पटना से उत्तर की तरफ महात्मा गांधी पुल से नीचे उतरते ही शुरू होता है रामविलास पासवान का राजनीतिक क्षेत्र हाजीपुर। गंगा नदी पर बने इस साढ़े पांच किलोमीटर लम्बे पुल पर एक बार चढ़े तो आधे रास्ते से पलटने का कोई रास्ता नहीं, पासवान की पूरी राजनीति भी इसी तरह बीच में न पलटने वाली रही
पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )
रामविलास पासवान। एक दूरदर्शी नेता। वक्त को पढ़ लेने वाला शख्स। पासवान ने जब जैसा सोचा वही किया। उनका तय किया हुआ रास्ता कभी शून्य में नहीं पहुंचा। वे जब भी चले मंजिल पर पहुंचकर ही रुके। हिंदुस्तान भले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को बिहार के बड़े नेता के तौर पर जानता हो। पर इन दोनों दिग्गजों के लिए भी रामविलास पासवान बड़े भाई ही रहे।
रामविलास पासवान दिल्ली के गलियारों में स्टाइलिश और अंग्रेजीदा तौर तरीकों में घुले हुए दिखाई देते थे। उनके परिधान डिजाइनर होते थे, उनकी दाढ़ी एक स्टाइल स्टेटमेंट बनी रही। पर दिल से वे बिहार को जीते थे। उनके भीतर खगड़िया और पटना का वो ठेठ देसी ठसक वाला व्यक्तित्व कभी ख़त्म नहीं हुआ। उन्होंने उसे कभी मिटने भी नहीं दिया।
किसी भी नेता की बड़ी जीत यही होती है कि अपने लोगों को बीच वो अपना लगे और जब दुनिया के बीच जाये तो वो वहां के तौर तरीकों के अनुकूल भी खुद को बनाये रखे। पासवान ने दिल्ली में भी अपने जन्म स्थल खगड़िया के रामविलास को ज़िंदा रखा। आम आदमी पासवान से मिलने में असहज नहीं हुआ। इसके विपरीत लालू बिहारियों के बीच सहज उनके जैसे दिखने के फेर में दिल्ली में मज़ाक भी बने। नीतीश इतने बौद्धिक और दिखावटी हुए कि वे आम आदमी के नेता नहीं बन सके। पासवान के इस अंदाज़ को उनके बेटे ने भी अपनाया।
पासवान से मेरी दो बरस पहले दिल्ली में मुलाकात हुई। वही पांच बरस पहले में उनसे पटना में भी मिला। पटना में वे बड़े से थाल में हाथों से भात खाते दिखे। उन्होंने मेरे पहुँचने पर भी अपने उस अंदाज़ को नहीं छोड़ा। ये सहजता ही उनकी पहचान रही। एक समय वे अपने संसदीय क्षेत्र हाजीपुर से देश में सर्वाधिक मतों से जीतने वाले उम्मीदवार भी रहे। वे एक ऐसे नेता है जिन्होंने छह प्रधानमंत्रियों के साथ मंत्री के तौर पर काम किया।
रामविलास पासवान की उम्र 74 साल थी। वे इसमें से 51 साल तक चुने हुए नेता रहे। आज किसी के 19 साल, दस साल पूरे होने पर ऐसा बताया जाता है, मानों इससे आगे कोई नहीं। ऐसे तमाम आत्ममुग्ध लोगों को रामविलास पासवान की ज़िंदगी को बारीकी से अध्ययन करना चाहिए। पासवान राजनीति में सफलतम लम्बी पारी खेलने की एक मिसाल हैं।
पासवान में ठुकराने का भी
रहा साहस
रामविलास पास सत्ता में बने रहे इसका ये मतलब नहीं कि वे उसूलों से समझौता करते रहे। 1969 में वे डीएसपी के लिए चुने गए। उन्होंने इस नौकरी को करने के बजाय राजनीति को चुना। विधायक बने। 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कैबिनेट मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। गोधरा कांड के विरोध में पासवान ने ये इस्तीफा दिया। उस वक्त भी राजधर्म की बात तो वाजपेयी ने ही की पर इस्तीफे का साहस पासवान ने दिखाया।
ऐसा ही मामला 2005 के विधानसभा चुनावों का भी है। पासवान की लोकतान्त्रिक जनशक्ति पार्टी ने 29 सीटें जीतीं। वे किंग मेकर बन गए। नीतीश कुमार ने पासवान से समर्थन माँगा। वे नहीं माने। नीतीश ने पासवान को मुख्यमंत्री बनने का भी ऑफर दिया। पर पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग करके इससे किनारा कर लिया। वे समझते थे कि नीतीश का साथ थोड़े का रहेगा (लालू और भाजपा इसे अब समझे ) और पासवान लम्बी सोच वाले रहे। आज उनकी पार्टी बिहार चुनाव में एनडीए से अलग होकर विधानसभा चुनाव लड़ रही है। उनके बेटे चिराग को ऐसा फैसले की सोच और साहस उनके पिता से ही मिला।
कभी किसी विचारधारा की आड़ में
छद्म राजनीति भी नहीं की
रामविलास पासवान को आपने कभी किसी एक विचारधारा में बंधा हुआ भी नहीं देखा होगा। राम मनोहर लोहिया की चर्चा वे करते रहे। वो भी शायद उनकी सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव लड़े इसलिए। दलित नेता रहे पर वे ऐसे दलित नेता हैं, जिसने बिना आंबेडकर की छतरी ओढ़े पूरी राजनीति कर ली। एक तरह से किसी विचारधारा की आड़ में छद्म राजनीति के बजाय उन्हें जो वक्त पर सही और दलितों के लिए सहायक लगा वे उसे करते रहे। ऐसे ज़ज़्बे वाले नेता भी अब नहीं हैं।
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