कांग्रेस में ऊर्जावान युवाओं की फ़ौज पर शीर्ष की सोच बेहद बूढी और थकी हुई !

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सियासत और सत्ता के सदाबहार यौवन को राजनीति, बगावत और बदलती सत्ता की महत्वकांक्षा से समझा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अजय पौराणिक

2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार ने पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को युवा होने के बावजूद इतना आहत कर दिया कि आज देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी की कमान अस्वस्थ होने के बाद भी उम्रदराज़ सोनिया गांधी को सम्भालना पड़ रही है।

यूं तो अलग अलग प्रान्तों से कांग्रेस में कई युवा नेता हैं, भले ही वे ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट की तरह हाई प्रोफाइल और पार्टी आला कमान के करीबी न होने की वजह से चर्चित न हों। इस कारण बड़े पदों से नवाजे भी नहीं गये हों। पर इसका हरगिज़ ये मतलब नहीं हो सकता कि गुमनाम युवा चेहरों में राजनीतिक पराक्रम और योग्यता की कमी है। किसी भी क्षेत्र में सिर्फ मौका मिलना ही सबसे अहम होता है। इसे मौके की सियासी नजाकत ही कहा जाएगा कि

बुढ़ापे की दहलीज में जा चुकी इंदिरा गांधी की 1984 में असामयिक मौत से कम उम्र राजीव को सियासत में आने के साथ ही देश का प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला। राजीव की राजनीतिक अपरिपक्वता के बाद भी इसका बहुत बड़ा फायदा तकनीकी क्षेत्र में पूरे देश के युवाओं को आज तक मिल रहा है।

राजीव की हत्या से मची सियासी उथल पुथल ने 1991 से लगातार बुजुर्ग हो चुके नेताओं को शिखर छूने का मौका दिया जब क्रमशः पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवेगौड़ा, चन्द्रशेखर और इंद्र कुमार गुजराल परिस्थितिवश भारत के सर्वोच्च सियासी पद पर बैठे। एनडीए सरकार में मुखिया अटलजी और यूपीए के मनमोहनसिंह भी इसका अपवाद नहीं रहे।

आश्चर्यजनक है लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में क्षेत्रीय राजनीति के सिवा कहीं कोई युवा बगावत नहीं देखी गई। शायद युवा नेताओं में तब सता और पद की ऐसी ललक नहीं थी जैसी आज है। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने भले ही देश को अटलजी के नेतृत्व में भाजपा की पहली केंद्र सरकार दी हो पर आजतक युवा नेतृत्व को मौका नहीं दिया।

नरेंद्र मोदी को भी साठ को पार करने के बाद ही प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल पाया। मोदी के रहते भाजपा में अभी ऐसा कोई युवा नेता नहीं जो साठ पूरे होने से पहले इस पद तक पहुंच सके और सत्तर से ज्यादा वाले तो मार्गदर्शक हो ही जायेंगे।

इस नजरिए से कांग्रेस के पास राहुल गांधी के अलावा युवा नेताओं की अखिल भारतीय बहुतायत है जिनका सही मार्गदर्शन में बेहतर सियासी इस्तेमाल संगठन की मजबूती व सत्ता की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है। बशर्ते मार्गदर्शक खुद सत्ता के इतने लालची होने से खुद को रोक पाएं कि युवाओं की बेसब्री और बगावत से संगठन भी बिखरने लगे।

मध्यप्रदेश और राजस्थान इस बात की ज्वलंत मिसाल हैं कि सत्ता प्रेम में डूबे कमलनाथ और अशोक गेहलोत की वजह से बागी हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट ने कांग्रेस के राष्ट्रीय ढांचे को झकझोरने के साथ ही भविष्य में देश के सबसे पुराने सियासी दल के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान लगा दिया। हो सकता है सिंधिया और पायलट को मौका देने की हिम्मत करके जहाँ पूरी कांग्रेस मजबूत हो जाती वहीं कमलनाथ और अशोक गेहलोत पार्टी में आगे बढ़ने का मौका तलाश रहे युवा तुर्कों के भीष्म पितामह बन जाते।

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