…ट्रम्पस्क का असर, मेटा ने सच-झूठ परखना छोड़ दिया

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-सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)

फेसबुक की मालिक कंपनी मेटा ने अमरीका में फैक्ट चेकिंग प्रोग्राम बंद करने का ऐलान किया है। अब तक भारी सार्वजनिक और अमरीकी-संसदीय दबाव के तहत दुनिया की यह सबसे चर्चित कंपनी अपने प्लेटफॉर्म पर आने वाली सामग्री में सच-झूठ, अफवाह, और नफरत, इसकी सच्चाई की कुछ जांच-पड़ताल करती थी। जबकि हिन्दुस्तान में हमारे सरीखे लोगों का यह तजुर्बा रहा कि इस पर लगातार नफरती फोटो-वीडियो, या दूसरी सामग्री पोस्ट होती रहती थी, होती रहती है, और यहां कंपनी कोई जवाबदेही भी नहीं मानती। और तो और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर लगातार पूरी तरह से फर्जी और धोखेबाज विज्ञापन आते रहते हैं, और कंपनी उनको रोकने की जहमत भी नहीं उठाती, जबकि उन विज्ञापनों का पैसा लेते हुए कंपनी की नजर में वे अलग से आते ही हैं, वे लोगों की निजी फोटो, कविता, या किसी टिप्पणी से परे की ठोस बात रहते हैं, और सबसे बड़ी बात यह कि फेसबुक को उनसे कमाई होती है।

लोगों को मुफ्त में सोशल मीडिया की सहूलियत मुहैया कराने के बाद ये कंपनी उनकी मौजूदगी का नगदीकरण करती हैं। अमरीका और योरप, जहां पर कि कानून कड़े हैं, उन पर अमल अधिक सख्त है, वहां पर तो फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कुछ जिम्मेदारी दिखाते भी हैं क्योंकि अमरीकी संसद की समिति की सुनवाई में मार्क जुकरबर्ग को खुद पेश होकर सांसदों के हर सवालों का जवाब देना पड़ा था, और सांसदों ने मानो बंदूक की नोंक पर जुकरबर्ग को खड़ा करके उन लोगों से माफी मंगवाई थी जिनके बच्चों ने फेसबुक और इंस्टाग्राम सरीखे प्लेटफॉर्म की वजह से खुदकुशी कर ली थी। इस सुनवाई का जीवंत प्रसारण भी हुआ था, और यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि दुनिया के एक सबसे ताकतवर आदमी को अमरीकी संसद की कमेटी किस तरह बांह मरोडक़र दुखी मां-बाप के सामने खड़े होकर माफी मांगने को मजबूर करती है। यूरोपीय संघ जैसे ताकतवर संगठन भी फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने नियम, और अपनी शर्तें लागू करते हैं, और ऐसे विकसित, सभ्य, ताकतवर, और जागरूक देशों के सामने मेटा जैसी कंपनियां भीगी बिल्ली की तरह सहमी हुई खड़ी रहती हैं।

अभी अमरीका में फैक्ट चेक बंद करने के पीछे मार्क जुकरबर्ग ने तर्क दिया है कि कंपनी के बाहर के फैक्ट चेकर्स ने राजनीतिक पक्षपात किया था, उससे फेसबुक इस्तेमाल करने वालों का भरोसा टूटा है। उनका तर्क यह है कि तथ्यों की जांच करने से जितना भरोसा बनना था, उससे अधिक टूट गया है। हकीकत तो यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में जिस तरह से डोनल्ड ट्रम्प जीतकर आए हैं, और जिस तरह से एक बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स के मालिक एलन मस्क ट्रम्प के सबसे बड़े सलाहकार और मददगार बनकर साथ खड़े हुए हैं, इन दोनों की जोड़ी को देखकर अमरीकी कारोबारी रंग बदल रहे हैं। अभी-अभी मेटा ने ट्रम्प के एक बहुत करीबी व्यक्ति को अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में मनोनीत भी कर लिया है। और सच के लिए न ट्रम्प के मन में कोई भरोसा रहा, न एलन मस्क के। जब मस्क ने ट्विटर खरीदा था, तब से लेकर उसे एक्स बनाने तक मस्क लगातार किसी भी तरह की जांच-पड़ताल के खिलाफ रहे, और अराजकता की हद तक लोगों के पोस्ट करने के हिमायती रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एलन मस्क ने किसी भी तरह के झूठ को, नफरत, और हिंसा को ट्विटर से हटाने से मना कर दिया था।

यह सारा सिलसिला उनके पसंदीदा राष्ट्रपति पद प्रत्याशी डोनल्ड ट्रम्प की सहूलियत का था जो कि अमरीकी वोटरों के सामने तरह-तरह से झूठ परोसकर, उन्हें बरगलाकर चुनाव जीतने की तरफ बढ़ रहे थे। अब मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने यह साबित कर दिया है कि अमरीकी कारोबारी दुनिया में जिधर बम, उधर हम की नीति ही काम करती है। आज पूरी दुनिया देख रही है कि किस तरह एक निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति काम संभालने के महीनों पहले से दुनिया के सबसे रईस आदमी, और अमरीका के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क  की तय की हुई राह पर चल रहा है, मस्क के लिए हुए फैसलों पर हामी भरने से परे उसका कोई काम नहीं है। ऐसे में ट्रम्प और मस्क को सख्त नापसंद, झूठ और सच की जांच-पड़ताल को मेटा ने कचरे के ढेर पर डाल दिया है। अब दिखावे के लिए वहां कोई और तरीका ईजाद करने की बात कही जा रही है, लेकिन अब वहां झूठ को रोकने का एक योजनाबद्ध और संगठित तरीका खत्म कर दिया गया है।

हिन्दुस्तान जैसे देश को यह सोचना चाहिए कि क्या फेसबुक का ऐसा मॉडल भारत को भी मंजूर रहेगा, या फिर भारत अपनी कुछ शर्तें भी फेसबुक पर लगा सकता है? हम ऐसी सलाह तो नहीं दे रहे हैं, क्योंकि किसी भी तरह की रोकटोक का हक सरकार को तानाशाही की तरफ बढ़ाता है, और सरकारों को अधिक अधिकार दिए नहीं जाने चाहिए। फिर भी अगर कोई सर्वदलीय संसदीय समिति ऐसी बन सकती है जो कि आज जिंदगी पर सबसे अधिक असर डालने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की जवाबदेही तय कर सके, तो वैसी कोशिश जरूर करनी चाहिए। भारत की पहले से लदी हुई अदालतों पर सोशल मीडिया के झूठ और नफरत का बोझ और नहीं लादा जा सकता। इसके बारे में संसद को ही सोचना होगा, और किसी तरह की सेंसरशिप के बजाय संसदशिप जैसा एक अधिकार लागू करना होगा, ताकि देश किसी एक राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक काबू लागू न करे, और जनहित में विचारधाराओं का एक अधिक विविध मंच सोशल मीडिया की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करे।

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