्ली में काम करने वाले एक पत्रकार, सैकत दत्ता, इन दिनों रात-दिन सरकारी अमले के साथ काम करते हुए सिर्फ लोगों की मदद कर रहे हैं, और जिंदगी का सबसे बड़ा सुकून पा रहे हैं। बिहार के पत्रकार पुष्य मित्र पिछले एक बरस से कभी बाढ़ में बचाव के काम में लगे रहे, जा-जाकर लोगों की मदद की, और चमकी बुखार को लेकर अभी भी कर रहे हैं, समाज के लिए करने के साथ-साथ लगातार लिखते भी हैं, बहुत खूब लिखते हैं, साम्प्रदायिकता पर हमला करते हैं, जिस समाज को कुदरती मुसीबत से बचाने के लिए, बीमारी से बचाने के लिए वे मेहनत करते हैं, उस समाज को नफरत से बचाने का भी उनका हक है।
बहुत से संगठन हैं जो कि मुसीबत के इस वक्त में भूखों को खाना पहुंचाने में लगे हैं। रायपुर शहर के सीताराम अग्रवाल हैं जो कि कई शहरों की बड़ी सरकारी अस्पतालों के करीब मरीजों के परिजनों के लिए मंगल-भवन चलाते हैं, लोग भी मदद करते हैं लेकिन उन्होंने करोड़ों रूपया अपना भी लगाया हुआ है। आज वे भूखे मजदूरों को खाना पहुंचाने में भी लगे हैं, उनके साथ, उनसे अलग भी बहुत से लोग हैं।
आज जगह-जगह से डॉक्टर-नर्सों की कहानियां आ रही हैं, कि किस तरह वे जान पर खेलकर, अपनी जान भी देकर मरीजों को बचाने का काम कर रहे हैं। पुलिस के लोगों के वीडियो आ रहे हैं कि किस तरह वे लोग भूखों को खाना खिला रहे हैं, बीमार और गर्भवती को अस्पताल पहुंचा रहे हैं, छत्तीसगढ़ पुलिस की गाडिय़ों में तो अस्पताल की राह पर बच्चों का जन्म भी हो जा रहा है। पुलिस यह सारा काम अपनी जिम्मेदारी से बाहर जाकर कर रही है।
दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी मुसीबत हो, सिक्खों को हर धर्म के लोगों की मदद करते देखकर भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हिंदुस्तान में अभी कोरोना का कहर बरपा तो सबसे पहले टाटा ने अपने खुद के पैसों के ट्रस्ट से और अपनी कंपनियों से 1500 करोड़ देने की घोषणा की, अज़ीम प्रेमजी ने भी अपने ट्रस्ट और अपनी कम्पनियों से ऐसा ही कुछ किया, दूसरी तरफ देश को लूट लेने के लिए बदनाम कंपनियों ने अपनी किसी दावत जितना चिडिय़ा का चुग्गा ही जेब से निकाला। देश को इन तमाम बातों का फर्क एक-दूसरे को बताना चाहिए।
गाँधी, नेहरू, नेलसन मंडेला, और मदर टेरेसा की कहानियां ही जरूरी नहीं होती हैं, हमारे आसपास भी ऐसी बहुत सी सच्ची कहानियां हैं जिन पर सोचकर हम अपने को बेहतर बना सकते हैं।
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