पाखंडी किसी भी मजहब के हो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए

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सुनील कुमार (संपादक डेली छत्तीसगढ़ )

दो दिनों से दिल्ली में मुस्लिमों के एक संप्रदाय के केंद्र में दुनिया भर से जुटे हजारों लोगों की वजह से पूरे हिंदुस्तान में कोरोनाग्रस्त लोग जिस तरह बिखर गए हैं, उसे लेकर कई किस्म की बहसें छिड़ गई हैं। बहुत से लोग यह लिख रहे हैं कि कोरोना को मुस्लिम रंग दिया जा रहा है, और मुस्लिमों पर कोरोना फैलाने की तोहमत डाली जा रही है। ऐसा लिखने वाले बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो कि रोजाना मोदी को राहुल गाँधी का 12 फरवरी का ट्वीट याद दिला रहे हैं जिसमें राहुल ने प्रधानमंत्री को कोरोना के खतरे से आगाह किया था और तैयारी करने कहा था।

राहुल को जो खतरा 12 फरवरी को दिख रहा था, वह दिल्ली में और बहुतों को दिख रहा था, और उस खतरे के बीच 1 से 12 मार्च के बीच दिल्ली के इस मुस्लिम संस्थान में हजारों लोगों का जमावड़ा करना कहाँ की समझदारी थी? कौन सा मजहब कहता है कि अपने लोगों की, बाकी दुनिया की जिंदगी खतरे में डालकर ऐसी मजहबी बैठक करो, मजहब पर चर्चा करो? अगर धर्मगुरु बनने वाले लोग इतने ही मूढ़ दिमाग के हैं, तो वे अपने धर्म के लोगों को कैसा बना रहे होंगे ?

फिर यह कौन सी बात होती है कि जब हिन्दू या दूसरे धर्म के लोग धर्म के नाम पर गुंडागर्दी करें तो उस बारे में तो लिखो, लेकिन मुस्लिमों के बारे में ना लिखो! मुस्लिमों को इस किस्म की रियायत दिलाने वाले उन्हीं का सबसे बड़ा नुकसान कर रहे हैं। अगर उनके बीच कोरोना फैलता है, फैल चुका है, मौतें हो रही हैं, तो पहला नुकसान किसका हो रहा है ? मुस्लिमों का, उनके परिवारों का, उनकी बिरादरी का। बाद में अगल-बगल के दूसरे धर्मों के लोग भी मारे जायेंगे।

आज कोरोना के दुनिया भर में फैले खतरे, चारों तरफ गिरती लाशों के बीच अगर किसी को हजारों लोगों की भीड़ जुटाकर धर्म-चर्चा जरूरी लग रही है, तो यह भीड़ गोबर-गोमूत्र खिलाने-पिलाने वाले लोगों से बेहतर कैसे हो गई? कोई अगर अल्पसंख्यक होने के नाते रियायत का हक़दार है, तो वह रियायत अक्ल की होनी चाहिए, पाखंड की नहीं।

फरवरी महीने के आखिर तक 3 हजार कोरोना-मौतें हो चुकी थीं, दुनिया भर से खबरें आ रहीं थीं, और हिन्दुस्तान में भी खतरा सर पर था। फिर भी इतना बड़ा धार्मिक-बहस का जमघट एक पखवाड़े तक लगाना, और फिर उसके भी हफ्ते भर बाद के लॉकडाउन तक हजारों की भीड़ का टिके रहना कौन सी धार्मिक समझदारी थी? फिर तोहमत सरकार पर कि लोकडाउन की वजह से लोग लौट नहीं पाए?

नहीं दोस्तों, किसी भी धर्म या मजहब के जाहिलों को ऐसी कोई रियायत नहीं दी जा सकती कि वे पूरी दुनिया पर खतरा फैलाएं, और अपने को मानने वाले मूढ़ लोगों को भी मार डालें। कई बरस पहले अमरीका में एक स्वघोषित गुरू ने अपने बनाये संप्रदाय में लोगों की सामूहिक आत्महत्या करवाने की कोशिश की थी और शायद वहां फौज को जाकर वह खेल खत्म करना पड़ा था। हिंदुस्तान में भी हरियाणा, पंजाब में हमने ऐसे सम्प्रदायों का हाल देखा है। दिल्ली में इस जमात के डेरे में क्या फर्क है?

कुछ लोग यह भी लिख रहे हैं कि आज दिल्ली में ही दसियों लाख मजदूर बेघर हैं, और वे भी कोरोना के शिकार हो सकते हंै, देश भर में कोरोना लेकर जा सकते हैं, इन लोगों का तर्क है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खड़ी की हुई इस मुसीबत को पहले देखें, जो कि ज्यादा बड़ा खतरा है।

इससे बड़ा मूर्खता का कोई रिश्ता नहीं जोड़ा जा सकता। नरेंद्र मोदी ने एक भयंकर गलती कर दी, तो क्या अब उसके मुकाबले मुस्लिमों की इस जमात को भी उसके टक्कर का गलत काम करने देना सांप्रदायिक बराबरी होगी? अरे, आज तो हर तरफ से बचाव की जरूरत है।

मोदी से तो इतिहास निपट लेगा, उसके जवाब में मुस्लिमों को मारने का सामान तो मत फैलाओ। बहुत से लोगों को बीते कल और आज का हमारा लिखा मुस्लिम-विरोधी लग सकता है।

लेकिन ऐसे या कैसे भी मुस्लिम धर्मांधों को बचाने की हमारी कोई हसरत नहीं है, बल्कि उनके झांसे में जो कमअक्ल मुस्लिम मारे जा रहे हैं, उन्हें खबरदार करने की नीयत जरूर है कि ऐसी कोरोना मौत किसी भी किस्म से अल्लाह की खिदमत नहीं है, उसकी इबादत नहीं है।

जब चारों तरफ आग लगी हो तो सामूहिक गटरमाला जपते उसके बीच बैठे रहना धर्म भी नहीं है। किसी लोकतंत्र में अल्पसंख्यक होने से किसी धर्म को ख़तरा फैलाने का हक नहीं दिया जा सकता। जिन्होंने कानून तोड़ा है, उन सबको जेल भेजना चाहिए, वे इबादत तो वहां से भी कर ही सकते हैं। एक बैरक में रखें तो वहां धर्म-चर्चा भी करते रहेंगे। बाकी सवाल देश के करोड़ों मजदूरों को मुसीबत में झोंक देने का है, तो उसके खिलाफ तो हम रोज लिख ही रहे हैं।

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