बीकानेर में पांच घंटे से खड़े कार्यकर्ताओं की माला पांच सेकंड में फेंकने वाले पायलट ने आज भी कांग्रेस की सालों से मिली सम्मान की माला उतार फेंकी, इसके मायने समझा रहे हैं राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार अनुराग हर्ष
राजस्थान विधानसभा के चुनाव के वक्त बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में रात करीब नौ बजे तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट पहुंचे थे। काफी लंबा सफर तय करके आये पायलट थक चुके थे। चार बजे का बोलकर नौ बजे पहुंचे पायलट का स्वागत करने वालों की भीड थी। जोश में एक कार्यकर्ता ने उनके गले में माला डालते हुए जिंदाबाद के नारे लगाए।
अभी नारा पूरा भी नहीं हुआ था कि पायलट ने माला को गले में लेने के बजाय उसे हाथ से पकडकर पीछे फैंक दिया। कार्यकर्ता को अपने प्रदेशाध्यक्ष का यह व्यवहार नागवार लगा। उसने तुरंत कहा, साब पिछले पांच घंटे से आपका इंतजार कर रहे हैं, सिर्फ माला पहनाने के लिए, आपने पहनने के बजाय फैंक दी। तो जाओ, हमें भी आपकी जरूरत नहीं। इसे तवज्जो देने के बजाय पायलट सीधे आगे बढ गए।
आज उसी सचिन पायलट ने कांग्रेस की ओर से गले में डाली गई उपमुख्यमंत्री की माला, प्रदेशाध्यक्ष की माला, पूर्व में बनाए गए सांसद की माला, पूर्व में बनाए गए केंद्रीय मंत्री की माला सहित मान सम्मान की सभी मालाएं गले से निकालकर फैंक दी है। जब पायलट ने कार्यकर्ता की माला निकालकर फैंकी थी, तब तो राजस्थान में कांग्रेस की सत्ता आने की उम्मीद नजर आ रही थी।
उनके स्वयं के मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद थी। इसके विपरीत आज इतनी सारी मालाएं पायलट ने क्यों निकाल फैंकी! पायलट न तो भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में है, न ही अपनी पार्टी बनाकर बडा फेरबदल करने का दम रखते हैं।
पायलट के पास अभी एक दर्जन से अधिक विधायक है। वैसे तो यह संख्या अच्छी है लेकिन सरकार को गिराने के लिए नाकाफी है। जादूगर की छवि रखने वाले अशोक गहलोत जादुई आंकडे के साथ बैठे हैं, निश्चित है कि वो पार्टी की सरकार को अपने मुख्यमंत्री पद को बचा लेंगे।
इस सारे झगडे के बाद सवाल यह उठता है कि इससे सचिन पायलट को क्या मिला। क्या पाने के लिए उन्होंने इतनी लम्बी लडाई लडी, पूरे हठ के साथ विरोध में डटे रहे और अंत में अपना उप मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष का पद भी खो बैठे। क्या इससे आगे वो कुछ पाने की कोशिश में है। इसी पर नजर डालना आज के राजनीतिक घटनाक्रम में जरूरी हो गया है।
कांग्रेस में उम्मीद
अब कांग्रेस में सचिन पायलट के लिए उम्मीदें खत्म हो गई है। अगर वो पार्टी नेताओं के बुलावे पर वापस आ जाते तो उनकी शर्तों को अभी या बाद में मान लिया जाता, लेकिन कांग्रेस के दरवाजे सचिन व उनकी टीम के लिए बंद हो गए। इस भीड में यूथ कांग्रेस के नव निर्वाचित प्रदेशाध्यक्ष मुकेश भाकर भी पद खो बैठे। दो मंत्री विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा भी पद खो बैठे। अब नई राजनीतिक जमीन ही तलाशनी पडेगी।
एक नया मंच, नई पार्टी, नई लडाई
राजनीति में संघर्ष ज्यादा होता है और सुख कम मिलता है। सचिन के साथ इसके विपरीत है, उन्होंने सत्ता का सुख पैदा होने के साथ ही भोगना शुरू कर दिया था, संघर्ष उन्हें अब करना पडेगा। प्रदेशाध्यक्ष बनने के साथ ही उन्होंने जो संघर्ष किया था वो कांग्रेस की आती हुई सरकार का संघर्ष था। ऐसे में उन्हें ज्यादा मुश्किल नहीं हुई।
