विज्ञापन में सीधा और संदेश है कि मुस्लिम परिवारों में बहू बनकर जाने वाली हिंदू लड़कियों का इतना सम्मान होता है जितना की उनके स्वयं के परिवारों में नहीं। यह विज्ञापन न तो कोई चूक है और न ही धार्मिक समरसता का प्रयोजन
जयराम शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार )
गहना बेचने वाली एक नामी कंपनी के एक चर्चित विज्ञापन पर कुछ बात करें, आएं उससे पहले मेरी स्मृतियों में टँकी एक सच्ची कहानी-“बात 67-68 की है। मेरे गाँव में बिजली की लाइन खिंच रही थी। तब दस-दस मजदूर एक खंभे को लादकर चलते थे।
मेंड़, खाईं, खोह में गढ्ढे खोदकर खड़ा करते। जब ताकत की जरूरत पड़ती तब एक बोलता.. या अलीईईईई.. जवाब में बाँकी मजूर जोर से एक साथ जवाब देते…मदद करें बजरंगबली..और खंभा खड़ा हो जाता।
सभी मजूर एक कैंप में रहते, साझे चूल्हें में एक ही बर्तन पर खाना बनाते। थालियां कम थी तो एक ही थाली में खाते भी थे। जहाँ तक याद आता है..एक का मजहर नाम था और एक का मंगल।
वो हमलोग इसलिए जानते थे कि दोनों में जय-बीरू जैसे जुगुलबंदी थी। जब काम पर निकलते तो एक बोलता – चल भई मजहर..दूसरा कहता हाँ भाई मंगल। अपनी उमर कोई पाँच-छ: साल की रही होगी, बिजली तब गाँव के लिए तिलस्म थी जो साकार होने जा रही थी।
यही कौतूहल हम बच्चों को वहां तक खींच ले जाता था। वो लोग अच्छे थे एल्मुनियम के तार के बचे हुए टुकड़े देकर हम लोगों को खुश रखते थे।
उनकी एक ही जाति थी..मजूर और एक ही पूजा पद्धति मजूरी करना। तालाब की मेंड़ के नीचे लगभग महीना भर उनका कैंप था न किसी को हनुमान चालीसा पढ़ते देखा न ही नमाज।
सब एक जैसी चिथड़ी हुई बनियान पहनते थे, पसीना भी एक सा तलतलाके बहता था। खंभे में हाथ दब जाए तो कराह की आवाज़ भी एक सी ही थी। और हां मजहर के लहू का रंग भी पीला नहीं लाल ही था।”
मजहर और मंगल की एकता देश और समाज के निर्माण के सापेक्ष थी। यही वह समरसता है जो भारतमाता अपने सपूतों से चाहती है। ऐसी समरसता जहां आकर जाति, धर्म, नस्ल, अस्मिता सब एकाकार हो जाए।
पर कुछ ऐसी ताकतें हैं जो नहीं चाहतीं कि ऐसा कुछ हो। उनके साजिशों की बुनावट इतनी महीन होती है कि बात जबतक समझ में आए तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
गहना बेचने वाली कंपनी के विज्ञापन में यदि मजहर-मंगल जैसी भावनाओं की अभिव्यक्ति होती तो वह स्वागतेय थी..लेकिन कंपनी के क्रियेटिव हेड और काँपी रायटर का मकसद तो एक नए तरीके के जेहाद को संपुष्ट करता है।
इसकी तह तक जाएं और पता लगाएं कि यह विज्ञापन, जिसमें एक मुसलमान परिवार में हिंदू लड़की को बहू के रूप में चित्रित किया गया है किसने गढ़ा है? किस वैचारिक संगठन से जुड़ा है? उसकी पृष्ठभूमि क्या है? तो सारी असलियत सामने आ जाएगी।
देश में जबसे इस्लामिक आतंकवाद की काली छाया पड़ी है तब से कई मोर्चे एक साथ खुले हैं। उसमें से एक मोर्चा लव जेहाद का है। गाँव और छोटे कस्बे से लेकर महानगरों तक यह सिलसिला चल रहा है।
भोली-भाली हिंदू लड़कियों को अपने जाल में फँसाकर धर्मपरिवर्तन के साथ शादी, फिर बच्चे पैदाकर सड़क पर मरने के लिए छोड़ देना ऐसी घटनाएं आम है।
