कमाल की अदालत : मिलावटी दूध के फैसले में 25 बरस !

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जिस देश की न्यायपालिका को मिलावट के मामलों में सजा देने में उसकी पच्चीस बरस लगते हैं, वहां ऐसे जुर्म के शिकार लोगों को इंसाफ भला कब और कैसे मिल सकेगा?

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

उत्तरप्रदेश के महाराजगंज जिले की खबर है कि वहां की एक अदालत से एक दूधवाले को उम्रकैद हुई है और बीस हजार रुपये जुर्माना सुनाया गया है। इतने में तो कोई बात अटपटी नहीं है क्योंकि इस दूध में यूरिया की मिलावट पाई गई थी जो कि इंसानी बदन के लिए भारी नुकसानदेह है।

जाहिर है कि ऐसी मिलावट में कड़ी सजा होना ही था। लेकिन अटपटी बात यह है कि यह मामला तेईस साल पहले का था, और एक प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर यह सजा हुई है।

ठीक इसी तरह एक दूसरा मामला उत्तरप्रदेश के ही शाहजहांपुर की अदालत का है जहां दो लोगों को उम्रकैद हुई है, और यह फैसला पच्चीस साल बाद आया है। इस मामले में 1997 में जहरीले आटे से बनी रोटी खाकर चौदह लोगों की मौत हो गई थी, और उसकी सजा अब दी गई है।

जाहिर है कि आटे के जहरीले होने की रिपोर्ट भी प्रयोगशाला से ही आई होगी। जो लोग ऐसे मामलों में पुलिस और दूसरे सरकारी विभागों के काम के तरीके जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि सुबूत जब्त और सील करने से लेकर प्रयोगशाला की रिपोर्ट आने तक का पूरा सिलसिला आम हिंदुस्तान भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहता है, और इस बाधा दौड़ को पार करते हुए जब कोई सुबूत प्रयोगशाला में मिलावटी, स्तरहीन, या जहरीला पाया जाता है, तो ही सजा की नौबत आती है।

आमतौर पर हिंदुस्तान में ऐसे सुबूतों की जांच को लेकर मुजरिम और भ्रष्ट लोग चैन की नींद सोते हैं कि बहुत सी प्रयोगशालाओं में नतीजों को आसानी से खरीदा जा सकता है, और किस प्रयोगशाला में सैम्पल भेजा गया है, वह पता लगाना भी आसान रहता है, महज कुछ हजार की रिश्वत का काम रहता है।

अब सवाल यह उठता है कि रासायनिक सुबूतों वाले ऐसे आसान से मामलों में भी जब फैसला आने में चौथाई सदी लग जा रही है, तो उसका मतलब यह है कि जांच और न्याय व्यवस्था इस देश में तकरीबन नामौजूद हैं।

अधिक गुंजाइश तो यही रहती है कि पच्चीस बरस पहले ऐसे मिलावट के जिम्मेदार मुजरिम अब तक मर-खप गए होंगे, और किसी के सजा पाने की गुंजाइश कम ही रहती है। फिर यह भी है कि इतने बरस जाकर अब निचली अदालत से सजा हुई है, तो अभी ऊपर की बड़ी अदालतों तक अपील और सुनवाई, और फैसला बदल जाने की गुंजाइश बाकी ही है।

आज हालत यह है कि देश भर में मिलावट और नकली खानपान पकडऩे वाले विभाग अपने-अपने प्रदेशों में सबसे भ्रष्ट चुनिंदा विभागों में से एक रहते हैं। कहीं नकली खोवा पकड़ाता है, तो पास का त्यौहार निकल जाने हफ्तों बाद उसकी जांच रिपोर्ट आती है।

नतीजा यह रहता है कि मिलावटी सामान लोगों के पेट में जाते ही रहता है। पुलिस और दूसरे विभागों के सैम्पल जब्ती के सही तरीके, और उनकी प्रयोगशाला से आनन-फानन जांच की गारंटी जब तक नहीं होगी, तब तक कोई इंसाफ नहीं हो सकता।

जिस देश की न्यायपालिका को इस बात पर शर्म नहीं आती कि मिलावट के मामलों में सजा देने में उसकी पच्चीस बरस लगते हैं, वहां ऐसे जुर्म के शिकार लोगों को इंसाफ भला कब और कैसे मिल सकेगा?

हिंदुस्तानी स्कूलों में बच्चे बचपन से ही निबंध लिखना सीखते हैं कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता। लेकिन हिंदुस्तान में न्याय का यही तरीका है, यही सिलसिला है, और यही रफ्तार है।
कायदे की बात तो यह है कि अलग-अलग प्रदेशों को अपने राज्य में मिलावट और नकली खानपान के दर्ज मामलों का अध्ययन किसी गैरसरकारी एजेंसी से करवाना चाहिए कि उनमें से इंसाफ या सजा तक मामले कितने बरस में पहुंच पाते हैं।

ये मामले जमीनों पर कब्जे के अदालती मामलों से अलग रहते हैं क्योंकि इनसे लोगों की जिंदगी जुड़ी रहती है। अब सवाल यह है कि देश-प्रदेश की सरकारें अपनी खुद की नाकामी के मामलों के कितने अध्ययन करवाएंगी, क्योंकि आज तो सरकारों की नीयत अपनी कमियों और खामियों को किसी भी तरह से ढंकने की रहती है। फिर भी लोकतंत्र में एक कारगर तरीका है जिसका इस्तेमाल जनसंगठन कर सकते हैं।

सरकारों से जो जानकारी सूचना के अधिकार में भी नहीं मिलती है, वैसी जानकारी किसी सांसद या विधायक को पकडक़र उससे सदन में एक सवाल लगवाकर पाई जा सकती है।

ऐसी जानकारी के तहत यह भी पाया जा सकता है कि मिलावट और नकली खानपान के दर्ज मामले कितने वक्त से चले आ रहे हैं, और उनमें प्रयोगशाला की जांच रिपोर्ट आने में कितना वक्त लग रहा है, अदालती सुनवाई में कितना वक्त लग रहा है, और कितने फीसदी मामलों में सजा हो रही है।

किसी भी प्रदेश में विधानसभा में पूछा गया एक सवाल सरकार को मजबूर कर सकता है कि वह ऐसी पूरी जानकारी इकट्ठा करके सदन के सामने पेश करे। चूंकि ऐसे सवाल जनता के हित में रहते हैं इसलिए विधायकों को इनके लिए तैयार भी किया जा सकता है, और जनसंगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, या अखबार ऐसे सवाल विधायकों को देकर अपील भी कर सकते हैं।

हिंदुस्तान में सूचना का अधिकार लागू है, और अगर सरकारें ईमानदार नीयत से जनता को यह हक देने में योगदान करें, तो सरकारी व्यवस्था की बहुत किस्म की खामियां सामने आ सकती हैं। उत्तरप्रदेश की अदालतों के ये दो ताजा फैसले जनता की जागरूकता की मांग करते हैं ताकि सरकार और अदालत की रफ्तार सुधारी जा सके।

 

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