लोगों को याद होगा कि किस तरह बड़े-बड़े सरकारी अर्थशास्त्री मनरेगा जैसी योजना के खिलाफ थे, जो कि आज हिंदुस्तान में एक बड़ी आबादी को जिंदा रखने का सबसे बड़ा जरिया साबित हो रही है। ऐसे ही पोषण आहार का भी खुद विरोध था जो आज लोगों के ज़िंदा रहने की वजह है।
सुनील कुमार, वरिष्ठ पत्रकार)
सुप्रीम कोर्ट में अभी इस बात पर बहस चल रही है कि हिंदुस्तान के चुनावों में राजनीतिक दल मुफ्त के तोहफों के जो वायदे करते हैं, क्या उन पर रोक लगाई जानी चाहिए? यह मामला चुनाव आयोग के सामने भी आया था, और देश के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इस आधार पर ऐसी घोषणाओं पर रोक लगाने की मांग की थी कि उनसे राज्यों के बजट पर गैरजरूरी बोझ बढ़ता है, और विकास कार्य के लिए रकम नहीं बचती है।
पिछले कुछ दशकों में हिंदुस्तानी चुनावों में ऐसा हुआ भी है कि राजनीतिक दलों ने एक-दूसरे से आगे बढक़र ऐसी लुभावनी घोषणाएं की हैं कि जिनसे सत्ता पर पहुंचने से पहले ही वे बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर चुके होते हैं। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से ही कहा है कि वह एक संवैधानिक संस्था है, और सुप्रीम कोर्ट चुनावी तोहफों को लेकर जो विशेषज्ञ पैनल बना रहा है, उससे आयोग को बाहर रखा जाए।
आयोग का यह मानना है कि यह तय करना अदालत का काम होना चाहिए कि चुनावी घोषणाओं में क्या-क्या कहा जा सके और क्या-क्या नहीं कहा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में यह बहस चल ही रही है कि इस दौरान संसद में मोदी सरकार के मंत्रियों ने जनता को दिए जाने वाले अनाज को मुफ्त का तोहफा करार देकर यह बहस शुरू कर दी है कि जिंदा रहने के लिए जनता का जो बुनियाद हक है, उसे मुफ्त का कैसे कहा जा सकता है? विपक्ष के बहुत से नेताओं ने इस पर संसद के भीतर और बाहर, दोनों जगह आपत्ति की है कि इसे मुफ्त कहना देश की जनता के हक का अपमान है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के तय किए गए विशेषज्ञ पैनल के लोग यह तय करेंगे कि चुनावी घोषणापत्र में राजनीतिक दल जनता से किन चीजों का वायदा कर सकते हैं, और किन चीजों का नहीं? इस बात में जागरूक और जानकार सामाजिक कार्यकर्ता एक बड़ी खामी देखते हैं कि देश के तथाकथित विशेषज्ञ एक अलग ही दुनिया में जीते हैं, और वे देश के सबसे गरीब लोगों की जरूरतों का अहसास ही नहीं रखते।
ऐसे सामाजिक आंदोलनकारियों का यह मानना है कि अपने-आपको अर्थशास्त्र का जानकार समझने वाले ये लोग आमतौर पर सरकारों की पूंजीवादी सोच का साथ देते हैं, और जिंदा रहने के लिए जो न्यूनतम जरूरतें आम जनता को चाहिए, ये उन्हें भी रियायत या राहत की तरह देने के खिलाफ रहते हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह बड़े-बड़े सरकारी अर्थशास्त्री मनरेगा जैसी योजना के खिलाफ थे, जो कि आज हिंदुस्तान में एक बड़ी आबादी को जिंदा रखने का सबसे बड़ा जरिया साबित हो रही है।
किस तरह सरकारी अर्थशास्त्री रियायती राशन या स्कूलों में दोपहर के भोजन के खिलाफ थे जिनकी वजह से आबादी के एक बड़े हिस्से का पोषण आहार संभव हो सका, और करोड़ों बच्चों का विकास बेहतर हो सका। सामाजिक विकास के पैमानों को अगर तात्कालिक आर्थिक विकास और उत्पादकता से जोडक़र देखा जाएगा, तो वह एक गड़बड़ अनुमान ही सामने रखेगा।
सरकार की ऐसी जनकल्याणकारी योजनाओं का दीर्घकालीन फायदा होता है, और कुछ दशक इनके चलते रहने के बाद इनका फायदा पाने वाली आबादी की औसत उम्र में भी बेहतरी दिखेगी, और इनकी उत्पादकता में भी। अब पूरे देश में यह बात निर्विवाद रूप से मान ली गई है कि देश की करीब आधी आबादी को रियायती या नि:शुल्क अनाज देना जरूरी है, और उसे पाना उनका बुनियादी हक है।
