उमेश त्रिवेदी (प्रधान संपादक दैनिक सुबह सवेरे )
गांधी परिवार से इतर अपनी राजनीतिक नियति की इबारत लिखने से पहले कांग्रेस कार्यसमिति के नेताओं को संगठनात्मक पहलुअों के उस व्याकरण को भी समझना होगा, जिसका कांग्रेस में नितांत अभाव है। सत्ता की स्याही से लिखे संगठन के स्तुतिगान की लय और लकीरें अब फीकी पड़ने लगी हैं।
खुशामद के खोखलेपन की सांय-सांय के बीच खुद को ‘रि-इन्वेट’ करना आसान काम नही हैं। संगठन के व्याकरण और अक्षर ज्ञान को विकसित करने से पहले उन चुनौतियों को चिन्हित करना होगा, जिनके मुकाबले कांग्रेस बौनी सिद्ध हो रही है।
कांग्रेस का मुकाबला भाजपा से है, जो दुनिया का सबसे बड़ी काडर-बेस राजनीतिक दल होने का दावा करती है। राजनीति के वर्तमान परिदृश्य को भलीभांति समझ कर भाजपा ने खुद को उसके रंगों से बखूबी संजोया है। इसके विपरीत कांग्रेस समय की धार और नब्ज पकड़ने में चूक करती रही है।
कांग्रेस को पता होना चाहिए कि राजनीति का वर्तमान कालखंड हिंदी साहित्य का वह रीति-काल नहीं है, जहां बिहारी या पदमाकर जैसे कवियों का श्रृंगार रस सर्वमान्य और स्वीकार्य हो। राजनीति के मौजूदा खुरदुरे धरातल पर प्रेमचंद की सहज बयानी जरूरी है, जो लोगों के मर्म को भिगो सके और सहजता से अंकित हो सके।
इस परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस और भाजपा के बीच फासला बड़ा है। यह फासला झोपडियों में बिकने वाली ‘कड़क मीठी चाय’ और और पांच सितारा होटलो में बिकने वाले ‘चाऊ-मिन’ जैसे विदेशी व्यंजनों जितना है। कड़क मीठी चाय और चाऊ-मिन भाजपा और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के मिजाज को प्रतिबिंबित करते हैं, संवाद की सीमाओं को रेखांकित करते हैं, मुहावरों के फर्क को दर्शाते हैं, व्यक्तित्व के विकास की परिधियों को दिखाते हैं।
14 नवम्बर 2016 में नोटबंदी के बाद गाजीपुर की सभा में कटाक्ष करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी ने जब यह कहा था कि गरीबों को मेरी कड़क मीठी चाय पसंद आती है, तो देश के करोड़ों गरीबों की जुबान ठंडे मौसम में पी जाने वाली कड़क मीठी चाय का रसास्वादन करती महसूस करने लगी थी। राहुल गांधी अथवा कांग्रेस का दीगर शीर्ष नेतृत्व जमीनी हकीकत और कहावतों से मर्म को भेदने की इस कला से कोसों दूर खड़ा नजर आता है।
समय की समझ और संवाद के मद्देनजर कांग्रेस की उपरोक्त सीमाएं उस वक्त भी नजर आ रही हैं। गांधी परिवार से भिन्न अध्यक्ष बनाने की कठिन राहों पर आगे बढ़ने से पहले कार्यसमिति को ठंडे दिमाग से अपनी राजनीतिक-नियति का आकलन करना होगा।
पीढि़यों का संघर्ष और परिवारवाद एक चतुराई भरा राजनीतिक खेल है। राजनीति में इन मुद्दों पर सत्ता भुनाने के आरोपो का सिलसिला दशकों पुराना है। राममनोहर लोहिया से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, यह कार्ड लगातार खेला जाता रहा है। देशकाल और परिस्थितियों के मान से इऩ आरोपों की सघनता-विरलता निर्धारित होती रहती है। भाजपा में भी बड़े पैमाने पर परिवारवाद पनप रहा है, लेकिन उंगली सिर्फ राहुल गांधी पर उठ रही है।
