दिल्ली में भीड़ ने खुलकर मुस्लिमों पर हिंसा करने के नारे लगाए। साथ यह नारे भी लगाए कि जब इनको मारा जाएगा तो ये राम-रामचिल्लाएंगे। अपनी हिंसक और सांप्रदायिक सोच में राम को जिस तरह से लपेटा गया है, उससे लगता है कि तुलसी की कहानी से परे अगर सचमुच ही राम कहीं होते तो अपना नाम समेटकर भी यहां से चले गए होते
सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
रविवार को दिल्ली में भाजपा के एक नेता की अगुवाई में प्रतिबंधों को तोड़ते हुए प्रदर्शन हुआ। इस प्रदर्शन में भीड़ ने खुलकर मुस्लिमों पर हिंसा करने के नारे लगाए।
उन नारों के साथ यह नारे भी लगाए कि जब इनको मारा जाएगा तो ये राम-राम चिल्लाएंगे। अपनी हिंसक और सांप्रदायिक सोच में राम को जिस तरह से लपेटा गया है, उससे लगता है कि तुलसी से परे अगर सचमुच ही राम कहीं होते तो अपना नाम समेटकर भी यहां से चले गए होते।
जिस राम के नाम पर देश के सबसे लंबे मुकदमे के बाद एक मंदिर बन रहा है, उस राम का नाम मुंह से निकलवाने के लिए मुस्लिमों को मारने और काटने के नारे संगठित तरीके से लगवाए जा रहे हैं।
मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक छाए हुए इन वीडियो को अगर किसी ने नहीं देखा है तो दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस ने नहीं देखा है जिनकी प्राथमिकता में ऐसी सोच पर कोई कार्यवाही करना रह नहीं गया है।
मीडिया के कुछ लोगों ने इस बात को लिखा भी है कि ऐसे नारे लगाने वालों को गिनती के फतवेबाज मान लेना गलत होगा क्योंकि यह उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले हर कुछ दिनों में आगे बढ़ाए जा रहे एजेंडे का एक हिस्सा है, जिसे समझ पाना अधिक मुश्किल बात नहीं है।
ऐसा लगता है कि आने वाले महीनों में उत्तर प्रदेश चुनाव का मतदान उत्तर प्रदेश में हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं के बीच एक जनगणना की तरह होकर रह जाएगा जो कि धर्म के आधार पर की जाएगी।
जिस तरह एक पत्रकार को जंतर मंतर पर इस सांप्रदायिक भीड़ ने घेर लिया और उससे जबरिया जय श्री राम कहलवाने की कोशिश की गई, और ना कहने पर उसे वहां से निकाल दिया गया। वे तमाम वीडियो देखने के बावजूद दिल्ली की पुलिस तो मौन है ही। अपने आपको भाजपा से अलग बताने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी ऐसी नौबत के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहे।
जबकि वह आए दिन इस बात की आड़ लेते रहते हैं कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के मातहत काम करती है और दिल्ली का मुख्यमंत्री पुलिस को नियंत्रित नहीं करता। लेकिन दिल्ली का मुख्यमंत्री अपनी जुबान को तो नियंत्रित करता है, वह यह तो तय कर सकता है कि वह किस सांप्रदायिक हिंसा को देखते हुए अपना मुंह खोले?
या फिर वह अपनी ही पार्टी के विधायकों की गुंडागर्दी को बचाने के लिए ही मुंह खुलेगा और फिर चाहे उसके राज्य के भीतर इतनी बड़ी-बड़ी सांप्रदायिक हिंसा होती चले उसका मुंह भी नहीं खुलेगा? यह हिंदुस्तान का किस किस्म का निर्वाचित मुख्यमंत्री है जिसका मुंह ही चुनिंदा मुद्दों पर खुलता है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि उसके गुरु अन्ना हजारे का मुंह चुनिंदा मुद्दों पर, चुनिंदा लोगों के खिलाफ ही खुलता था। और पिछले 6 बरस से वह कुंभकरण की तरह सोया हुआ है यह कहकर कि कांग्रेस सरकार आएगी तो उठा देना।
यह सिलसिला बहुत ही शर्मनाक है लेकिन दिक्कत यह है कि दिल्ली की पुलिस और उत्तर प्रदेश की पुलिस इन दोनों की सांप्रदायिकता में कोई फर्क रह नहीं गया है।
जो वीडियो बच्चे-बच्चे के हाथ में है, वह वीडियो भी पुलिस को हासिल नहीं हो रहा है। जिस प्रदर्शन की अर्जी खारिज की जा चुकी थी उसके बावजूद वह प्रदर्शन हुआ और इतने भयानक सांप्रदायिक तरीके से हुआ।
लेकिन फिर भी केंद्र सरकार की इतनी एजेंसियां जो कि लोगों के मोबाइल फोन पर झांकने के लिए इजराइल से अरबों का जासूसी स्पाइवेयर खरीदती हैं, उन्हें सडक़ पर नारे लगाती भीड़ के यह वीडियो भी नहीं मिल रहे जिन्हें पाने के लिए पेगासस की जरूरत नहीं है, महज आंख और कान खोलने की जरूरत है, वे सोशल मीडिया पर चारों तरफ हैं।
ऐसी अनदेखी करके केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश की पुलिस देश को किस हालत में धकेल रही है, क्या इन दो पुलिस पर राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के तहत मुक़दमा दर्ज नहीं होना चाहिए?
