Khatlapura Temple Bhopal

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NGT ने खटलापुरा मंदिर विवाद को किया खारिज, हाईकोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए 60 दिन में जानकारी देने के दिए निर्देश

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Khatlapura Temple Encroachment Case: भोपाल। राजधानी के जहांगीराबाद क्षेत्र स्थित ऐतिहासिक खटलापुरा मंदिर परिसर में अतिक्रमण और अवैध निर्माण के आरोपों को लेकर दायर याचिका को राष्ट्रीय हरित अभिकरण (एनजीटी) ने खारिज कर दिया है।

न्यायाधीश शिव कुमार सिंह और न्यायिक सदस्य डॉ. ए. सैंथिल वेल की पीठ ने 17 जुलाई, 2025 को फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि यह मामला एनजीटी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, क्योंकि विवाद का संबंध मंदिर के प्रबंधन और आंतरिक नियंत्रण से जुड़ा है, न कि पर्यावरणीय मुद्दों से।

इस याचिका में खटलापुरा मंदिर के महंत तुलसीदास उदासीन को आरोपी बनाते हुए आरोप लगाया गया था कि समाधियों की आड़ में मंदिर परिसर में अतिक्रमण किया गया है। वहीं, महंत की ओर से प्रेस वार्ता में बताया गया कि यह आरोप निराधार हैं और याचिकाकर्ता ने एनजीटी को भ्रमित करने का प्रयास किया।

समाधियों को बताया आस्था से प्रेरित स्थल

एनजीटी ने अपनी जांच में पाया कि जिन स्थानों को अवैध निर्माण कहा गया, वे दरअसल श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़े स्थल हैं, जहां प्रतिवर्ष धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।

मामले की जांच के लिए बनाई गई समिति ने मंदिर परिसर का निरीक्षण किया और अपनी रिपोर्ट में बताया कि एक समाधि 1988 में तथा दूसरी 2024 में बनाई गई थी। ये दोनों स्थल छोटी झील से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।

मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, भोपाल नगर निगम और जिला प्रशासन की ओर से प्रस्तुत रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट किया गया कि मंदिर परिसर में हनुमान मंदिर समेत चार अन्य मंदिर स्थित हैं और कथित निर्माण धार्मिक कार्यों से संबंधित हैं।

प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इस निर्माण से किसी प्रकार की पर्यावरणीय हानि नहीं हो रही है।

न्यायालयों ने प्रकरण को सिविल विवाद माना

मंदिर से जुड़े विवाद में जिला प्रशासन ने 6 मार्च, 2025 को एक आदेश पारित किया था, जिसकी प्रति एनजीटी में पेश की गई।

इस आदेश में साफ तौर पर कहा गया कि दोनों पक्षों का विवाद सिविल प्रकृति का है, जो भोपाल न्यायालय में विचाराधीन है।

इससे पहले जहांगीराबाद/कोतवाली/हनुमानगंज संभाग शहर वृत्त न्यायालय ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए याचिका खारिज कर दी थी।

उक्त न्यायालय ने पुलिस विभाग की ओर से प्रस्तुत रिपोर्ट को भी अव्यवहारिक और कानून के विरुद्ध करार दिया था।

इस पूरे विवाद को याचिकाकर्ता पप्पू विलास राव घाडगे द्वारा उत्पन्न किया गया, जो पहले एसडीएम और पुलिस प्रशासन के समक्ष भी गए थे, लेकिन असफल रहने के बाद उन्होंने एनजीटी में सतही जानकारी के आधार पर याचिका दाखिल की थी।

समिति पंजीयन पर भी सरकार की चुप्पी

मंदिर संचालन समिति के पंजीयन को लेकर भी बड़ा प्रशासनिक असमंजस देखने को मिला।

महंत तुलसीदास उदासीन ने सूचना के अधिकार के तहत उप पंजीयक फर्म्स एवं संस्थाएं कार्यालय से समिति के पंजीयन संबंधी दस्तावेजों की मांग की थी।

हालांकि, यह जानकारी आज तक उन्हें मुहैया नहीं कराई गई। इस पर वे राज्य सूचना आयोग पहुंचे, जहां आयुक्त ने महंत के पक्ष में आदेश पारित किया और दस्तावेज देने के निर्देश दिए।

बावजूद इसके, संबंधित विभागों ने जानकारी नहीं सौंपी, जिससे स्पष्ट होता है कि राज्य सरकार इस विषय को लेकर गंभीर नहीं है।

हाईकोर्ट ने दिए अफसरों पर कार्रवाई के निर्देश

राज्य सरकार की इस लापरवाही को लेकर महंत तुलसीदास उदासीन ने हाईकोर्ट का रुख किया।

जबलपुर हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति श्री विशाल मिश्रा ने 11 जुलाई, 2025 को पारित आदेश में राज्य सरकार को निर्देश दिया कि 60 दिनों के भीतर पूरी जानकारी महंत को मुहैया कराई जाए और जानबूझकर जानकारी रोकने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।

इस आदेश के बाद भी अभी तक दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराए गए हैं, जिससे सरकार की मंशा पर सवाल उठते हैं।

महंत ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार मंदिर संचालन को लेकर जानबूझकर राजनीतिक प्रपंच कर रही है और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रही है।

संत समाज के सहयोग से जल्द बनेगा समाधान

महंत तुलसीदास उदासीन ने कहा कि सरकार की नकारात्मक भूमिका को देखते हुए अब वे देश भर के उदासीन संतों, नागा साधुओं और विभिन्न अखाड़ों के साथ समन्वय कर एक सकारात्मक और स्थायी समाधान की ओर बढ़ेंगे।

उन्होंने यह भी संकेत दिए कि धार्मिक स्वतंत्रता और मंदिर की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए कानूनी और सामाजिक दोनों स्तरों पर अभियान चलाया जाएगा।

बहरहाल, खटलापुरा मंदिर विवाद में एनजीटी और हाईकोर्ट दोनों ने स्पष्ट कर दिया है कि यह विवाद प्रशासन की उदासीनता और आंतरिक प्रबंधन का मामला है, जिसमें पर्यावरणीय आधार नहीं है।

अब गेंद राज्य सरकार के पाले में है कि वह न्यायालयों के आदेशों का सम्मान करते हुए न केवल आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराए, बल्कि इस धार्मिक स्थल की गरिमा बनाए रखने में सहयोग करे।

वहीं, महंत का यह बयान कि सरकार राजनीति कर रही है सवाल खड़ा करता है कि क्या धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता को भी अब राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना पड़ेगा?

 

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