मीडियानीति-कौन कहता है अच्छी खबरें नहीं बिकती, हिंसा, साम्प्रदायिकता से अलग सोचिये !

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नकारात्मक खबरों के दौर में उत्तराखंड के एक शहर से आई यह खबर एक राहत की बात है जहां बेटियां अपने बाप की इच्छा पूरी करने के लिए सवा करोड़ की जमीन मुस्लिम समाज को दे रही हैं, जिन्हें कि बहुत से लोग सिर्फ बेइज्जती, तोहमत, और मौत देना चाहते हैं, बड़े मीडिया घरानो के पास इस नेक खबर के लिए जगह ही नहीं, क्यों ?

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

दुनिया भर से तमाम किस्म की बुरी खबरें आकर मीडिया पर राज करती हैं क्योंकि यह माना जाता है कि बुरी खबरें अधिक चलती हैं। अधिक बिकती हैं। लेकिन दूसरी तरफ कुछ अच्छी खबरें भी बिकती हैं और लोगों के दिल को छू जाती हैं।

अब जैसे उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले के काशीपुर नाम के छोटे शहर की एक खबर है। वहां एक व्यक्ति अपनी जमीन मुस्लिम समाज को ईदगाह के लिए देना चाहता था। लाला ब्रजनंदन रस्तोगी 2003 में गुजर गए और इस काम को पूरा नहीं कर पाए।

अब उनकी बेटियों ने अपने पिता की इच्छा के मुताबिक 21 एकड़ जमीन जो कि करीब सवा करोड़ रुपए की होती है, ईद के ठीक पहले मुस्लिम समाज को तोहफे में दे दी। इस बार की ईद की नमाज बृजनंदन रस्तोगी के लिए दुआ करते हुए की गई।

एक तरफ तो हिंदुस्तान भर में भाई-भाई के बीच महाभारत की तरह, या अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच किसी विवादित धर्म स्थान को लेकर ऐसी खबरें आती हैं कि सुई की नोक के बराबर जमीन भी नहीं दी जाएगी, देशभर के अपने महफूज घरों में बैठे हुए लोग यह नारा लगाते हैं कि दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे।

ऐसी खबरों के बीच अच्छी खबरें गर्मी के मौसम में ठंडी हवा के झोंके की तरह आती हैं, और बहुत से ऐसे गुरुद्वारे और मंदिर हैं जहां पर लोगों ने मुस्लिमों को इफ्तार की दावत के लिए या रोजे तोडऩे के लिए जगह दी गई।

बहुत से ऐसे गुरुद्वारे हैं जहां पर बाढ़ या तूफान की वजह से तबाह इलाकों के मुस्लिमों के खाने और रहने का इंतजाम किया गया, उनके नमाज पढऩे का इंतजाम किया गया। ऐसी अच्छी खबरें भी चारों तरफ से आती हैं, ये गिनती में कम रहती हैं, लेकिन दिल को अधिक छू जाती हैं।

मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हिंसा और कमीनेपन की खबरों को अधिक प्रमुखता से छापता या दिखाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि ऐसी खबरें बिकती अधिक हैं। लेकिन यह बात हकीकत है नहीं। लोगों की नीचता और कमीनगी की बातें पल भर के लिए तो एक सनसनीखेज सुर्खी बन जाती हैं, लेकिन लंबे समय तक असर नहीं करतीं।

अब सवाल यह उठता है कि अच्छी खबरों के लिए जगह निकल पाए इसके पहले कुछ लोग रोजाना के अपने पेशे की तरह अगर हिंसा और कमीनगी की घटिया बातें कह-कहकर सुर्खियों को छीनने लगें, तो फिर अच्छी खबरों को जगह कहां मिलेगी?

ऐसा लगता है कि आज कुछ लोग एक पेशेवर अंदाज में हर दूसरे-चौथे दिन कहीं से एक ऐसा बखेड़ा खड़ा करवाते हैं जो दो-चार दिन या हफ्ते भर खबरों पर कब्जा करके रखें और टीवी के न्यूज़ बुलेटिन उन्हीं पर अपनी बहसें करते रहें।

यह सिलसिला कब तक चलेगा, कितना चलेगा, इसे कौन बदल सकता है, कौन रोक सकता है। यह समझना कुछ मुश्किल है क्योंकि ऐसा लगता है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसे थमाए गए एक एजेंडे के तहत जिंदगी के लिए निहायत गैरजरूरी, निहायत सतही मुद्दों से टीवी की स्क्रीन पाटकर रख देता है ताकि जिंदगी के असली और जलते-सुलगते मुद्दे पल भर के लिए भी वहां दाखिल ना हो जाएं।

क्या सचमुच ही मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस कदर बिक चुका है कि वह उसे थमाए गए हुक्मनामे पर अमल करते हुए अपनी बिकी हुई आत्मा को, उसके एक कतरे को भी वापस पाने की कोशिश नहीं करता?

