श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार)
अर्नब गोस्वामी क्या हिरासत से आज़ाद होने के बाद किसी भी तरह से बदल जाएंगे ? क्या वे अपने सभी तरह के विरोधियों के प्रति ,जिनमें कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी अब शामिल हो गया है ,पहले की अपेक्षा कुछ उदार और विनम्र हो जाएँगे ?
जिस तरह की बुलंद और आक्रामक आवाज़ को वे अपनी पहचान बना चुके हैं क्या उसकी धार हिरासत की अवधि के दौरान किसी भी कोने से थोड़ी बोथरी हुई होगी ? कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है ?आशंकाएँ इसी बात की ज़्यादा हैं कि हिरासत के (पहले ?)एपिसोड के ख़त्म होते ही अर्नब अपने विरोधियों के प्रति और ज़्यादा असहिष्णु और आक्रामक हो जाएँगे।जो लोग उन्हें नज़दीक से जानते-समझते हैं उनके पास ऐसा मानने के पुख़्ता कारण भी हैं।
आमतौर पर हिरासतों के कटु और पीड़ादायक अनुभव किसी भी सामान्य नागरिक को एक लम्बे समय के लिए भीतर से तोड़ कर रख देते हैं।उन परिस्थितियों में और भी ज़्यादा जब व्यक्ति तो अपने आपको निर्दोष मानता ही हो ,बाद में अदालतें अथवा जांच एजेंसियाँ भी दोषी न मानते हुए हिरासत से आज़ाद कर देती है ।
पर इतना सब कुछ होने के बीच हिरासत उस नागरिक को गहरे अवसाद में धकेलने अथवा व्यवस्था के प्रति विद्रोही बना देने की काफ़ी गुंजाइश पैदा कर देती है।अगर अर्नब हिरासत में अपनी जान को ख़तरा बताते हैं तो हिरासत के अनुभव से गुजरने के बाद रिया चक्रवर्ती के पूरी तरह या आंशिक रूप से अवसादग्रस्त हो जाने की चिकित्सकीय आशंकाओं को भी निरस्त नहीं किया जा सकता ।
कहा जाता है कि सिने तारिका दीपिका पादुकोण को जब सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में पूछताछ के लिए बुलाया गया था तब वे काफ़ी घबराई हुईं थीं। वे पूछताछ के दौरान अपने अभिनेता पति को भी मौजूद देखना चाहती थीं पर कथित तौर पर उसकी इजाज़त नहीं मिली।उन्होंने अकेले ही सारे सवालों का सामना किया।
दीपिका जानती थीं कि अवसाद क्या होता है। वे उसके अनुभव से पहले गुज़र चुकी थीं। रिया और उनका परिवार भी अब जान गया है। ये लोग सब समाज के सामान्य नागरिक हैं ,अपनी सिनेमाई सम्पन्नता के बावजूद। पर समान परिस्थितियों में एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता (और अब पत्रकार भी !) की प्रतिक्रिया अलग हो सकती है।
वे ऐसी पीड़ाओं को भी एक बड़े अवसर और चुनौती में परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं।अतः एक फ़ौजी परिवार से सम्बंध रखने वाले अर्नब की अपने ‘विरोधियों’ का प्रतिकार करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। ख़ासकर ऐसी परिस्थिति में जब कि केंद्र का सत्ता प्रतिष्ठान समस्त स्वस्थ परम्पराओं और मर्यादाओं को धता बताते हुए अपने पूरे समर्थन के साथ अर्नब के पीछे नहीं बल्कि साथ में खड़ा हो गया हो !
वे तमाम लोग जो अर्नब को एक आपराधिक पर ग़ैर-पत्रकारिक प्रकरण में हिरासत में भेजे जाने पर संतोष ज़ाहिर कर रहे हैं उन्हें शायद दूर का दृश्य अभी दिखाई नहीं पड़ रहा है। उन्हें उस दृश्य को लेकर भय और चिंता व्यक्त करना चाहिए।वह इसलिए कि अर्नब की हिरासत का अध्याय प्रारम्भ होने के पहले तक देश के मीडिया और राजनीतिक संसार को पता नहीं था कि उनके(अर्नब के) समर्थकों की संख्या उनके अनुमानों से इतनी अधिक भी हो सकती है और कोई भी सरकार इतने सारे लोगों के लिए तो हिरासत का इंतज़ाम कभी नहीं कर पाएगी (क्या किसी को कल्पना भी रही होगी कि अमेरिका में इतना सब हो जाने के बाद भी ट्रम्प को इतने वोट और समर्थक मिल जाएँगे ?)
