कोई भी आंदोलन हो, सरकार अपने संगठन, किसान गढ़कर उसको दबा रही
अब नागिरक को ही विपक्ष बनाकर जनता पर हो रहे हमले
-श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
सरकार ने अब अपने ही नागरिक भी चुनना प्रारम्भ कर दिया है। सत्ता जब अपने में से ही कुछ लोगों को पसंद नहीं करतीं और मजबूरीवश उन्हें देश की भौगोलिक सीमाओं से बाहर भी नहीं धकेल पातीं तो उन्हें अपने से भावनात्मक रूप से अलग करते हुए अपने नए नागरिकों का चुनाव करने लगती है।
बीसवीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक बर्तोल्त ब्रेख़्त की 1953 में लिखी गई एक सर्वकालिक कविता की पंक्तियाँ हैं- सत्रह जून के विप्लव के बाद /लेखक संघ के मंत्री ने /स्तालिनाली शहर में पर्चे बाँटे/ कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है /और तभी पा सकती है यदि दोगुनी मेहनत करे/ ऐसे मौक़े पर क्या यह आसान नहीं होगा /सरकार के हित में / कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले !’’ ऐसा ही हो भी रहा है।लगभग सब जगह।
समाचार हैं कि सरकार ने अब अपने किसान संगठन भी खड़े कर लिए हैं। मतलब कुछ किसान अब दूसरे किसानों से अलग होंगे ! जैसे कि इस समय देश में अलग-अलग नागरिक तैयार किए जा रहे हैं।धर्म को परास्त करने के लिए धर्म और नागरिकों को परास्त करने के लिए नागरिकों का उपयोग किया जाता है, किसानों को भी किसानों के ज़रिए ही कमज़ोर किया जाएगा।लोहा ही लोहे को काटता है की तर्ज़ पर।
अब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ नाम की कोई बात नहीं बची है। नागरिकता क़ानून का मूल स्वर यही स्थापित करना था कि देश का ‘असली’नागरिक अब किसे माना जाएगा। कुछ ख़ास पड़ौसी देशों से आने वाले किन-किन धर्मों के शरणार्थियों को ही देश की नागरिकता दी जा सकेगी और किन को नहीं। नागरिकता के अभाव में किन लोगों को देश छोड़ना पड़ेगा।यह साफ़ नहीं किया गया कि देश छोड़कर जाने वालों को नई ज़मीन कहाँ तलाशना होगी।
हरेक चीज़ को पालों और हदों में बांटा जा रहा है। एक पाले में वे तमाम लोग हैं जो हरेक परिस्थिति में तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ जुड़े रहते हैं और दूसरे वे जो हर क़िस्म की हदों से अपने को बाहर रखते हैं। इसी को वे अपनी नियति भी मानते हैं। अब तीसरे वे हैं जिनके पाले सत्ता तय करती हैं। हरेक चीज और इबारत का ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में दिखाई देना ज़रूरी कर दिया गया है।
चाहे नागरिक हों, मीडिया हो या अदालतें हों।सत्ताओं के साथ नहीं होने का अर्थ नई व्यवस्था में देश और धर्म विरोधी करार दिया गया है। नागरिकता क़ानून के बाद भाजपा शासित राज्यों में धर्मांतरण ,लव जिहाद आदि को लेकर बनने वाले क़ानूनों के तेवर नागरिकों को क़बीलाई संस्कृति में बांटने के ही नए उपक्रम माने जा सकते हैं किसी आधुनिक भारत के निर्माण के लिए मील के पत्थर नहीं। कहा जा सकता है कि अब ‘ऑनर किलिंग’ की सुपारी कट्टरपंथी खाप पंचायतों अथवा परिवारों के हाथों से निकालकर सत्ताओं के हाथों में पहुँच गई है।
