आदित्य पांडेय (फेसबुक से साभार )
पड़ेगा शब्द जो है ना रवीश बाबू…बहुत जानलेवा है, पूजा सामग्री सिर पर उठाना कहां से शर्मिंदगी की बात थी जो आपने ‘ पड़ता है ‘ जैसे शब्दों के साथ अपनी सफाई पेश की? आपके स्टेटस से दो तीन बातें कहीं दर्द बतौर तो कहीं दुख जैसी झलक रही हैं। उनमें सबसे पहली यही कि किन नजरों के कैसे विश्लेषणों से गुजरती है जिंदगी…तो साहब अपनी यह शिकायत तब भी याद रखिएगा जब छुट्टी से लौटकर प्रणव रॉय के संस्थान की राजगद्दी पर खड़ाऊ की तरह फिर से स्थापित हों। .आप अपने प्राइम टाइम में जब किसी को छीलते हैं तब वह भी यूं ही आपसे मानवीय मूल्यों की अपेक्षा रखता है और अपनी निजता की रक्षा की गुहार लगाता है।
खैर, हम बात पड़ेगा शब्द की कर रहे थे। शायद आप जानते हों कि यह शब्द मजबूरी का परिचायक है। इससे साफ होता है कि करने वाला की जा रही क्रिया से खुश नहीं है। आप यदि छठ पर्व के मामले में ‘ पड़ेगा ‘ इस्तेमाल करते हैं तो कॉरपोरेट के हर पल दबाव वाले माहौल में प्रतिदिन कितने काम पड़ेगा वाले करते हैं। कोई हिसाब है?
पत्रकारिता में जिसने पड़ेगा शब्द के साथ अपनी नियति बांध दी यकीनन वह अब सिवाय समझौते के कुछ नहीं करेगा। आपका यह एक शब्द बता रहा है कि क्यूं मैग्सेसे लेने के लिए आपको अपने ही देश की खराब छवि पेश करनी पड़ती है। क्यों आप प्रनॉय पर केस होते ही प्रेस क्लब में कनात दरी जुटाने लगते हैं? क्यों आप मायावती के मंच पर और केजरी के दरबार में रीढ़ की हड्डी झुकाते नजर आते हैं? क्यों एन डी टी वी के घोटालों पर आपकी नजरों पर मोतियाबिंद का प्रभाव हावी हो जाता है?
रवीश बाबू आप टोकनी लिए निकलते और कहते कि एक विचारशील, विवेकी और समयानुकूल निर्णय लेने वाले की हैसियत से मैं पूजन में भागीदार हो रहा हूं तो बहुत अच्छा लगता और यदि यह कहते कि साक्षात देवता सूर्य के पर्व को तो हम हमेशा से मनाते आए हैं तो शायद और भी बेहतर होता लेकिन प्रनॉय बाबू के लिए कैरोल गाने में सम्मान पाने वाले रवीश इतनी हिम्मत जुटा ना सकेंगे यह सभी को पता है। .वैसे एक बात कहूं बड़े क्यूट लग रहे हो सिर पर टोकनी उठाए हुए…
(आदित्य पांडेय पत्रकार हैं, और खरा और सीधा बोलना इनकी पहचान है)