दूसरे यह कि इस सवाल के जवाब की तलाश अर्नब के हिरासत से बाहर आने के बाद ही प्रारम्भ हो सकेगी कि समूचे घटनाक्रम को लेकर महाराष्ट्र सरकार और वहाँ की पुलिस को राज्य की जनता का पूर्ण समर्थन प्राप्त है या नहीं !
अर्नब के पक्ष में पत्रकारों के जो छोटे-बड़े समूह सड़कों पर उतर कर मुंबई पुलिस की कार्रवाई को प्रेस की आज़ादी पर हमला बता रहे हैं वे अगर उस समय चुप थे जब रिपब्लिक और अन्य तमाम चैनल रिया की गिरफ़्तारी की चिल्ला-चिल्लाकर मांग कर रहे थे तो उसके पीछे के कारण को भी अब समझा जा सकता है।क्या ऐसा मानने के पर्याप्त कारण नहीं बन गए हैं कि आने वाले समय में राजनीतिक दल अपने आनुशांगिक संगठनों में एक समानांतर मीडिया के गठन को सार्वजनिक रूप से भी खड़ा करने पर विचार प्रारम्भ कर दे ?
छद्म रूप में सक्रिय ऐसी प्रतिबद्धताओं का उल्लेख अर्नब कांड के बाद ज़रूरी नहीं रह गया है। केवल एक व्यक्ति और उसके मीडिया प्रतिष्ठान के पक्ष में एक सौ पैंतीस करोड़ के देश के गृह मंत्री और प्रसारण मंत्री द्वारा सार्वजनिक तौर पर सहानुभूति व्यक्त करना क्या उस मीडिया की आज़ादी के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा नहीं माना जाना चाहिए जो अर्नब के साथ नहीं खड़ा है ?
अर्नब एपिसोड के बाद मीडिया के निष्पक्ष वर्ग का ख़ौफ़ खाना इसलिए ज़रूरी है कि सरकारों द्वारा उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में अपराधी बनाने के दौरान कोई राजनीतिक दल उनके पक्ष में उस तरह खड़ा नहीं होगा जैसा अपने किसी साधारण कार्यकर्ता (या पत्रकार ) द्वारा संज्ञेय अपराध करने के बाद भी उसे बचाने में जुट जाता है।
मीडिया की आज़ादी को केवल सरकारों से ही ख़तरा रहता है यह अवधारणा आपातकाल के दौरान उस समय ध्वस्त हो गई थी जब दिल्ली में कुलदीप नय्यर सहित कई पत्रकारों को जेलों में भरा जा रहा था, कुछ अन्य सम्पादकों और साहित्यकारों के समूह इंदिरा गांधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने जुलूस बनाकर एक सफ़दरजंग रोड पहुँच रहे थे।
वक्त के साथ केवल उन जत्थों के चेहरे और समर्थन व्यक्त करने के ठिकाने ही बदले हैं।अतः मीडिया को ख़तरा ,सरकारों और उनकी पुलिस से तो है ही अपने भीतर से भी है।अर्नब प्रकरण ने उस ख़तरे की चमड़ी को केवल फिर से उघाड़कर नंगा और सार्वजनिक कर दिया है।अब हमें अर्नब के रिहा होकर उनकी पहली आवाज़ सुनने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।क्या पता हम उसके बाद उनसे और ज़्यादा डरने लगें !
ट्रम्प और अर्नब दोनों ही कभी अपनी गलती और हार मानने वाले लोगों में नहीं हैं और सत्ताओं में दोनों के ही समर्थकों की भी सबको जानकारी है। वाक़ई में आज़ाद मीडिया और उसके पत्रकार कैसे होते हैं जानने के लिए अमेरिकी चुनावों का अध्ययन करना पड़ेगा।
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