वर्ष 2019 के आगामी संसदीय चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जायेंगे? इन चुनावों में लगभग एक वर्ष और बाकी हैं और अब से चंद महीनों बाद ही विभिन्न पार्टियों और गठबंधनों को अपनी स्थिति नियत कर लेनी होगी. फिर उन्हें विज्ञापन एवं मतदान एजेंसियों तथा मार्केटिंग एजेंसियों से संपर्क कर यह भी तय करना पड़ेगा कि किस तरह मतदाताओं के लिए सर्वाधिक प्रभावी संदेश तैयार कर उन तक पहुंचाये जाएं.
वर्ष 2014 के अपने सफल चुनाव अभियान के लिए भाजपा के द्वारा ‘ओगिल्वी एंड मेथर’ नामक एजेंसी की सेवा ली गयी थी, जबकि कांग्रेस ने ‘देंत्सू’ से काम लिया था. वैसे, भारतीय राजनीति में पहली बार किसी एजेंसी की सेवा 1985 के चुनावों में ली गयी थी, जब राजीव गांधी ने ‘रीडिफ्यूजन’ नामक एक एजेंसी को इस काम में लगाया था
एक बार फिर राजनेताओं को पेशेवरों से मिल मतदाताओं के लिए सबसे असरदार संदेशों को क्रमबद्ध रूप देना होगा और मार्केटिंग की तमाम प्रतिभाएं पुनः एक बार ‘ये दिल मांगे मोर’ या ‘यह अंदर की बात है’ तथा ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ जैसे कशिश भरे नारे ईजाद करने में लग जायेंगी.
भाजपा ने निर्वाचन आयोग को यह रिपोर्ट दी थी कि 2014 के चुनाव अभियान में उसने 714 करोड़ रुपये खर्च किये. इसी तरह, कांग्रेस ने उस वक्त 516 करोड़ रुपये और शरद पवार की राकांपा जैसी एक राज्य की पार्टी ने 51 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही. ज्ञातव्य है कि इसमें इनके प्रत्याशियों द्वारा नकद खर्च किये गये रुपये अथवा उनकी पार्टी की ओर से विभिन्न कंपनियों द्वारा व्यय की गयी रकम शामिल नहीं हैं, क्योंकि भारत में जैसा चलन है, इन चुनावों में पार्टियों की ओर से विभिन्न कंपनियां भी चुनाव प्रचारों में खर्च करती रही
ऐसे चुनाव में एक प्रमुख उम्मीदवार आसानी से 15 करोड़ रुपये तक खर्च कर देता है, जिसमें टिकट की लागत शामिल नहीं है. मेरा आकलन यह है कि मई 2019 के पूर्व कम-से-कम 2,500 करोड़ रुपये का लेन-देन संपन्न हो चुका होगा. एक अध्ययन के हवाले से इकोनॉमिक टाइम्स ने यह रिपोर्ट की कि वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों में 5,500 करोड़ रुपये व्यय हुए.
हैं.
इसके अलावा, अखबारों और टीवी चैनलों को उन सियासी विज्ञापनों से भी अतिरिक्त आय होगी, जिनका बहुलांश समाचारों के रूप में प्रकाशित कराया जायेगा.
इस अवसर पर कई तरह के सौदे भी संपन्न होंगे और जैसा नीरव मोदी घोटाले से स्पष्ट हुआ, भ्रष्टाचार किसी एक गैर-भ्रष्ट राजनेता के साथ ही शुरू या अंत नहीं होता. इस मौके की तैयारी में सियासी पार्टियां भी अवश्य ही यह आकलन करेंगी कि उन्हें किस गठबंधन से सर्वाधिक लाभ पहुंचेगा. कुछ नेता बाद के अधिक लाभ अथवा लचीलेपन के मद्देनजर किसी प्रारंभिक लाभ का त्याग करते हुए अपने विकल्प खुले रखेंगे.
