Supreme Court Orders EC

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सुप्रीम कोर्ट का EC को आदेश: वेबसाइट पर डालें बिहार SIR में छूटे हुए 65 लाख वोटरों के नाम

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Supreme Court Orders EC: बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) यानी मतदाता सूची के वेरिफिकेशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अहम आदेश जारी किया।

चुनाव आयोग ड्राफ्ट लिस्ट से जिन 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं, उनकी पूरी सूची 48 घंटे के भीतर जिला निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर डाली जाए।

साथ ही अदालत ने निर्देश दिया कि  प्रत्येक नाम हटाने का कारण भी स्पष्ट किया जाए, ताकि संबंधित व्यक्ति समय रहते सुधार के लिए दावा कर सके।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने कहा कि यह सूची सिर्फ ऑनलाइन ही नहीं लगाए।

बल्कि बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) के कार्यालय, पंचायत भवन और ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिस (BDO) के बाहर भी लगाई जाए।

कोर्ट ने निर्देश दिया कि इस जानकारी को अखबार, टीवी, रेडियो और आधिकारिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर व्यापक रूप से प्रचारित किया जाए।

ऐसा इसलिए ताकि कोई भी मतदाता अज्ञानता या जानकारी के अभाव में अपने मताधिकार से वंचित न रह जाए।

EC 3 दिन में बताएं पारदर्शिता के कदम

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को तीन दिन का समय दिया है, ताकि वह यह बता सके कि पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए वह क्या कदम उठा रहा है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि जिन मतदाताओं ने दावा फॉर्म भरे हैं, वे फिलहाल मतदाता सूची में बने रहेंगे।

सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, मतदाता अधिकार से वंचित करना गंभीर परिणाम ला सकता है, इसलिए प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी होनी चाहिए।

जस्टिस बागची ने सवाल उठाया कि जब नाम बोर्ड पर लगाए जा सकते हैं, तो वेबसाइट पर क्यों नहीं डाले जा सकते? इस पर आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने दलील दी कि पुराने एक फैसले में पूरी तरह ‘searchable’ लिस्ट बनाने पर गोपनीयता संबंधी आपत्ति आई थी। इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि searchable फॉर्मेट में जानकारी देना ठीक है और बूथ लेवल ऑफिसरों के मोबाइल नंबर वेबसाइट पर डालना भी एक अच्छा कदम होगा।

कोर्ट ने चुनाव आयोग को निम्नलिखित निर्देश दिए- 

  • जिलावार वेबसाइट पर छूटे हुए मतदाताओं की सूची डाली जाए।
  • बूथवार जानकारी EPIC नंबर (मतदाता पहचान पत्र नंबर) के जरिए searchable हो।
  • नाम हटाने का स्पष्ट कारण लिखा जाए।
  • वेबसाइट और पूरी प्रक्रिया का स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया में व्यापक प्रचार किया जाए।
  • दावा करने के लिए आधार कार्ड की कॉपी को पहचान पत्र के रूप में स्वीकार किया जाए।
  • पंचायत भवन और ब्लॉक ऑफिस में भी यह सूची कारण सहित लगाई जाए।
  • राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (CEO) की वेबसाइट पर भी पूरी जिलावार सूची डाली जाए।
  • बूथ लेवल और जिला स्तरीय अधिकारियों से अनुपालन रिपोर्ट लेकर सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया जाए।

22 लाख मृतकों के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं- SC

सुनवाई में जस्टिस सूर्यकांत ने यह भी सवाल उठाया कि अगर 22 लाख लोगों को मृत पाया गया है, तो उनके नाम ब्लॉक और सब-डिवीजन स्तर पर सार्वजनिक क्यों न किए जाएं।

आयोग की ओर से बताया गया कि पंचायत चुनाव की वेबसाइट राज्य सरकार के पास है। लेकिन राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर यह जानकारी डाली जा सकती है, इस पर कोर्ट ने सहमति जताई।

अदालत ने यह भी कहा कि मृत, प्रवासी या डुप्लीकेट मतदाताओं के नाम सार्वजनिक करने से प्रक्रिया पारदर्शी बनेगी और इससे भविष्य में गलतियों या गड़बड़ियों को रोका जा सकेगा।

कोर्ट ने कहा कि मतदाताओं को जानकारी पाने के लिए BLO या राजनीतिक पार्टियों के बूथ लेवल एजेंट (BLA) का चक्कर लगाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

अगर किसी का नाम लिस्ट में नहीं है, तो उसे या उसके परिवार को आसानी से यह पता चल सके, ताकि समय रहते वे दावा कर सकें और नाम वापस जोड़ा जा सके।

वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने सुझाव दिया कि सूची मशीन-रीडेबल होनी चाहिए, क्योंकि पहले एक घोटाले का मामला सामने आ चुका है।

वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल एस. ने बताया कि सूची का फॉर्मेट बदल दिया गया है, लेकिन जस्टिस सूर्यकांत ने दोहराया कि इसे searchable होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अगली सुनवाई 22 अगस्त दोपहर 2 बजे होगी। उस दिन चुनाव आयोग की रिपोर्ट देखने के साथ याचिकाकर्ता पक्ष के अन्य सुझावों पर भी विचार किया जाएगा।

सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने स्पष्ट किया कि आयोग को मतदाताओं तक आसानी से जानकारी पहुंचाने पर कोई आपत्ति नहीं है।

उसकी आपत्ति सिर्फ इस बात पर है कि कोई एनजीओ पूरी लिस्ट हासिल करने को अपना अधिकार बताए।

इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख साफ है मतदाताओं की सूची में किसी भी तरह का बदलाव पूरी पारदर्शिता और जनसुलभ तरीके से होना चाहिए, ताकि कोई भी नागरिक अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित न रहे।

 

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