नीतीश चाचा और लालू के लाल .. सुकुमार बाबू इतने निराश कि वोटों की गिनती से पहले दोस्त के बच्चे गिनने को मजबूर हो गए

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बड़ा सवाल .. नतीजों के बाद अवसरवादी नीतीश कुमार को यदि लालू से फिर
हाथ मिलाना पड़ा तो क्या वे इन बच्चों को फिर झूला नहीं झुलायेंगे

सुनील कुमार (संपादक, डेली छत्तीसगढ़ )

चुनाव में हलकटपन बड़ी आम बात है। मध्यप्रदेश में भाजपा की नेता इमरती देवी को आइटम कहा गया। लेकि दो-चार दिनों के भीतर ही कल के कांग्रेसी और आज के भाजपाई नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक चुनावी मंच से इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए बड़े दम-खम के साथ कहा- क्या सोचकर मेरी इमरती को डबरा आकर आइटम कहने की हिम्मत की?

अब इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए भी ऐसी भाषा बड़ी अटपटी है, और अपने से जरा ही छोटी एक महिला नेता के बारे में इस अंदाज में कहकर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने लोगों में इस पूरे विवाद को मजाक का सामान बना दिया।

अब बिहार के चुनाव प्रचार में नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव के अपने भागीदार लालू यादव का नाम लिए बिना उनके बारे में एक बहुत घटिया बात कही- 8-8, 9-9 बच्चे पैदा करने वाले बिहार का विकास करने चले हैं। बेटे की चाह में कई बेटियां हो गईं, मतलब बेटियों पर भरोसा नहीं है। ऐसे लोग बिहार का क्या भला करेंगे?

अब लालू यादव के परिवार की तरफ से इसका जवाब तो आना था, और उनके बेटे के तेजस्वी ने नीतीश कुमार को याद दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी 6 भाई-बहन हैं, कहीं न कहीं नीतीश कुमार अपने बयान से पीएम मोदी पर भी निशाना साध रहे हैं।

तेजस्वी ने कहा कि नीतीश कुमार ने एक महिला और मेरी मां की भावनाओं को आहत किया है, उन्होंने मेरे बारे में भी अपशब्द कहे हैं, वे शारीरिक और मानसिक रूप से थक गए हैं।

नीतीश कुमार आमतौर पर बकवास करने और गंदी बात बोलने के लिए नहीं जाने जाते, लेकिन चुनाव की गर्मी ऐसी है कि उन्होंने भी गंदगी में कूद जाने से परहेज नहीं किया, और लालू यादव पर एक ऐसी पारिवारिक बात को लेकर हमला किया जो बात शायद उन्होंने खुद भी लालू से चुनावी दोस्ती और दुश्मनी के चलते हुए कभी उठाई नहीं थी।

उन्होंने ही क्या, लालू के बच्चों की गिनती को किसी दूसरी पार्टी या नेता ने कभी चुनावी मुद्दा बनाया हो, ऐसा हमें याद नहीं पड़ता। लेकिन आज अगर लालू राज के भ्रष्टाचार, उनकी कुनबापरस्ती, उनके 15 बरस के लंबे कार्यकाल की बदअमनी, बदइंतजामी जैसे मुद्दों को छोडक़र 15 बरस के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अगर एक घटिया और गंदी बात करना जरूरी लग रहा है, तो फिर वे चर्चाएं सही लगती हैं कि नीतीश इस बार परेशानी में हैं।

एक तरफ चिराग पासवान उन्हें परेशान कर रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा के इश्तहारों में नीतीश का नाम तक नहीं है। जबकि भाजपा यह कहते आई है कि सीटें चाहे उसे ज्यादा मिले, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनाए जाएंगे। आज बिहार के चुनाव को लेकर बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों को यह गंभीर शक है कि भाजपा ने नीतीश कुमार को परेशान करने के लिए चिराग पासवान को उकसाए रखा है।

चुनाव के बाद के लिए भाजपा के दिमाग में कोई और बात भी हो सकती है। जो नीतीश कुमार पिछले चुनाव के अपने गठबंधन के भागीदार लालू यादव को लात मारकर भाजपा के साथ सरकार बनाने जैसा दलबदलू सरीखा काम कर चुके हैं, वे नीतीश कुमार अगर भाजपा से तिरस्कृत हुए तो फिर लालू यादव के कितने बच्चों को गोद में बिठाने तैयार होंगे?

अभी 5-7 बरस पहले की ही बात है जब नीतीश कुमार ने बिहार की एक आमसभा में मोदी के साथ उनकी तस्वीर के इश्तहारों पर आपत्ति की थी, और अपने आपको आरएसएस विरोधी साबित करने की कोशिश की थी। खैर, राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होते हैं, न कोई स्थाई दुश्मन होते हैं, और हमबिस्तर बदलते ही रहते हैं, इसलिए नीतीश कुमार आज जहां हैं, वहां क्यों हैं और कैसे हैं ये सवाल भारतीय लोकतंत्र में बेमानी हो चुके हैं।

अब विधायकों और सांसदों को खरीदना, सरकारों को बारूदी धमाकों से उड़ाना, सत्तापलट करवाना इतना आम हो चुका है कि इनमें से कोई बात अब चौंकाती नहीं है। लेकिन लालू के बच्चों की संख्या को लेकर चुनावी मंच से उन पर तंज क्या हारने की घबराहट में कही हुई घटिया बात है?

जब लोग इतिहास की किसी बात को भुलाकर, उससे उबरकर किसी गठबंधन में भागीदार होते हैं, तो उससे पहले की बातों को कहने का उनका कोई नैतिक हक नहीं रहता। जो लोग 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ चुके हैं, सरकार में रह चुके हैं, वे बाद में किस मुंह से कांग्रेस पर सिख विरोधी होने की तोहमत लगा सकते हैं?

जो लोग 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के बाद भाजपा और शिवसेना के साथ मिलकर गठबंधन और सरकार बना चुके हैं, चुनाव लड़ चुके हैं, वे हमेशा के लिए मस्जिद गिराने में भाजपा-शिवसेना की हिस्सेदारी पर बोलने का हक खो बैठे हैं।

ऐसा ही गुजरात दंगों को लेकर, या कश्मीर के कुछ मुद्दों को लेकर हो चुका है कि उनके बाद के भागीदार भागीदारी शुरू होने के दिन से ही इस इतिहास पर बोलने का हक खो बैठे हैं। इसीलिए आज कई बातें भाजपा को याद दिलाई जा रही है कि तिरंगा न उठाने की बात कहने वाली महबूबा को मुख्यमंत्री तो भाजपा ने ही बनाया था, और खुद महबूबा के मातहत अपने मंत्री बनाए थे। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने कश्मीर में जो किया है उसे लेकर कश्मीर के भीतर महबूबा से भी सवाल उठ रहे हैं कि इन्हीं मोदी के साथ तो कश्मीर की सरकार बनाई थी।

खैर, आज के मुद्दे पर लौटें, नीतीश कुमार ने एक घटिया और अप्रासंगिक बात की है जिससे उनकी जैसी भी घिसीपिटी छवि राजनीति में रही हो, उसमें गहरी चोट लगी है। यह चुनाव तो चले जाएगा, और जीत-हार अलग रहेगी, लेकिन घटिया बात जिनके साथ दर्ज हो जा रही हैं, उन्हें अब मिटाना मुमकिन नहीं है।

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