ज्ञान से लबालब होना और ज्ञानी होने का फर्क

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जिन लोगों ने हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराया गया परमाणु बम बनाया था, उनका ज्ञान बहुत था, लेकिन उनके पास यह समझ नहीं थी कि ऐसी तकनीक विकसित करने से बेदिमाग और बद्दिमाग नेताओं के हाथ किस तरह की बेहिसाब ताकत लग जाएगी,

सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )

दुनिया में लोगों को ज्ञान और समझ के बीच का फर्क आमतौर पर मालूम नहीं होता। जो जानकारी से लबालब है, उसे समझदार मान लिया जाता है। जबकि यह भी हो सकता है कि किसी ने केबीसी या सामान्य ज्ञान के इम्तिहान के लिए तैयारी की हो। इतिहास से लेकर विज्ञान तक, क्रिकेट से लेकर अंतरिक्ष तक सब कुछ पढ़ डाला हो जिससे ज्ञान तो बहुत मिल गया हो, लेकिन समझ जरूरी नहीं है कि कुछ भी मिली हो।

जिन लोगों को हिन्दी के शब्दों से ठीक से समझ न आ रहा हो, उनके लिए यह बताना ठीक होगा कि नॉलेज जरूरी नहीं है कि विज्डम भी लेकर आए। जिन लोगों ने हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराया गया परमाणु बम बनाया था, उनका ज्ञान बहुत था, लेकिन उनके पास यह समझ नहीं थी कि ऐसी तकनीक विकसित करने से बेदिमाग और बद्दिमाग नेताओं के हाथ किस तरह की बेहिसाब ताकत लग जाएगी, और उससे कितनी तबाही हो सकेगी। ये लोग अपनी तकनीकी कामयाबी पर आत्ममुग्ध थे, और किसी ने नहीं सोचा कि इससे दुनिया का विकास नहीं होने जा रहा, विनाश होने जा रहा है।

कुछ-कुछ ऐसा ही कई बार चिकित्सा विज्ञान के साथ भी लगता है। डॉक्टरों ने ऐसी दवाईयां और तकनीक हासिल कर ली हैं कि पहले जिन बीमारियों से जल्दी मौत हो जाती थी, उन पर पार पाया जाता है, और लोग लंबी जिंदगी जीते हैं।

बुढ़ापे के बरस बड़े लंबे हो चल रहे हैं। दुनिया के अधिकतर देशों में औसत आबादी बढ़ती चल रही है। और जो तबका इलाज का खर्च उठा सकता है, वह तबका महंगे से महंगा, और आधुनिक इलाज पाकर जिंदगी को लंबा करते चल रहा है। फिर वह लंबाई जरूरी नहीं है कि एक बेहतर जिंदगी भी हो, और बेहतर भी क्यों कहें, अच्छी जिंदगी भी हो। जिंदगी कैसी है, यह बात डॉक्टरी कामयाबी को उतना तय नहीं करती है जितना यह बात करती है कि जिंदगी कितनी लंबी खींची जा सकती है।

हम बीच-बीच में ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कुछ लोगों को बरसों तक वेंटिलेटर पर रखा गया, और फिर वे होश में आए बिना ही गुजर गए। बरसों पहले का बेहोश होने के पहले का वह आखिरी दिन उनकी याद में रहा होगा, और वे मशीनों से चल रही सांसों और धडक़न के बावजूद उस याद को दुबारा नहीं सोच पाए होंगे।

इन दिनों यह भी लगातार सुनाई पड़ता है कि उम्र के साथ-साथ लोगों को होने वाली कई किस्म की दिमाग से जुड़ी हुई बीमारियां होने लगी हैं, वे सब कुछ भूलने लगे हैं, उनका काबू अपने बदन पर नहीं रह जाता है, और वे खराब हालत में लंबी जिंदगी जीते रह जाते हैं।

अब चिकित्सा विज्ञान अनुसंधान और तकनीक से आगे बढ़ा हुआ एक ऐसा विज्ञान है जिसकी अपनी कोई सोच नहीं है, उसकी इलाज की या जिंदगी को ढोने की एक ताकत है, जिसका इस्तेमाल डॉक्टरों को अपनी समझ से करना होता है।

और यह समझ लोगों को अपने पेशे की तकनीकी और वैज्ञानिक कामयाबी पर टिके रहने को मजबूर करती है। उनकी समझ यह नहीं सुझा पाती कि बाहरी मदद से किसी बदन को कितना ढोया जाए, किस लागत पर ढोया जाए, और क्या उतनी क्षमता से और कई लोगों को जिंदा रहने में, बेहतर जिंदगी में मदद की जा सकती थी?