इस वास्तविकता को समझते हुए धर्मरक्षी संगठनों द्वारा ‘लव जेहाद’ के खिलाफ एक वातावरण बनाया जा रहा था। कई बच्चियां इन कसाइयों के चंगुल से मुक्त कराई गईं। लेकिन यह विज्ञापन एक तरह से ‘लव-जेहाद’ का न सिर्फ बचाव करता है उसे महिमा मंडित भी करता है।
विज्ञापन में सीधा और संदेश है कि मुस्लिम परिवारों में बहू बनकर जाने वाली हिंदू लड़कियों का इतना सम्मान होता है जितना की उनके स्वयं के परिवारों में नहीं।
यह विज्ञापन न तो कोई चूक है और न ही धार्मिक समरसता का प्रयोजन। यह एक तरह से ‘क्रियेटिव जेहाद’ है जिसका प्रयोग बालीवुड के फिल्मकार वर्षों से करते आ रहे हैं। बालीवुड की प्रायः हर दूसरी फिल्मों में..हिंदू व मुसलमान के धर्म तत्व बिना प्रसंग के रखे जाते हैं और हिंदू प्रतीकों का कैसे मजाक उड़ाया जाता है यह बताने नहीं देखने व विचार करने का विषय है।
देश में जब भी कभी राष्ट्र के स्वाभिमान का दौर आता है तो कतिपय बौद्धिक तत्व अपना नरैटिव सेट करने में लग जाते हैं। टाटा की तनिष्क कंपनी के इस विज्ञापन को लेकर भी यही हुआ यद्यपि टाटा संस की ऐसी मंशा शायद ही रही हो पर प्रोडक्ट के प्रचार के लिए ऐसी बारीक बुनावट की गई जो टाटा के नीति-नियंताओं को मामला हाथ से निकल जाने के बाद समझ में आई। लेकिन कमाल की बात यह कि कतिपय बौद्धिक इसे समझाने के लिए जलालुद्दीन उर्फ अकबर को सामने ले आए।
अकबर का जोधा प्रसंग सदियों से भारतीयों के ह्दय में टीसता रहा है। साम्यवादी इतिहासकारों ने अकबर की महानता के कसीदे पढ़े। बालीवुड के फिल्मकारों ने मुगल-ए-आजम जैसी फिल्मों के जरिए अकबर की ऐसी छवि गढ़ी जैसे वह कितना बड़ा महाबली देवदूत हो।
जबकि वास्तव में अकबर से बड़ा हरामी, क्रूर, विश्वासघाती, कामुक स्वेच्छाचारी इतिहास में कोई नहीं मिलता। उसने सारी उम्र हिंदुओं का धन और धरम लूटते, भ्रष्ट करते हुए जिया। राजाओं को अपने आधीन स्वीकार करने की शर्त सिर्फ समर्पण ही नहीं बल्कि बहन व बेटी को उसके हरम में भेजने की थी। अकबर के हरम में नब्बे प्रतिशत गैर मुस्लिम महिलाएं थी।
यह तथ्य मालूम होना चाहिए कि अकबर ने अपने सूबेदार को गोडवाना जीतने के लिए नहीं अपितु रानी दुर्गावती को हरम के लिए पकड़वाने हेतु भेजा था। वह रानी दुर्गावती के रूप की चर्चा सुनकर लगभग वैसे ही मोहित था जैसे कि खिलजी पद्मावती को लेकर। लेकिन उन लोगों के लिए अकबर महान है अभी भी।
एक बौद्धिक ने विज्ञापन प्रसंग में अकबर की सहिष्णुता का दृष्टांत दिया है। ऐसे लोगों की मति पर खुदा खैर करे। देश को समरसता, धार्मिक सद्भावना की प्राणवायु चाहिए लेकिन एक दूसरे के बरक्स किसी को हेय या गलीज दिखाकर नहीं। यह समरसता मजहर और मंगल जैसों के दृष्टांत से निकलकर आनी चाहिए। एपीजे अब्दुल कलाम, अमरबलिदानी अब्दुल हमीद, उस्ताद बिस्मिल्ला खान के प्रसंगों से धार्मिक सद्भाव की बातें निकलनी चाहिए..।
गहना कंपनी का वह विज्ञापन(जो वापस लिया जा चुका है) अकबर के हरम के विस्तार को ही व्याख्यायित करता है..मुगल-ए-आजम की जोधाबाई प्रसंग की तरह।
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