ज्योतिरादित्य सिंधिया और अब सचिन पायलट की और ज्यादा पाने की बेताबी ने
न सिर्फ राजनीति बल्कि हर क्षेत्र का गणित बिगाड़ दिया, इसके खतरे भी हैं
अजय पौराणिक (वरिष्ठ पत्रकार)
इंदौर। अपनी पार्टी कांग्रेस और वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी से खफा ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत ने मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार गिराकर अपने अहम और राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा किया। सिंधिया के नक्शे-कदम पर राजस्थान के उप-मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे दो बड़े पदों पर अकेले बैठे सचिन पायलट ने अपना पद और बढ़ाने के लिए उसी सरकार को गिराने की कोशिश की जिसे बनाने के लिए कभी खुद जी तोड़ मेहनत की थी।
भले ही ये बगावतें फिलहाल कमजोर कांग्रेस शासित सूबों में हुईं और इनके पीछे चांदी का चम्मच मुंह में लिए जन्मे दो अलग अलग युवराज नेता रहे पर इन दोनों बगावतों से देश के अन्य प्रान्तों की सरकारों को भी निश्चित रूप से आशंकित कर दिया है। युवाओं को राजनीति में अब सब कुछ प्रेम और युद्ध की तरह जायज नजर आता है। इसीलिये युवाओं में सियासत और सत्ता के लिए जुनून सियासी दलों की संख्या की तर्ज पर बढ़ता ही जा रहा है। इतिहास गवाह है कि 1857 से लेकर अब तक जितनी भी बगावतें हुईं सबके पीछे युवाओं की जल्द मुकाम हासिल करने की बेताबी ही रही है भले ही नतीजा 1857 की असंगठित क्रांति जैसा ही क्यों न हो।
राजस्थान में सचिन पायलट की हालिया बगावत कुछ ऐसी ही साबित हुई। सभी सियासी दल एलर्ट मोड पर – जादूगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चाहे राजस्थान में अभी अपनी सरकार बचा ली हो पर पायलट की बगावत ने उन्हें और उनकी कार्यशैली को कटघरे में तो खड़ा कर ही दिया। अपनी कुर्सी के ठीक पीछे पनप रही बगावत को सूंघ नहीं पाए। इसके बाद छतीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तुरत फुरत विधानसभा सचिव जैसे महत्वपूर्ण ओहदे युवाओं को रेवड़ी की तरह बांट दिए जबकि वहां कहीं दूर भी बगावत के सुर सुनाई नहीं दिए।
सिंधिया और पायलट की बगावत से फौरी तौर पर लग सकता है कि आने वाले वक्त में सभी सियासी पार्टियां युवा तुर्कों को बड़े मौके देगी ताकि मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार जैसा अंजाम न देखना पड़े। लेकिन दूरदर्शी व परिपक्व सियासी सोच रखने वाली कोई भी सियासी पार्टी ऐसा जोखिम उठाने से पहले सिंधिया और पायलट की बगावतों को मद्देनजर रखते हुए ठीक इसका उलट भी कर सकती हैं।
.ये सोचकर कि भले ही बगावत से सरकारें अस्थिर न हों पर सत्ता की कमान हाथ मे आते ही युवा नेतृत्व के निरंकुश होने की आशंका हमेशा बनी रहेगी।ये सत्ता के साथ संगठन को भी नेस्तनाबूद कर सकता है। खासकर अनुभवी नेताओं की निगरानी के बिना। समाजवादी पार्टी में काका-भतीजे शिवपाल व अखिलेश की खींचतान और उसके बाद विधानसभा चुनाव के अंजाम से सब बेहतर वाकिफ़ हैं।
‘पार्टी विथ डिफरेंस’ भाजपा में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जुगलबन्दी के चलते राष्ट्रीय स्तर पर अभी किसी युवा बगावत की आशंका तो नजर नहीं आती। पर बदलते राजनीतिक समीकरणों से भाजपा आगे भी इससे अछूती रहेगी..ये अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। वैसे भी सिंधिया के साथ भाजपा में गये बागी विधायकों को समायोजित करने में मध्यप्रदेश सरकार व संगठन को जो पसीने छूटे वो किसी से छुपा नहीं है।
इसमें भी सबसे ज्यादा मुसीबत युवा भाजपा नेताओं और उनके समर्थकों ने ही पैदा की। युवा बगावत से कांग्रेस को हुआ नुकसान तो सबने देखा और मध्यप्रदेश में उपचुनाव के नतीजों के बाद बाकी धुंध भी हट जाएगी कि सत्ता और सियासत के इस रोमांचक खेल में बाकी राजनीतिक दलों के बुजुर्ग हो चले अनुभवी नेताओं को हराने के लिए खुद को जोखिम में डालने पर आमादा युवाओं की भावी भूमिका और अंजाम क्या होगा।
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