लोगों को याद होगा कि किस तरह जब योरप में इटली कोरोना का शिकार हुआ, और अंधाधुंध मामले सामने आने लगे, तो बहुत से अस्पतालों ने यह तय कर लिया कि वेंटिलेटर जैसी सीमित सुविधाओं से उन्हीं जिंदगियों को पहले बचाया जाए जिनकी लंबी जिंदगी बाकी है। कोरोना से तो वे लोग भी संक्रमित थे जो कि बहुत बूढ़े थे, जो कोरोना के पहले भी बहुत बुरी तरह मेडिकल-मदद पर चल रहे थे, और कोरोना के बाद जिनकी जिंदगी बहुत लंबी न होने के आसार थे, उन लोगों पर वेंटिलेटर खर्च नहीं किया गया। बहुत से लोगों को यह बात अमानवीय लग सकती है, कि एक मरीज को बचाया जा सकता था, लेकिन उसे वेंटिलेटर नहीं लगाया गया।

लेकिन जिंदगी की हकीकत को देखते हुए समझदारी यही थी कि सीमित वेंटिलेटर से पहले उन्हीं को बचाया जाए जिनके सामने लंबी और सेहतमंद जिंदगी बाकी है, और इटली में डॉक्टरों ने यही किया। दुनिया भर में इक्का-दुक्का ऐसे भी लोग मिले जो बहुत बुजुर्ग हो चुके थे, और उन्होंने खुद होकर वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की दौड़ में अपने लोगों को नहीं झोंका, और चैन से गुजर गए।

बहुत से लोग जिनकी संपन्नता इतनी रहती है कि वे कोई भी इलाज खरीद सकते हैं, लेकिन वे अपने लोगों को यह बता चुके रहते हैं कि नौबत आने पर उन्हें कृत्रिम जीवनरक्षक मशीनें न लगाई जाएं क्योंकि उन्हें लगाने का कोई अंत नहीं है, वे मशीनें लोगों को बरसों तक जिंदा रख सकती हैं, बिना होश रहे। इसलिए उससे बेहतर नौबत गुजर जाना है, ताकि परिवार के बाकी लोगों की जिंदगी तबाह न हो।

चिकित्सा विज्ञान एक विज्ञान के रूप में बहुत कामयाब है, लेकिन यह सवाल अलग है कि क्या वह समझदारी में भी उतना कामयाब है? या कि अपनी रिसर्च, अपनी बनाई दवा और मशीनें, अपनी बनाई जांच की तकनीक को तौलते हुए वह लोगों को अंतहीन जिंदा रखने में लगे रहता है?

वैज्ञानिक नजरिए से तो यह बात समझदारी की लगती है, लेकिन जब दुनिया में बहुत सीमित चिकित्सा सुविधा को देखें, तो लगता है कि क्या चुनिंदा ताकतवर लोग इनका इतना अधिक इस्तेमाल करते रहें कि बहुत से दूसरे जरूरतमंद लोगों को ये हासिल ही न हो सके?

यहां पर आकर मरीजों और डॉक्टरों, और मरीजों के परिजनों की भी समझदारी का सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या एक बेबस और अपाहिज सरीखी बहुत लंबी जिंदगी को खींचते चले जाना समझदारी है? यह विज्ञान के हिसाब से मुमकिन है, लेकिन समझ के हिसाब से नाजायज है। इस फर्क को समझने की जरूरत है।

ज्ञान हमेशा समझ नहीं होता, और समझ की परख नाजुक मौकों पर होती है, उन मौकों पर लोग अपने खुद के बारे में कोई फैसला करने की हालत मेें नहीं रहते, दूसरों को ही वैसे फैसले लेने पड़ते हैं। इसलिए लोगों को वक्त रहते हुए, अपने इलाज, अपनी सेहत, अपने बदन के अंगदान, देहदान जैसे फैसले कर लेने की समझदारी दिखानी चाहिए।