कुमार दिग्विजय
ग्वालियर चम्बल की जमीन जातीय उभार की वह परम्परागत जमीन है जहां बिरादरी के समर्थन का जूनून सिर चढ़कर बोलता है और यहाँ पर समर्थन को
लेकर कोई भी अस्पष्टता से सत्ता पाने के सपने चकनाचूर हो सकते है।
दरअसल उपचुनावों में बसपा के अकेले ताल ठोकने की घोषणा के बाद पासा पलटा हैऔर कांग्रेस और बसपा के बीच अघोषित समर्थन की खिचड़ी पक रही है। इस खिचड़ी में कमलनाथ के उस सर्वे का बड़ा योगदान है,जिसमें कांग्रेस की
निर्णायक बढत बताई जा रही है। यह भी दिलचस्प है की एजेंसी से यह सर्वे तो करा लिया गया लेकिन जमीनी हकीकत जानने की जरूरत दिग्गजों ने नही समझी।
वास्तव में 2018 के विधानसभा चुनाव और 2020 में होने वाले उपचुनावों में जमीन आसमान का फर्क है। इन विधानसभा चुनावों में भाजपा के हारने का
प्रमुख कारण शिवराजसिंह चौहान के माई के लाल की ललकार थी वहीं अनुसूचित जाति के लोग भी भाजपा से नाराज थे।
उपचुनावों में ऐसा कोई भीसमीकरण या स्थितियां नहीं है जिसका फायदा कांग्रेस को मिल सके। जहां तक सत्तारूढ़ कांग्रेस की सरकार को गिराने को लेकर मतदाताओं में नाराजगी का सवाल है तो उसका फायदा अच्छे उम्मीदवार देकर हो सकता है लेकिन क्षत्रपों पर निर्भर रहने वाली कांग्रेस के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जमीनी हकीकत बदल गई है।
इस सम्भाग में अनुसूचित पार्टी का करीब 30 फीसदी वोट तो है लेकिन वह कांग्रेस को कितना मिलेगा,इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत के दलों में भाजपा और बसपा कैडर पर आधारित पार्टियां है और इनका तयशुदा वोटर इनसे कभी नही दूर होता। कांग्रेस से भाजपा में आये प्रत्याशी अपने साथ समर्थकों को लेकर आये है और इसका 5 हजार मतों का फर्क भी निर्णायक हो सकता है,अत:भाजपा का तय वोट घटेगा,यह सोचना कोरा ज्ञान साबित हो सकता है बल्कि भाजपा का वोट बढ़ने की ज्यादा सम्भावना है।
अब यदि कांग्रेस यह सोचती है की वह बसपा से अघोषित समझौता करके भाजपा को धोखा दे सकती है तो यह धोखा कांग्रेस को खुद पर भारी पड़ सकता
है।
फूलसिंह बरैया के बूते कांग्रेस की चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिशे भी आत्मघाती है क्योकिं बरैया चाहे बसपा,समता दल या बहुजन संघर्ष दल में रहे
हो,उनकी राजनीति और लोकप्रियता विशेष समुदाय तक केंद्रित रही है। ऐसे में यदि उन्हें कांग्रेस का चेहरा बनाया जाता है तो अगड़े पिछड़े नाराज हो सकते है।
इस इलाकें में ब्राह्मण, धाकड़, क्षत्रीय व कुशवाह समुदाय हर चुनाव में निर्णायक स्थिति में रहता है,इसके अलावा मुस्लिम वोट यहां काफी प्रभावशाली है। कांग्रेस का वोट सभी समुदायों से आता है और उन्ही के बूते कांग्रेस 2018 के विधानसभा चुनावों ने निर्णायक बढ़त ले सकी थी।
फूलसिंह बरैया की आक्रामक राजनीति में अन्य समुदाय उनके आसपास भी आना पसंद नही करते थे अब अचानक सभी उन पर प्यार के साथ वोट बरसा दे,ऐसी कोई सम्भावना नही है बल्कि लोगो का गुस्सा कांग्रेस पर फूट पड़े,इसकी आशंका ज्यादा बनी रहेगी।
ग्वालियर-चंबल के इलाके में मध्यप्रदेश की कुल 9 प्रतिशत आबादी रहती है। विंध्य के बाद आबादी में सवर्णों की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी इसी इलाके में है.
इस इलाके में 28 फीसदी सवर्ण, 32 फीसदी ओबीसी, 29 फीसदी एससी-एसटी और 11 फीसदी अन्य लोगों की आबादी है। गुर्जर, कुशवाहा, बघेल, ब्राह्मण और वैश्य वोट यहाँ अच्छी खासी तादाद में है और कांग्रेस के लिए यह महत्वपूर्ण फैक्टर है।
उपचुनावों के पहले फूलसिंह बरैया को लेकर कांग्रेस में भी हलचल है और इस इलाके के स्थानीय नेता स्वीकार करते है कि बरैया के चुनाव लड़ने से ग्वालियर-
चंबल के अनुसूचित जाति के मतदाताओं के वोट का लाभ तो कांग्रेस को मिल सकता है लेकिन यह भी आशंका है कि बरैया को चुनाव मैदान में उतारा गया तो
वोटों का ध्रुवीकरण हो जाएगा और अनुसूचित जाति के अलावा दूसरा वोट कांग्रेस से अलग हो सकता है।
उत्तर प्रदेश की सीमा से लगते ग्वालियर-चम्बल संभाग में बसपा का प्रभाव तो है लेकिन 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत और बसपा का कई
स्थानों पर दूसरे स्थान पर रहने का कारण मतदाताओं के सामने राजनीतिक दल की स्थिति को लेकर स्पष्टता थी,इसी कारण कांग्रेस को अगड़े,पिछड़ों और
दलितों का वोट मिला था जबकि भाजपा कई स्थानों पर तीसरे पायदान पर रही थी।
यदि उपचुनावों में कांग्रेस और बसपा के बीच कोई अघोषित समझौता होता है तो इससे बसपा का परम्परागत वोट असमंजस में होगा और आम मतदाता
भाजपा के साथ जाना ज्यादा पसंद करेगा,यह ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए संजीवनी की तरह होगा। बहरहाल कांग्रेस को या तो बसपा से समर्थन की
सार्वजनिक घोषणा करना चाहिए अथवा की उपचुनावों में अकेले लड़नाचाहिए। यदि कांग्रेस ने किसी भी प्रकार का असमंजस रखा तो यकीन मानिये
कांग्रेस चार या पांच सीटें भी जीत ले तो वह उसकी उपलब्धि होगी।
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