साल 2019 के चुनावों के पूर्व कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ के चार राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों के नतीजे कई क्षेत्रीय पार्टियों को यह संकेत देंगे कि वे राहुल गांधी से कितनी निकटता अथवा दूरी बनाकर चलें. पिछले छह वर्षों में भाजपा की शानदार चुनावी सफलताओं की वजहें उसके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा अब भलीभांति समझ ली गयी हैं और उन्होंने उसका अच्छी तरह आकलन भी कर लिया है. साफ है कि उनकी रणनीतियां भी वैसी ही करवटें लेंगी. उत्तर प्रदेश में नजर आया मायावती और अखिलेश यादव का अप्रत्याशित गठजोड़ एक ऐसे ही आकलन का परिणाम है.
हम एक बार फिर इस आलेख के शुरुआती सवाल पर वापस आएं, तो आगामी संसदीय चुनाव के मुद्दे क्या होंगे? मेरे ख्याल से यह इस पर निर्भर है कि इस बार के सियासी कथ्य पर नियंत्रण किसका होगा. साल 2014 के वक्त इस कथ्य पर सत्तापक्ष के नेता की बजाय विपक्षी नेता का नियंत्रण था. कांग्रेस तो भ्रष्टाचार के अपने रिकॉर्ड से बचाव में लगी थी और भाजपा अपने नेता की परिकल्पित क्षमताओं के बल पर मोर्चा जमाये आक्रमण में जुटी थी.
वर्ष 2009 में भाजपा ने ‘फ्रैंक सिमोस-टैग’ तथा ‘यूटोपिया’ नामक दो एजेंसियों की सेवाएं लीं, जिन्होंने ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ के नारे द्वारा एलके आडवाणी को एक सशक्त नेता के रूप में आगे करते हुए मनमोहन सिंह को एक अनिर्णायक नेता बताया, जो वह बिल्कुल नहीं थे.
तब कांग्रेस ने ‘जे वाॅल्टर थॉमसन’ से काम लिया था. उसने ‘आम आदमी’ का नारा दिया, जिसे बाद में अरविंद केजरीवाल ने अपना लिया. कभी-कभी एक अभियान का प्रमुख कथ्य जीत नहीं भी दिला पाता है. वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के काल में ‘ग्रे वर्ल्डवाइड’ एजेंसी द्वारा गढ़ा ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे ने एक ऐसी हार दिला दी, जिसकी आशा किसी ने भी नहीं की थी और जिसकी पूरी वजहें भी आज तक कोई नहीं समझ सका.
मुझे ऐसा लगता है कि 2019 का चुनावी अभियान सकारात्मक तो नहीं होगा. मेरा मतलब यह है कि सत्तापक्ष अथवा विपक्ष से ‘अच्छे दिन’ जैसा दूसरा नारा आने की उम्मीद नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था किसी खास मुकाम पर नहीं पहुंच पायी है और मैं नहीं समझता कि नागरिकों के रूप में हमारा जीवन 2014 की स्थिति से किसी स्पष्टतः भिन्न अवस्था में है. कुछ दिनों पूर्व मैं एक भाजपा नेता से बातें कर रहा था. मुझे यह बताया गया कि अयोध्या मुद्दे को एक बार फिर प्रमुखता दी जायेगी. अभी तो भाजपा इसे नहीं छू रही है, पर बहुत शीघ्र यह स्थिति परिवर्तित हो चुकी होगी. सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रही है और संभव है, उसका फैसला जल्द ही आ जाये. कुछ ही दिनों पूर्व कोर्ट ने सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं कुछ अन्य व्यक्तियों की अर्जियां खारिज कर दीं, जो इस मामले में हस्तक्षेप करना चाह रहे थे. कोर्ट ने किसी समझौते के विचार को भी खारिज करते हुए यह बुद्धिमानीभरी टिप्पणी की कि ‘एक भू-विवाद में बीच का कोई रास्ता किस तरह निकाला जा सकता है?’
मुझे संभावित तो यही दिखता है कि अयोध्या मुद्दे पर आया फैसला ही अगले चुनावों का मुद्दा बनेगा और मुझे यह सोचकर ही भय होता है कि इस अभियान के नारे कैसे और क्या होंगे.
(courtesy-prabhat khabar)