लोगों ने सुप्रीम कोर्ट की इस अतिरिक्त दिलचस्पी को लेकर भी उसकी कड़ी आलोचना की है कि उसके सामने देश की राजनीति को साफ करने के लिए दर्जनों जलते-सुलगते मामले खड़े हैं, लेकिन वह उनकी सुनवाई नहीं कर रही है, बल्कि चुनावी लुभावनी घोषणाओं का विश्लेषण करने में लगी है जो कि संसद और विधानसभाओं का काम होना चाहिए। लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार का यह हक रहता है कि वह संविधान के दायरे के भीतर अपनी मर्जी से बजट के मुद्दे तय करे।
अगर वह गलत फैसले लेती है तो पांच बरस बाद उसे फिर जनता के बीच जाना पड़ता है, और उसका हिसाब-किताब जनता ही चुकता करती है। जहां तक लुभावनी घोषणाओं पर सरकारों का दीवाला निकल जाने के खतरे की बात है, तो उसके लिए भी देश-प्रदेश में विपक्ष भी है, केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के सलाह-मशविरे भी हैं, मीडिया भी है, और जनता के बीच से भी आवाज उठती है। इसलिए अगर कोई विशेषज्ञ कमेटी बुनियादी लोकतांत्रिक मुद्दों को तय करेगी, तो उसका सोचने का नजरिया गरीबों के खिलाफ होने का एक बहुत बड़ा खतरा है।
यहां पर तमिलनाडु के वित्त मंत्री पीटीआर का कल का एक टीवी इंटरव्यू देखने लायक है जिसमें उन्होंने सवाल पूछ रहे उत्साही चैनल-मुखिया को बेजवाब कर दिया। प्रधानमंत्री ने जनता को दिए जाने वाले रियायती सामानों को लेकर या दूसरी छूट को लेकर रेवड़ी जैसे शब्द का इस्तेमाल किया था, और इस बारे में तमिल वित्त मंत्री ने कहा कि राज्यों से किस आधार पर प्रधानमंत्री अपनी नीतियां बदलने को कह सकते हैं?
उन्होंने कहा कि या तो कोई संवैधानिक आधार होना चाहिए तो आप जो कहेंगे उसे हम सब सुनेंगे, या फिर आपकी कोई ऐसी विशेषज्ञता होनी चाहिए, आपके पास अर्थशास्त्र में दोहरी पीएचडी होनी चाहिए, या फिर आपको नोबेल पुरस्कार मिला होना चाहिए, या फिर कोई ऐसी बात होनी चाहिए जो बताए कि आप हमसे बेहतर हैं। या आपका काम का रिकॉर्ड ऐसा हो जो बताए आपने अर्थव्यवस्था को आसमान पर पहुंचा दिया है, या कर्ज को जमीन पर ला दिया है, या प्रति व्यक्ति आय बढ़ा दी है, या रोजगार खड़े कर दिए हैं।
तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने कहा कि जब इनमें से कोई बात सच नहीं है तो हम उनके नजरिए से क्यों देखें? उन्होंने कहा कि तमिलनाडु ने बहुत से पैमानों पर केंद्र सरकार से बेहतर काम किया है, ऐसे में यह राज्य प्रधानमंत्री के कहे अपनी नीतियां क्यों बदले? उन्होंने कहा कि क्या यह स्वर्ग से आ रहा कोई संविधानेतरअभी यह बहस अगले कुछ हफ्ते या कुछ महीने चलती रहेगी, और सुप्रीम कोर्ट शायद ही सरकार से यह पूछ सकेगी कि देश के बड़े कारोबारियों को बैंकों से दिए गए कर्ज का दस-दस लाख करोड़ रुपया डूब जाना किस आकार की रेवड़ी कहलाएगा?
और यह भी कि राष्ट्रीय सूचना आयोग के बार-बार के आदेश के बाद भी देश के राजनीतिक दल उन्हें मिले चंदे का हिसाब देने को तैयार क्यों नहीं हैं? क्या बड़े कारोबारियों से उन्हें मिलने वाला मोटा देशी और विदेशी चंदा भी रेवड़ी कहलाएगा, या कुछ और? हुक्म है? तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके सुप्रीम कोर्ट गई है और उसने इस मामले में फ्रीबीज (बोलचाल की जुबान में रेवड़ी) की परिभाषा तय करने की मांग की है, और कहा है कि जनजीवन को सुरक्षित रखने के लिए और आर्थिक न्याय के लिए लिए जाने वाले फैसले फ्रीबीज नहीं कहे जा सकते।
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