ऐसे बहुत से सवाल हैं जो अच्छी खबरों के अवसर को खत्म होते देखकर मन में उठते हैं। अभी दो दिन पहले ही एक खबर आई कि किस तरह अपने एक किसी करीबी को एक सडक़ दुर्घटना में बिना हेलमेट मरते देखने के बाद कोई एक व्यक्ति अपना घर-बार बेचकर भी लोगों को हेलमेट बांटने का काम कर रहा है, और अगर सोशल मीडिया पर आई जानकारी सही है तो वह अब तक 55 हजार लोगों को हेलमेट बांट चुका है।

ऐसे ही बहुत से लोग रहते हैं जो जरूरतमंद मरीजों के लिए खून का इंतजाम करते घूमते रहते हैं, बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपना खुद का खून हर तीसरे महीने तब तक देते रहते हैं जब तक उनकी बढ़ती उम्र या किसी बीमारी की वजह से डॉक्टर उन्हें मना नहीं कर देते हैं।

कुछ लोग हैं जो दाह संस्कार का इंतजाम करते हैं, कफन-दफन का जिम्मा लेते हैं, और जो गुमशुदा लाशें मिलती हैं, उन्हें ठिकाने लगाते हैं। कोरोना महामारी के पूरे दौर में जब मरघटों पर दो-दो, तीन-तीन दिनों की कतारें लगी हुई थीं उस वक्त भी लोग वहां पर रात-दिन काम करके अंतिम संस्कार कर रहे थे, जब परिवारों के लोग अपनों का आखिरी चेहरा देखने से भी बच रहे थे तब कुछ दूसरे लोग ऐसे थे जो अनजानी लाशों को जलाते हुए रात और दिन एक कर रहे थे।

अब एक सवाल मन में यह आता है कि ऐसी अच्छी खबरों और अच्छी मिसालों का असर लोगों पर क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या इसलिए नहीं हो पा रहा है कि देश में और जो बड़ी-बड़ी मिसालें हैं, वे ऐसे किसी नेक काम को बढ़ावा नहीं देती हैं, और वह इस कदर घटिया काम करते हुए लोगों के सामने अपने आपको रखती हैं कि लोगों को लगता है कि घटिया काम करना ही उनका मार्गदर्शन है?

जिस समाज में कुछ लोग अनजाने लोगों के लिए किडनी भी देने के लिए तैयार हो जाते हैं, जहां अपने किसी गुजरते हुए ब्रेन डेड हो चुके परिजन के सभी अंग दूसरों को देने के लिए तैयार हो जाते हैं, वहां पर अगर महामारी के बीच वेंटिलेटर खरीदने के काम में घोटाला और भ्रष्टाचार करने वाले लोग भी मौजूद हैं, तो क्या उनकी मिसालें लोगों के दिल-दिमाग पर इतनी हावी हो जाती हैं कि वे नेक काम करने के बजाए लूट को मिसाल मान लेते हैं?

आज हिंदुस्तान में हर त्यौहार एक बड़ा सामाजिक तनाव और खतरा लेकर आने लगा है। एक वक्त था जब सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर सभी धर्मों के त्योहार मना लेते थे लेकिन अब बहुत से बड़े लोगों ने, प्रमुख लोगों ने और नेताओं ने, राजनीति, धर्म, और समाज के बड़े-बड़े नेताओं ने इतनी हिंसक बातें करके इतनी खराब मिसालें सामने रखी हैं कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा उसी में झुलस रहा है और उसको राष्ट्रीयता मान रहा है, उसे अपने धर्म का गौरव मान रहा है।

ऐसे में उत्तराखंड के एक शहर से आई यह खबर एक राहत की बात है जहां बेटियां अपने बाप की इच्छा पूरी करने के लिए सवा करोड़ की जमीन मुस्लिम समाज को दे रही हैं, जिन्हें कि बहुत से लोग सिर्फ बेइज्जती, तोहमत, और मौत देना चाहते हैं।

सरकारों से कोई उम्मीद नहीं है, और मीडिया की शायद यह प्राथमिकता नहीं है, ऐसे में लोगों को सोशल मीडिया पर उन्हें मुफ्त में मिली हुई जगह का इस्तेमाल नेक नीयत के ऐसे कामों को बढ़ावा देने के लिए करना चाहिए, इनके बारे में लगातार लिखना चाहिए और अपने बच्चों को इन बातों को पढक़र सुनाना चाहिए ताकि वे टीवी पर महज नफरत की बातें सुनते न रह जाएं, बल्कि अच्छी बातें भी सीख पाए।

 

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