कोरोना महामारी के चलते न सिर्फ़ कई नागरिक अधिकारों पर आरोपित ‘स्वैच्छिक’ रोक लग गई है, न्यायपालिका को भी सार्वजनिक रूप से सलाह दी जा रही है कि उन्हें अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसा कोई कार्य करने से बचना चाहिए जिससे कार्यपालिका के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हों। संसद के शीतकालीन सत्र को स्थगित कर दिया गया है पर सरकारी पार्टी की धार्मिक संसदें चालू हैं।
हालात ऐसे ही रहे तो एक दिन स्थिति ऐसी भी आ सकती है कि लोग संसद की ज़रूरत के प्रति ही संज्ञा शून्य हो जाएँ , वे संसद की ओर कान लगाकर कुछ सुनने के बजाय उसकी नई इमारत की ओर आँखें गाड़कर उसके वास्तु सौंदर्य के गुणगान करने लगें।
जमाने लद गए हैं जब चीन ,रूस, उत्तरी कोरिया आदि देशों में लोकतंत्र की कमी और एक पार्टी की शासन व्यवस्था को लेकर चिंतित होते हुए हम अपने देश के भरपूर लोकतंत्र के प्रति गर्व महसूस किया करते थे। इस समय हमें न सिर्फ़ यह बताया जा रहा है कि देश की तरक़्क़ी में लोकतंत्र का आधिक्य न सिर्फ़ बाधक बन रहा है यह भी ‘समझाया’जा रहा है हमारे यहाँ जैसे आंदोलन अगर वहाँ होते तो उनके साथ कैसा सलूक किया जाता।
कृषि क़ानूनों के पक्ष में सरकार की तरफ़दारी करते हुए अंग्रेज़ी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में हाल में प्रकाशित आलेख में आर्थिक विषयों के जानकार स्वामीनाथन अंक्लेसरिया अय्यर ने डराया है कि चीन जैसी एकतंत्रीय व्यवस्थाओं में ऐसे आंदोलनों को तबाह कर दिया जाता है पर लोकतंत्र ऐसे आंदोलनकारियों को ‘शूट’ नहीं करते। आलेख के शीर्षक की प्रधानमंत्री को यही सलाह है वे मख़मली दस्ताने पहनकर इस्पाती हाथों से किसान आंदोलन से निपटें।
भारत की धर्मप्राण राजनीतिक प्रयोगशाला में इस समय प्रयोग यह चल रहा हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को लोकतंत्र की ज़रूरत के प्रति कैसे संवेदनशून्य कर दिया जाए।उनके मन में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की आवश्यकता के प्रति कितनी धिक्कारपूर्ण भावना पैदा करदी जाए कि वे उसे सरकार के ‘सुशासन’ के मार्ग में बाधा मानने लगें।
दूसरे अर्थों में कहें तो नागरिकों को ही विपक्ष का विपक्षी बना दिया जाए। किसी सशक्त राजनीतिक विपक्ष की अनुपस्थिति में नागरिकों को भी विपक्ष की भूमिका निभाने से रोकने के लिए उन्हें भी आपस में बाँट दिया जाए और वे एक दूसरे पर हमला करने को ही असली राष्ट्रीयता मानने लगें।
कड़कती ठंड में भी सड़कों पर जमा कुछ हज़ार नागरिकों की भूमिका से 135 करोड़ नागरिकों की मालिक सरकार पिछले छह वर्षों में पहली बार इतनी चिंतित और डरी हुई नज़र आ रही है कि उनसे हाथ जोड़कर अपने घरों को लौटने की अपील कर रही है।देश में ‘कुछ ज़्यादा लोकतंत्र’ को क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी जब जनता सरकार से छीनकर अपने कंधों पर लेने लगती है तब ऐसा ही होता है।
You may also like
-
suicidal supriya shreenet … कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार जो अपनी गंदी जुबान से राहुल की यात्रा पर फेर रहे पानी
-
New Joining in BJP …. मध्यप्रदेश में बीजेपी के कुनबे में बढ़ते कांग्रेसी और कांग्रेसवाद !
-
Mandsaur Ground Report .. राहुल की पिछड़ी राजनीति का टेस्ट है मंदसौर का चुनाव
-
congress star …. प्रत्याशी के पते नहीं पर मध्यप्रदेश कांग्रेस ने घोषित कर दी स्टार प्रचारक सूची
-
#uma and #scindia news…आखिर कैसे एक साध्वी और महाराज के बीच बुआ भतीजे का संबंध