भाजपा ने परिवारवाद के नाम पर जो राजनीतिक मायाजाल रचा था, कांग्रेस उसके ट्रैप में फंस चुकी है। राजनेताओं की चुम्बकीय शक्ति ( मेगनेटिक-पावर) में घट-बढ़ या विचलन राजनीतिक-प्रक्रियाओं की सहज स्वभाव होता है। राजनीति की चुम्बकीय-शक्ति का अनुपात सत्ता की गहनता से सीधा जुड़ा है। 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से हताश राहुल गांधी भूल गए कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 21 सीटों पर कांग्रेस की जीत ने उन्हे प्रधानमंत्री पद के लायक कद्दावर नेता बना दिया था।
उसके बाद उम्रदराज होने के नाम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद उन्हे प्रधानमंत्री बनने का मशविरा दिया था। भाजपा भी ऐसे उतार-चढ़ाव से अछूती नहीं रही हैं। 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 2 सीटों पर सिमटी भाजपा के नेता अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाऩी घुटने बांध कर घर में नही बैठ गए थे। राजनीति एक सतत जूझने वाला काम है, जिसमें मोदी हर वक्त काम करते नजर आतें है और राहुल गांधी की विदेश यात्राएं मजाक का सबब बनती हैं।
राहुल गांधी की जिद है कि वो कांग्रेस की कमान नही संभालेगें और कांग्रेस में गांधी परिवार से इतर ऐसा कोई सर्वमान्य और सर्वसम्मत चेहरा नजर नहीं आता है, जो कमान संभाल सके। कांग्रेस में गैर गांधी अध्यक्ष का प्रयोग कांग्रेस के लिए आत्मघाती हो सकता है, क्योंकि किसी अन्य नेता में ये कूबत नही है कि वो कांग्रेस के सूबेदारों को एकजुट रख सके।
वैसे कांग्रेस में फुल टाइम अध्यक्ष की जरूरत तर्कसंगत महसूस होती है, ताकि प्रधानमंत्री मंत्री मोदी की बढ़ती लोकप्रियता और कद के मुकाबले कांग्रेस की राजनीति को संयोजित किया जा सके। अंतरिम अध्यक्ष के रूप में एक साल पूरी होने के बाद सोनिया गांधी पद पर बरकरार रहने को तैयार नहीं हैं। अभी उन्हें कार्यसमिति ने छह महीने और अध्यक्ष रहने के लिए चुना है। उम्मीद की जा रही है कि छह महीने में नया पूर्णकालिक अध्यक्ष चुन लिया जायेगा। राहुल गांधी का पलायनवादी रूख कांग्रेस की परेशानी का मुख्य सबब है।
कांग्रेस नेता चाहते हैं कि एक सुनियोजित रणनीति के तहत कांग्रेस आगे बढ़े। सैद्धांतिक धुरी पर कांग्रेस का विचलन सबसे बड़ी चिंता का विषय है। कांग्रेस की तात्कालिक जरूरत है कि वह हिंदुत्व के पिच पर भाजपा से निपटने के लिए सुविचारित दीर्घगामी रणनीति पर क्या काम करे और ध्रुवीकरण के अस्त्रों को कैसे निष्प्रभावी करे।
भाजपा ने भाजपा ने राजनीति को राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व, सेना, सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण जैसे ब्राण्ड में बदल दिया है। इससे निपटना आसान नहीं है। कांग्रेस का एक धड़ा चाहता है कि नेतृत्व का मसला सुलझना चाहिए ,ताकि पार्टी नीतिगत फैसले लेकर आगे बढ़ सके। जबकि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह कांग्रेस मे अध्यक्ष के विवाद को पार्टी को तोड़ने वाला कदम मानते हैं। अमरिंदर और उनके समर्थकों का कहना है कि पार्टी नेतृत्व का मामला आपसी समझ, सामंजस्य और सर्वसम्मति से तय होना चाहिए। चुनाव जैसी प्रक्रियाएं पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकती हैं।
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