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“द न्यूयॉर्क टाइम्स” के लिए सलमान मसूद ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत के साथ बढ़ते तनाव की खबरों को पाकिस्तान के आम लोग किस तरह ले रहे हैं? युद्ध की आशंकाओं को लेकर उनके क्या विचार हैं? मसूद के मुताबिक पाकिस्तान में बहुत से लोगों के लिए आर्थिक संघर्ष, राजनीतिक अस्थिरता और भारत के साथ सशस्त्र संघर्ष का डर अब एक ही बोझ के हिस्से जैसे महसूस होते हैं.
मसूद के मुताबिक, जैसे ही भारत के साथ तनाव बढ़ने पर पाकिस्तान में चुनौतीपूर्ण घोषणाओं की गूंज सुनाई देती है, थके हुए पाकिस्तानी आम लोग युद्ध को देश की सबसे आखिरी जरूरत मानते हैं. आधिकारिक बयानों और आम नागरिकों की थकान के बीच का अंतर एक ऐसे देश को उजागर करता है, जो गहरी कमजोरियों से जूझ रहा है. आर्थिक कठिनाई और राजनीतिक निराशा रोजमर्रा की ज़िंदगी में महसूस होती है.
विश्वविद्यालय परिसरों और ड्राइंग रूम में अब युद्धों और सीमाओं के बजाय महंगाई, बेरोजगारी, प्रतिनिधित्वहीन राजनीतिक व्यवस्था और एक अनिश्चित भविष्य के बारे में अधिक बातचीत होती है.
“यह मुझे बेचैन कर देता है,” इस्लामाबाद की 21 वर्षीय विश्वविद्यालय छात्रा तहसीन ज़हरा ने भारत के नियंत्रण वाले कश्मीर में आतंकी हमले के एक सप्ताह बाद कहा. “मैं समझती हूं कि नेता ताकत दिखाना चाहते हैं, लेकिन युद्ध की बातें करना बहुत ज्यादा लगता है. हमारे पास पहले से ही बहुत सारी समस्याएं हैं. हमें और मुसीबत नहीं, शांति चाहिए,” जहरा ने कहा.
इस्लामाबाद के 25 वर्षीय छात्र इनामुल्लाह ने कहा, “मुझे लगता है कि आर्थिक संघर्षों और राजनीतिक अस्थिरता के कारण देश आज बहुत कमजोर हो गया है.” लाहौर की मनोचिकित्सक जावेरिया शहज़ाद ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में, उन्होंने अपने मरीजों के बीच एक निराशाजनक हताशा देखी है क्योंकि राजनीतिक दमन से स्वतंत्रता सिकुड़ रही है और देश दशकों के सबसे खराब आर्थिक संकटों से गुजर रहा है. लोग बहुत चिंतित हैं.
2019 में, जब कश्मीर में आतंकवादियों ने दर्जनों भारतीय सुरक्षा बलों को मार डाला और सीमा के दोनों ओर भावनाएं भड़क उठीं, तब भी पाकिस्तानी सेना का जनमत पर प्रभुत्व मजबूत बना रहा. आज, ऐसी भावनाएं कहीं अधिक जटिल हो गई हैं.
हालांकि सेना के प्रति निष्ठा के भाव अभी भी मौजूद हैं, पर अक्सर ये निराशा और गुस्से से मिश्रित होते हैं. 2022 में प्रधानमंत्री इमरान खान के पद से हटाए जाने के बाद की राजनीतिक उथल-पुथल – और उसके बाद उनके समर्थकों पर किए गए व्यापक दमन – ने समाज पर गहरे निशान छोड़े हैं.
इमरान खान की पार्टी की पूर्व सांसद आलिया हमजा ने कहा कि सेना अब उस जनसमर्थन को खोने के खतरे का सामना कर रही है, जिसकी उसे राष्ट्रीय संकट के समय जरूरत होती है. “अगर जनता का समर्थन नहीं रहा, तो क्या होगा?” उन्होंने पूछा.
आलोचकों का तर्क है कि भारत के प्रति कट्टरपंथी रुख रखने वाले पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल सैयद आसिम मुनीर के कार्यकाल में पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य पर सेना के प्रभुत्व में वृद्धि हुई है, जिससे असहमति और संवाद के रास्ते सीमित हो गए हैं.
पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा अब भी अस्थिर बनी हुई है, जहां पाकिस्तानी तालिबान और अफगान तालिबान से जुड़े आतंकवादी गुटों ने हमले तेज कर दिए हैं. दक्षिण-पश्चिम में, एक निम्न-स्तरीय अलगाववादी विद्रोह वर्षों से सुलग रहा है, जो हाल के समय में और घातक हो गया है.
देश की आर्थिक चुनौतियां चिंता को और गहरा कर रही हैं. सरकार ने हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक और आर्थिक सहायता पैकेज हासिल किया है, और अधिकारी इसकी दम पर थकी हुई जनता को राहत देने का वादा कर रहे हैं. लेकिन कई पाकिस्तानियों के लिए, वादा किया गया आर्थिक सुधार दूर की बात है.
देश भर में, कई युवा पाकिस्तानी अब केवल विदेश जाने में ही ‘उम्मीद’ देखते हैं. इस्लामाबाद के कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम करने वाली 31 वर्षीया ज़ारा खान ने कहा, “हम में से अधिकतर लोगों को जो सबसे ज्यादा परेशान करता है, वह है पाकिस्तान जैसे दमघोंटू देश में स्वावलंबी बनने की कोशिश. हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. नौकरी का बाजार दयनीय है. परिवार पालना एक दूर का सपना है. यहां रहना पूरी तरह से निराशाजनक है. ”
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