शम्भूनाथ शुक्ला (वरिष्ठ पत्रकार )
हमारे अखिलेश बबुआ बहुत भोले हैं, और उनके आसपास मँड़राते लोग उतने ही शातिर। पता नहीं किस चौबे, मिश्र, तिवारी, पांड़े, अवस्थी या दुबे ने उन्हें सलाह दे दी, कि ब्राह्मण वोट साधने हैं तो परशुराम की मूर्ति लगवा दो। वह भी फ़िट-दो फ़िट की नहीं पूरे 108 फ़िट की। यानी एक के ऊपर एक छह फुटे जवान खड़े किए जाएँ तो 18 जवान खड़े हो जाएँगे।
नीचे वाले ने कहीं ज़ोर की हवा निकाली तो सारे के सारे भरभरा कर गिरेंगे। पहले तो ब्राह्मणों को बताओ, कि ये परशुराम हैं कौन? मुझे तो मिथकों में उनका कैरेक्टर एक ऐसे बुढ़ऊ का लगा, जो लिए तो फरसा है, लेकिन छील नहीं पाता एक गन्ना! अगर छील पाता तो इच्छाकु वंशी (ईख यानी गन्ना से पनपा वंश) लक्ष्मण उन्हें गरियाते हैं, बिराते हैं और बार-बार कहते हैं, कि ऐ बूढ़ा! तू बार-बार अँगुली मत दिखा, इस अँगुली से कुछ नहीं होगा।
वे कहते हैं- “इहाँ कुम्हड़बतियाँ कोऊ नाहीं, ज़े तर्जनी देख डर जाहीं!” और परशुराम सिवाय बार-बार चिटकने के कुछ नहीं कर पाते। वे परशुराम जो अपनी माँ की हत्या करते हैं। वे जो 21 बार अपनी समझी धरती को क्षत्रियविहीन करते हैं। उनसे ब्राह्मण को कोई अनुराग नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण हिंसा को पसंद नहीं करता। क्षत्रिय का अर्थ है, वीर। जो इस धरा को वीर विहीन करेगा, उससे ब्राह्मण अनुराग क्यों रखेगा?
यह सच है, कि क्षत्रियों में अपनी जाति के प्रति प्रेम और ममत्त्व बहुत होता है। और अपने पत्रकारीय जीवन में मैंने यह देखा भी है। लेकिन एक गहरी बात भी सीखी है, कि एक अकेला ठाकुर आपका दोस्त होगा। इतना पक्का, कि आपके लिए कुछ भी कर सकता है। लेकिन जैसे ही वे दो हुए, आपको अपनी मंडली से निकाल देंगे और तत्काल क्षत्रिय महासंघ बना लेंगे।
इसलिए ब्राह्मणी बुद्धि कहती है, कि उनकी मंडली में एक ठाकुर और घुसेड़ दो। फिर देखो, उन तीनों में परस्पर लट्ठमलट्ठा हो जाएगा। इसलिए ब्राह्मण परशुराम का नहीं क्षत्रिय रामचंद्र का और यादव श्रीकृष्ण का भक्त होता है। हमारे परिवार में सब लोग इन दोनों (राम और कृष्ण) की जयंती पर व्रत करते हैं, एक मुझे छोड़ कर। लेकिन किसी को यह नहीं पता, कि “ईं परसराम कौन हैं”। अलबत्ता एकाध परसराम को मैं जानता हूँ, जो अपनी बूढ़ी हो चुकी अम्माँ को रोज़ धमाधम कूटते थे।
इसलिए हे यादव शिरोमणि अखिलेश कुमार उर्फ़ टीपू भैया! अगर आप वाक़ई ब्राह्मणों का हित चाहते हैं, और बदले में उनके वोट तो इन जितिन प्रसाद टाइप कांग्रेसियों के फेर में न आएँ, इनके तो ख़ुद के ब्राह्मण होने पर शक है। आप परशुराम की नहीं विप्र सुदामा की मदद करिए।
जो गांव में पड़ा है, भूमिहीन है। उसे मनरेगा का लाभ नहीं मिलता। शहर में पड़ा है। और नौकरी चली गई है। घर में राशन-पानी के लिए बीवी के ज़ेवर बेच रहा है। प्रोविडेंड से पैसा निकाल रहा है। द्वारिकाधीश यादव कृष्ण ने सुदामा के लिए तो तीनों लोक दान कर दिए थे। कवि नरोत्तम कैसा मार्मिक वर्णन करते हैं। द्वारिका नरेश कृष्ण अपने महल में हैं। उनका गार्ड आकर बताता है,
“सीस पगा न झगा तन में प्रभु‚ जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी अरु‚ पायँ उपानह की नहिं सामा।
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक‚ रह्यो चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम. बतावत आपनो नाम सुदामा।।”
सुदामा पांड़े का नाम सुनते ही कृष्ण भागे-
“बोल्यो द्वारपालक ‘सुदामा नाम पांडे’ सुनि,
छांड़े काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पांय,
भेटे भरि अंक लपटाय दुख साने को।
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
विप्र बोल्यो विपदा में मोहि पहिचानै को?
जैसी तुम करी तैसी करी को दया के सिन्धु,
ऐसी प्रीति दीनबन्धु ! दीनन सों मानै को ?”
और फिर क्या कुछ नहीं कर डाला यादव कृष्ण ने इस विप्र सुदामा के लिए,
“ऐसे बेहाल बेवाइन सौं पग‚ कंटक–जाल लगे पुनि जोये।
हाय महादुख पायो सखा तुम‚ आये इतै न कितै दिन खोये।
देखि सुदामा की दीन दसा‚ करुना करिके करुनानिधि रोय।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं‚ नैनन के जल से पग धोये।।”
तो यादवराज श्री अखिलेश जी! क्या आपके मन में किसी विप्र के लिए ऐसी ममता है। यदि हो, तो मेसेज करो। अन्यथा नौटंकी बंद करो।
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