50 Years of Emergency: 25 जून 1975 — इस तारीख ने भारत के लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर दिया।
आधी रात को बिना किसी युद्ध या आतंरिक संकट के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल (Emergency) थोप दिया।
लोकतंत्र को कुचलने वाला यह फैसला सत्ता बचाने की जिद का नतीजा था।
लाखों लोगों की आवाजें दबा दी गईं, अखबारों की जुबान सिल दी गई और विरोधियों को जेल में झोंक दिया गया।
इस अंधेरे दौर में भी कुछ ऐसे लोग थे जो तानाशाही के सामने झुके नहीं।
बरेली के वीरेंद्र अटल उन्हीं बहादुरों में एक थे।
उन्होंने न सिर्फ आपातकाल का विरोध किया, बल्कि 9 महीने की जेल में रहकर उसकी कीमत भी चुकाई।
7 डंडे तोड़े, नाखून प्लास से खींचे
28 अक्टूबर 1975 की शाम, बरेली पुलिस अटल के घर पहुंची।
रिवॉल्वर ताने इंस्पेक्टर हाकिम राय ने उन्हें घर से उठा लिया।
अगले दिन, सीओ ऑफिस में डीएम माता प्रसाद के सामने उन्हें डंडों से पीटा गया — इतना कि 7 डंडे टूट गए, फिर प्लास से उनके नाखून खींचे गए।
अटल बताते हैं, मेरे दोनों हाथों से खून बह रहा था, मैं दर्द से चीख रहा था… लेकिन किसी ने रहम नहीं किया और पैदल ही कोर्ट ले जाया गया।
अटल सिर्फ आवाज नहीं उठा रहे थे, एक क्रांति की तैयारी कर रहे थे।
अपने 11 साथियों के साथ मिलकर उन्होंने “तानाशाही हटाओ, लोकतंत्र बचाओ” जैसे पोस्टर हर थाने, हर सरकारी दफ्तर की दीवारों पर चिपकाए।
उन्होंने अपने खून से संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर किए कि तानाशाही को खत्म करके ही मानेंगे।
9 महीने बाद बरी, फिर भी लगा मीसा
अटल खुलकर कहते हैं, मैं अहिंसा का पुजारी नहीं हूं। बचपन से संघ का स्वयंसेवक हूं।
मेरा मानना है कि आजादी हमें क्रांति से मिली है, सिर्फ उपवास से नहीं।
जब पहला मुकदमा खत्म हुआ, तो अटल को लगा था कि राहत मिलेगी।
लेकिन सिर्फ तीन दिन बाद ही उन पर मीसा (MISA) लगा दी गई और घर की कुर्की कर दी गई।
अटल कहते हैं, मेरे एक साथी ने आरोप कबूल कर लिया, जुर्माना देकर चला गया।
लेकिन, मैंने झुकने से इनकार किया और 9 महीने बाद बाइज्जत बरी हुआ।
न वकील मिले, न दलीलें सुनी गई
अटल बताते हैं, अदालतें भी उस वक्त सरकार के इशारों पर चल रही थीं।
न वकील मिलते थे, न दलीलें सुनी जाती थीं।
पुलिस खुद तय करती थी कि किसे पीटना है और किसे जेल भेजना है।
50 साल बाद, जब देश फिर से इमरजेंसी के दौर को याद कर रहा है, वीरेंद्र अटल की एक ही अपील है।
जो लोग लोकतंत्र के लिए लड़े, उन्हें सिर्फ एक प्रमाणपत्र नहीं, स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा मिलना चाहिए।
यह सम्मान उन हज़ारों लोगों के लिए जरूरी है, जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया लेकिन लोकतंत्र नहीं छोड़ा।
आज जब हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं, यह मत भूलिए कि इस आज़ादी को बचाने के लिए भी लड़ाई लड़ी गई थी।
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