इसे गहलोत की जीत नहीं, पायलट की हार कहिये, क्योंकि पहली बार उनका भ्रम टूटा है 

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मनोज माथुर (राजनीतिक विश्लेषण) 
राजनीति में भ्रम बड़ी चीज है। भ्रम बना रहना चाहिए। एक बार भ्रम टूटा, तो राजनेता भी टूट जाता है। कम से कम कुछ समय के लिए तो सही। ज्यादा समय के लिए इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि अच्छा राजनेता एक अच्छे घुड़सवार के समान होता है। जब-जब घुड़सवार नीचे गिरता है, हर बार उसे सबक मिलता है। अगर उसमें काबिलीयत है, तो वो अगली बार बेहतर सवार बन कर घोड़े पर बैठता है।
यही आधार किसी भी राजनेता की ऊंचाई भी तय करता है। राजस्थान के ताजा राजनीतिक ड्रामे को भी इसी पैमाने से आंकिये। पता चल जायेगा, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए जीत कोई मायने ही नहीं रखती। गहलोत तो पहले से ही जीते हुए थे। चुनाव के बाद जब मुख्यमंत्री की कुर्सी की बात आई तो गहलोत ने साबित किया, बहुमत उनके साथ है। राज्यसभा चुनाव हुए, तो गहलोत ने फिर खुद को नेता साबित कर दिया। इस बार सचिन पायलट ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी।
लिहाजा खुद को साबित करने का जिम्मा भी पायलट का था। उनको ही साबित करना था, कांग्रेस विधायक दल के असली नेता वो ही हैं। पायलट ये कर न सके। चारों खाने चित हो गए। जब तक मुठ्ठी बंद थी, तो एक भ्रम बना हुआ था। मुठ्ठी खुली तो आलाकमान को भी सत्य नजर आ गया। पता चल गया कि सात साल तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे इस राजनेता के साथ कितने लोग खड़े हैं। अब तक इनकी हैसियत क्या बनी है। आलाकमान उदार है। फिर मौका दिया है, सीखिए और खुद को एक मंझे राजनेता के तौर पर तैयार कीजिये।
सच में देखा जाये तो पायलट के सामने खुद को एक राजनीतिज्ञ के तौर साबित करने का यह पहला मौका था। उनको अपना राजनीतिक कौशल साबित और स्थापित करना था। जब 26 वर्ष की उम्र में वो सांसद बने तो उनको पिता स्वर्गीय राजेश पायलट की विरासत की परोसी हुई थाली मिली थी।  उसी विरासत के रथ पर सवार होकर वो केंद्रीय मंत्री बने।
काफी हद तक कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी भी विरासत के प्रसाद के रूप में मिली। बीते चुनाव में कांग्रेस को सत्ता मिली, तो नेतृत्व बेशक पायलट का था। लेकिन यही एक मात्र जीत का कारण नहीं था। वसुंधरा सरकार के प्रति जनता की नाराजगी और अशोक गहलोत जैसे कद्दावर नेता की चुनाव में मौजूदगी भी थी।
फिर भी कांग्रेस 99 सीटों पर सिमट गई, जबकि लोग 120 सीटों तक की अपेक्षा कर रहे थे। यानि हकीकत तो यह है, अपनी राजनीतिक पारी में पायलट को अब तक जो मिला, वो खुद और पार्टी की राजनीतिक विरासत के रूप में मिला। ये पहला अवसर था, जब पायलट को खुद को साबित करना था। अपने राजनीतिक कौशल का सिक्का मनवाना था। अफ़सोस, राजनीति की इस पहली परीक्षा में ही पायलट फेल हो गए।
इसके विपरीत अशोक गहलोत के राजनीतिक कैरियर को देखें। छात्रसंघ चुनाव में हार से राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। फिर जीवन में कई जीत भी मिलीं, तो कई हार भी। सांसद के चुनाव में हार से लेकर मुख्यमंत्री के तौर पर पार्टी की हार तक का स्वाद चखा। खासियत यही रही, हर बार मजबूत, और मजबूत होकर उभरे। हर हार के बाद कद और बड़ा होता गया।
जनता के बीच भी और पार्टी के भीतर भी। ताजा राजनीतिक घटनाक्रम में भी गहलोत का यही अनुभव काम आया। गहलोत की शुरू से ही पायलट समर्थक माने जाने वाले हर विधायक पर नजर रही। यही कारण है कि जब पायलट ने बगावत का बिगुल बजाया, तो 18 कांग्रेसी और 3 निर्दलीय विधायक उनके खेमे में जुट पाए।
जबकि उनको 30 विधायकों के साथ आने का भरोसा था। जिस भाजपा के भरोसे पायलट थे, उसे भी गहलोत ने बैकफुट पर धकेल दिया। भाजपा को खुद टूट का खतरा महसूस होने लगा। अगर वसुंधरा राजे से मिलीभगत के आरोप लगे, तो इसे भी गहलोत के राजनीतिक कौशल का नमूना ही माना जाना चाहिए।
कुल मिलाकर गहलोत ने पायलट के हर दांव को फेल कर उनका हर भ्रम तोड़ दिया। पायलट को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। साथ ही ये फिर साबित कर दिया कि राजस्थान की राजनीति में उनके जैसा कोई नहीं। भाजपा के दिग्गजों को भी संदेश दे दिया कि राजनीति में गहलोत को हराना मामूली खेल नहीं।
राजस्थान में गहलोत की राजनीति से वाकिफ राजनीतिक विश्लेषक अपेक्षा भी इसी परिणाम की कर रहे थे। भ्रम उन्हीं को था,  जो गहलोत की राजनीति को जानते नहीं थे। बेशक राजस्थान में कांग्रेस और उसकी सरकार का संकट टल गया है, लेकिन सचिन पायलट के राजनीतिक भविष्य को लेकर अभी संकट बना हुआ है। वे घोड़े से गिरकर फिर मजबूत घुड़सवार के रूप में सामने आ पाते हैं या नहीं, ये देखना होगा। उनके अगले कुछ कदम ही तय करेंगे,  वे खुद को धरातल पर मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या एक बार फिर भ्रम की भूलभुलैया में ही भटक रहे हैं।

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