प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों की तानाशाही और बिखरता संगठन- 1
संदर्भ… विक्रांत भूरिया को बीच चुनाव में अध्यक्ष पद से हटाने के बहाने कांग्रेस के जीरो होते संगठन की पड़ताल और युवा जीतू पटवारी भी कमलनाथ की तरह ‘मैं ही सब कुछ’ वाली राह से अलग होंगे या उसी पर चलते रहेंगे
पंकज मुकाती
मध्यप्रदेश में कांग्रेस किधर जायेगी। किसी को नहीं पता। वैसे देश में भी हालात बहुत अलग नहीं। मध्यप्रदेश में तो जिसको कांग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी मिलती है वो मुट्ठी तान लेता है। प्रहार करने के लिए। जो भी पसंद नहीं उनको ठिकाने लगाने के लिए।
फिर संगठन के हाथ में रह जाते हैं मुट्ठी भर लोग। कुल उतने ही जितने अध्यक्ष की मुट्ठी में समा जाए। ये किसी एक अध्यक्ष की बात नहीं है। पिछले तीस साल में जितने भी रहे, सबने ऐसे ही मुट्ठी तानी।
आमतौर पर ये कहा जाता है कि मुट्ठी बाँधने से ताकत बढ़ती है। पर मुट्ठी बाँधने और मुट्ठी तानने में बहुत अंतर है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कहते यही है कि उन्होंने सबको साथ लेकर मुट्ठी बाँधी है। दरअसल, वे मुट्ठी बाँधने नहीं तानने में यकीन रखते हैं। ताज़ा और युवा ऊर्जावान प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी भी इस बदले की परंपरा से बच नहीं पा रहे। वे भी मुट्ठी ताने खड़े हैं। मुष्टिका प्रहार के लिए।
इसके पहले कमलनाथ ने भी यही किया। यही कारण है कि अध्यक्ष बदलते ही प्रदेश का संगठन हर बार चौराहे पर शून्य की तरह खड़ा नजर आता है।
मध्यप्रदेश कांग्रेस को एक ताज़ा मामले से समझते हैं। यूथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष विक्रांत भूरिया को हटा दिया गया। हालांकि सन्देश ये दिया गया कि भूरिया ने खुद इस्तीफा दिया। पर अंदर की कहानी ये है कि उनसे इस्तीफा ले लिया गया। इस स्वैच्छिक इस्तीफे पर मध्यप्रदेश कांग्रेस में किसी एक भी व्यक्ति को रत्ती भर भरोसा नहीं। क्योंकि कांग्रेस में स्वेच्छा से इस्तीफा कोई नहीं देता।
दूसरा जिस दिन जीतू पटवारी प्रदेश अध्यक्ष बने थे, ये तो उसी दिन तय हो गया था कि विक्रांत भूरिया को इस्तीफा देना ही पड़ेगा। आगे भी प्रदेश में कोई जिम्मेदारी मिले इसकी संभावना माइनस जीरो समझिये।
इसे समझने के लिए तीन साल पीछे जाना होगा। तीन साल पहले यूथ कांग्रेस के चुनाव हुए। विक्रांत भूरिया दिग्विजय और कमलनाथ के समर्थन से मैदान में उतरे। जीतू पटवारी ने परदे के पीछे से इसकी खिलाफत की। सामने से करते तो कोई दिक्कत नहीं। चुनाव होते ही इसलिए है कि एक से ज्यादा लोग मैदान में आये और फैसला मतदान से हो। जीतू पटवारी ने विक्रांत के सामने मैदान में उतरे संजय यादव के प्रति झुकाव दिखाया। विक्रांत जीत गए, संजय हार गए।
अब विक्रांत ने इस्तीफा दे दिया है। कारण। पिता कांतिलाल भूरिया के चुनाव में व्यस्त में हूँ इसलिए संगठन में वक्त नहीं दे पा रहा हूँ। अच्छी बात है। अब सवाल यही है कि दूसरे प्रकोष्ठों की संगठन में हैसियत कितनी है ? कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष इतने मनमाने, आत्ममुग्ध और तानाशाह हो जाते हैं कि संगठन की दूसरी सारी इकाई किसी काम के लायक नहीं रह जाती।
कमलनाथ ने तो मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष सहित सभी पदों को हाथ में रखकर तानाशाही, मनमानी के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। यही कारण है कि उनके जाते ही संगठन फिर शून्य पर है। जीतू पटवारी भी कमलनाथ की खींची राह पर ही बढ़ते दिख रहे है।
वैसे, विक्रांत का कार्यकाल विधानसभा चुनाव के वक्त ही ख़त्म हो गया। वे लोकसभा चुनाव तक के प्रभारी के तौर पर काम कर रहे थे। फिर इस्तीफे की इतनी जल्दी क्यों थी?
असल में पटवारी को एक मौका मिला और उन्होंने इसे लपकने में देरी नहीं की। सूत्रों के मुताबिक विक्रांत राष्ट्रीय स्तर पर अच्छे, पढ़े लिखे नेता के तौर पर अपनी पहचान दर्ज करा चुके हैं। वे दिल्ली की निगाह में चढ़ रहे थे। ऐसे में बीच चुनाव में उनके काम पर सवाल उठाकर दिल्ली में उनके नंबर कम करने की कोशिश भी की गई।
बीच चुनाव में ऐसे फैसले से आदिवासी युवाओं के बीच गलत सन्देश जाएगा ही, साथ ही वरिष्ठ नेता कांतिलाल भूरिया के लोकसभा सीट जीतने की संभावना को भी इससे धक्का तो लगेगा ही। चुनाव में ऐसे फैसले कांग्रेस को टक्कर वाली सीट पर भी कमजोर करते हैं।
जब कांग्रेस के दूसरे संगठनों की भूमिका अध्यक्ष के सामने कुछ बचती ही नहीं, ऐसे में विक्रांत का समय न दे पाना क्या मायने रखता है। जरा, ध्यान से सोचिये।
पिछले विधानसभा और इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के अलावा दूसरे प्रकोष्ट का कौन सा अध्यक्ष मैदान में दिखाई दे रहा है। कहने को तो कांग्रेस में दर्जनों प्रकोष्ठ हैं। महिला मोर्चा, सेवादल, युवा, एनएसआईयू, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति ऐसे बीसियों प्रकोष्ठ हैं। इनके किसी नेता को आप नहीं जानते होंगे। इनमें से कोई आपको कभी मंच पर बमुश्किल दिखता होगा। पहले सारी कहानी कमलनाथ के आसपास घूमती थी अब जीतू के। सिवाय नाम पट्टिका बदलने के प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कुछ नहीं बदला। हालात पहले से और गड़बड़ हैं।
अभी भी वक्त है कांग्रेस संगठन को मुट्ठी तानने के बजाय बाँधने पर काम करना चाहिए।