पूरे देश में पुलिस किस तरह एक अराजक ताकत बन चुकी है इसको देखना हो तो कल देश के मुख्य न्यायाधीश का दिया हुआ यह भाषण सुनना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में मानवाधिकार का सबसे बुरा हनन पुलिस हिरासत में होता है। जहां ताकतवर लोगों को भी प्रताडऩा और अत्याचार झेलना पड़ता है।
प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कहा कि मानवाधिकार और व्यक्ति की गरिमा को सबसे अधिक खतरा पुलिस थाने में होता है। उन्होंने पुलिस में पहुंचने के बाद लोगों के मानवाधिकार के मामले में अमीर और गरीब की ताकत के फर्क के बारे में भी काफी कुछ कहा है।
उन्होंने कहा कि अगर हम कानून का राज बनाए रखना चाहते हैं तो न्याय तक पहुंच वाले, और बिना पहुंच वाले गरीब, के बीच का फर्क खत्म करना होगा।
पहुंच और बिना पहुंच वालों के बीच का यह फर्क हिंदुस्तान में आज ना सिर्फ पैसे वालों और गरीब के बीच में है, बल्कि बहुमत की आबादी और अल्पमत आबादी के बीच भी है।
आज अल्पमत के लोग अगर बहुमत के खिलाफ इस तरह के नारे लगाते हुए मिलते तो अब तक उनके खिलाफ बड़ी-बड़ी एफआईआर दर्ज हो चुकी रहतीं।
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोग उनके खिलाफ टीवी की बहसों में मुंह से झाग निकालने लगते, और सडक़ों पर राजनेता देश के ऐसे गद्दार तबके को पड़ोस के देश भेज देने की बात कहने लगते।
मुख्य न्यायाधीश ने जो बात गरीब और अमीर के बारे में कही है वह दरअसल पैसों की ताकत से जुड़ी हुई बात है, उसे और अधिक बारीकी से देखें तो वह सिर्फ ताकत से जुड़ी हुई बात है जो कि सिर्फ पैसों की ताकत हो, ऐसा जरूरी नहीं है।
आज देश में बहुमत की ताकत और अल्पमत की ताकत का जो फर्क है उसने लोगों की जिंदगी का बुनियादी हक छीन लिया है। आज अल्पमत की भीड़ पर निशाना लगाने के लिए बहुमत की सोच वाली सरकारों की पुलिस कहीं पैलेट गन चलाने तैयार है, तो कहीं बेकसूरों को चौथाई-चौथाई सदी तक जेलों में बंद रखने को तैयार है, तो कहीं उनके खिलाफ अंतहीन झूठे मुकदमे दायर करने को तैयार है।
पता नहीं क्यों मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस तक संपन्न और विपन्न की पहुंच के फर्क को गिनाते हुए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की पहुंच के फर्क को नहीं गिनाया, जबकि कल जब वे यह भाषण दे रहे थे तकरीबन उसी समय के आसपास उन्हीं की दिल्ली में यह नारे लग रहे थे जिनमें मुस्लिमों को जब मारा जाएगा तो वे राम-राम चिल्लाएंगे के नारे वीडियो कैमरों के सामने लगाए जा रहे थे।
या अलग बात है कि बिना इजाजत यह प्रदर्शन जिस भाजपा नेता के संगठन ने किया था वह इसे अपना भारत जोड़ो आंदोलन करार देता है यह किस तरह का भारत जोड़ो है?
क्या इसे उसी दिल्ली में बैठे हुए देश के मुख्य न्यायाधीश को नहीं देखना चाहिए? क्योंकि देश में लोकतंत्र की अन्य संस्थाओं का दिवाला निकल चुका है, और अब थोड़ी बहुत उम्मीद इस नए मुख्य न्यायाधीश से इसलिए है कि इनकी कोई नीयत रिटायरमेंट के बाद किसी कुर्सी को पाने की दिख नहीं रही है।
उनके अब तक के फैसले एक ईमानदार अदालत का रुख दिखा रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश भी अगर बुलाकर यह नहीं पूछेगा कि राम का नाम लेने वालों की कमी हो गई है क्या जो कि मुस्लिमों को मार-मारकर राम का नाम लिवाया जाएगा?
क्या मुख्य न्यायाधीश की जिम्मेदारी नहीं बनती कि एक मासूम नासमझ बच्चा बनी हुई दिल्ली पुलिस को बुलाकर पूछे कि उसके आंख और कान कुछ चुनिंदा मौकों पर काम करना क्यों बंद कर देते हैं?
वह केंद्र सरकार की खुफिया एजेंसियों को यह नहीं पूछ सकती कि ऐसे नारों के पहले और इसके बाद क्या उन्हें देश की सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं दिखता है?
लोकतंत्र की बुनियादी समझ को ध्यान में रखते हुए कल की इस वारदात के बाद कोई नतीजा निकाला जाए तो उससे दिल्ली पुलिस के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज हो सकता है कि वह अपनी सरहद में इतनी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा के फतवे हवा में गूंजने दे रही है, उसकी अनदेखी कर रही है, और पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा भडक़ने का खतरा खड़ा कर रही है।
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