मोदी, नीतीश (लाभांश के हिस्सेदार लालू ) ममता का साथ। अंत में कांग्रेस की चौखट पर जाकर विपरीत परिक्रमा का फेरा भी पूरा हुआ। ऐसे में उनका ‘सुराज’ कई सवाल और संदेह पैदा करता है। क्या ये पदयात्रा भी किसी कारोबारी हिसाब किताब की कदमताल है।
##पंकज मुकाती
प्रशांत किशोर। राजनीतिक कारोबारी। यानी जीत के रणनीतिकार। काम में कोई बुराई नहीं। पीके अब पदयात्रा करेंगे। बिहार में।’सुराज’ के वास्ते। शुरुआत का दिन भी अच्छा चुना। दो अक्टूबर, गांधी जयंती। स्थान भी ऐतिहासिक। गांधीजी ने यहीं से चंपारण आंदोलन की शुरुआत की थी।
प्रशांत किशोर का ये बदलाव चर्चा में है। आखिर क्यों करोड़ों रुपये का काम छोड़कर धूल में पैर रखना। राजनीति भी धूल स्नान ही है। पर इसमें जिसकी कोई विचारधारा हो उसका आना ठीक है। सवाल यही है। क्या पीके की कोई विचारधारा है ?
क्या वे अपने काम को किसी विचार और व्यवहार के हिसाब से लेकर करते हैं ? कई बड़े कारोबारी हैं, पर उनके भी कुछ उसूल हैं। पीके की कंपनी i-PAC (indian political action committee) के ऐसे कोई उसूल अब तक दिखे नहीं। राजनीतिक विचारधारा भी कोई सामने नहीं आई (इस कंपनी ने सभी विचारधाराओं के साथ काम किया, किसी से परहेज नहीं ) लोगों की ज़िंदगी में बदलाव का कोई दर्शन भी उनकी committee के एक्शन में नहीं दिखता। फिर वे ‘सुराज’ की धारा कैसे लाएंगे ?
पीके की सुराज की अवधारणा उनके भीतर बरसों से दबी हो, ऐसा भी कुछ नहीं दिखता। क्योंकि इस घोषणा के कुछ घंटे पहले तक वे कांग्रेस में अपनी भूमिका के लिए चक्कर काट रहे थे।
उसी कांग्रेस के सामने हाथ बांधे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे, जिसके खिलाफ वे 2014 में रणनीति बना चुके। कांग्रेस को सबसे भ्रष्ट बताने वाले अभियान का हिस्सा रहे।
उसी कांग्रेस के खिलाफ बिहार में सर्वे करवाए। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को जी भरकर कोसा। बात नहीं बनने पर कांग्रेस को जड़ो तक खोखला और नेताविहीन पार्टी बताकर पल्ला झाड़ लिया।
इस देश के बंटाढार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार बताने वाली कंपनी फिर कांग्रेस की चौखट पर ही काम मांगने को खड़ी थी। क्या कांग्रेस के साथ ‘सुराज’ टटोल रहे थे प्रशांत किशोर ? या उन्हें कांग्रेस के भीतर अचानक कोई ‘सुराज’ के गीत सुनाई दे रहे थे। क्या कांग्रेस उनकी शर्तें मानकर पार्टी उन्हें सौंप देती तब भी पीके ‘सुराज’ की पदयात्रा करते ? सौ फीसदी नहीं ही करते। वे अपनी फीस की मोटी सौदेबाजी करते और अपना बैंक अकाउंट बढ़ाते न कि आम आदमी के लिए सुशासन की कहानी गढ़ते।
जिस बिहार को लेकर प्रशांत ‘सुराज’ लाने का दावा कर रहे हैं ? क्या वहां अब भी सुराज नहीं है? नीतीश के रणनीतिकार रहते उन्हें इसके पहले सत्ता में लाने का श्रेय तो पीके ने बटोरा ही है। फिर नितीश कुमार, फिर सुराज। ये नारा पीके के अभियान के दौरान ही गढ़ा गया।उस वक्त नीतीश और लालू के बीच गठबंधन की पटकथा के रचियता भी पीके शान से खुद को बताते रहे हैं।
क्या लालू यादव के कार्यकाल और उनके आचरण को ‘सुराज’ मानते हैं ? यदि नहीं मानते तो नीतीश के लालू से चुनावी गठबंधन पर नीतीश का अभियान छोड़ देते। पर नहीं छोड़ा बने रहे लालू – नीतीश के साथ। जिस बिहार को अपने हाथों से लालू-नीतीश को सौंपा। आज उसी में ‘सुराज’ तलाश रहे हैं।
इसके अलावा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के रणनीतिकार भी पीके रहे हैं। चुपचाप वहां भी काम करते रहे। करना भी चाहिए, या करना ही पड़ता है क्योंकि जब आप किसी काम का पैसा लेता है तो विचारधारा को किसी बिना रस्सी, बाल्टी वाले गहरे कुंए में ही छोड़कर आना होता है। क्योंकि जिसका
पैसा है उसके हिसाब से ही रथ के मार्ग तय होंगे। आप एक घोड़े से ज्यादा कुछ नहीं, आपका श्रेय इतना है कि आप बिना रुके लक्ष्य तक चलते रहें।
कहने का आशय ये है कि पीके के भीतर कोई विचारधारा तो है नहीं। वे विपरीत गुण-धर्म वाले दलों को जीताने का ठेका लेते रहे हैं।
मोदी, नीतीश (लाभांश के हिस्सेदार लालू ) ममता का साथ। अंत में कांग्रेस की चौखट पर जाकर विपरीत परिक्रमा का फेरा भी पूरा हुआ। ऐसे में उनका ‘सुराज’ कई सवाल और संदेह पैदा करता है। क्या ये पदयात्रा भी किसी कारोबारी हिसाब किताब की कदमताल है।
एक शब्द है प्रायश्चित्त। संभव है पीके ने अब तक के अपनी रणनीति में कुछ गलत पार्टियों और नेताओं को विजय दिलवा दी हो। वे अब उसका प्रायश्चित इस पदयात्रा और सुराज से करना चाहते हों। पर इतिहास और वर्तमान दोनों ये बताते हैं कि कोई भी कारोबारी बिना लाभ के कदम नहीं उठाता। प्रायश्चित के नाम पर भी उसका कोई कारोबारी एजेंडा रहता ही है। वो धूल फांकने को भी एक सामजिक इवेंट, मातृभूमि की सेवा के तौर पर पेश कर सकता है।इवेंट में तो वे माहिर हैं ही।
(इस सुराज और पदयात्रा के पैकेज से क्या हासिल करेंगे पीके -पढ़िए अगली स्टोरी में)