अब अगर वो हरियाणा के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चैटाला की राह पर अपने दम पर सत्ता में आना चाहते हैं तो उनके लिए काफी संघर्ष करना पडेगा। प्रदेश में वोटों का गणित देखा जाए तो गुर्जर व मीणा दोनों के वोट अच्छी संख्या में है। गुर्जर नौ फीसदी है और मीणा आठ फीसदी है। प्रदेश की 49 सीटों पर इनका दबदबा है। वर्तमान में सचिन पायलट गुर्जर जाति के सबसे बडे नेता है। यह पद उन्हें अपने पिता राजेश पायलट के कारण मिला।
हाल ही में गुर्जर समाज ने भी उनके साथ खडे होने का दावा दावा किया। इसी लडाई में मीणा विधायक भी पायलट के साथ है। रमेश मीणा जैसे नेता के साथ मिलकर सचिन लडाई लडे, नई पार्टी बनाएं तो उनके लिए संभावना है लेकिन बहुत कठिन डगर है।
जहां तक जाने के लिए उन्हें नए सिरे से लडना होगा। मैदान में उतरना होगा। इस बार उनकी लडाई अकेले भाजपा से नहीं बल्कि कांग्रेस से भी होगी। वैसे राजस्थान में अब तक तीसरा मोर्चा कभी सफल नहीं हो पाया। भाजपा नेता रहते हुए देवी सिंह भाटी और किरोडीलाल मीणा सहित कई नेता असफल प्रयोग कर चुके हैं। अगर यह प्रयोग सफल भी होता है तो सचिन सभी दो सौ सीटों पर दावेदारी करने का सपना नहीं देख सकते।
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भाजपा में शामिल हों तब
अगर सचिन पायलट कांग्रेस छोड भाजपा में शामिल होते हैं तो सबसे पहले उनकी विधायकी जाने का खतरा है। न सिर्फ उनकी बल्कि उनके साथी विधायकों की भी। अगर वो यह खतरा मोल लेते हैं और उप चुनाव में कांग्रेस को सबक सिखाने की कोशिश करते हैं तो कुछ समय बाद कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर स्वयं दमदार तरीके से आ सकते हैं।
प्रदेश में वर्तमान सरकार का विरोध स्वभाविक तरीके से हैं। वैसे सत्ता में रहते हुए जो पार्टियां चुनाव लडती है, वो सीटें निकाल लेती है। मध्यप्रदेश में भी भाजपा ने पहले सत्ता प्राप्त की है और फिर इस्तीफा दे चुके विधायकों को फिर से जिताने की कोशिश कर रही है।बिना सत्ता में रहते हुए पायलट को अपने विधायकों को फिर से जीत दिला पाना, लोहे के चने चबाने जैसा होगा।
वैसे भी भाजपा महज तीन साल के शासन के लिए अगले पांच साल के शासन को छोडना चाहेगी, ऐसा नहीं लगता। अगर भाजपा अभी सत्ता प्राप्त कर लेती है तो उसके खिलाफ ही अगले चुनाव में वापस स्वभाविक विरोध खडा हो जाएगा।
राजनीतिक कद बढेगा, अभी उम्र है
सचिन के पास सबसे बडी बात यह है कि उनके पास अभी उम्र है, वो जवान है और राजनीतिक मुकाम तक पहुंचने के लिए कुछ समय का संघर्ष करने की स्थिति में है। फिलहाल खिलाफत का बडा कारण यह भी है कि अगले तीन साल मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं और आने वाले चुनाव में फिर भाजपा की सरकार आ सकती है।
राजस्थान में एक एक बार सत्ता मिलने का क्रम रहा है। ऐसे में पायलट को 2028 तक मुख्यमंत्री पद का इंतजार करना पडेगा। वो भाजपा में रहकर केंद्र की राजनीति में भी जा सकते हैं, जहां उनके मित्र ज्योतिरादित्य सिंधिया पहले से हैं। ऐसे में पायलट को अपने साथी विधायकों के हितों के बारे में सोचना होगा, जो उनके कहने से विधायकी तक त्यागने के खतरे पर आ गए हैं।
सचिन का राजनीतिक कॅरियर दाव पर
कुल मिलाकर सचिन पायलट जैसे नेता का राजनीतिक कॅरियर अब दाव पर है। जिस सचिन को कांग्रेस का युवा तुर्क माना जाता था, कुछ लोग तो उन्हें कांग्रेस का अगला प्रधानमंत्री दावेदार तक देख रहे थे। ऐसे नेता को फिर से राजनीतिक लडाई लडनी पडे तो सफलता और असफलता दोनों का खतरा रहता है।
सचिन के साथ ही यह खतरा बना हुआ है। अगर वो सफल नहीं हुए तो राजनीति के हाशिये पर चले जाते है । राजनीति में कई दिग्गज ऐसे ही दरकिनार हुए हैं, जिन्हें आज कोई नहीं पूछ रहा। खुद भाजपा के संस्थापक लालकृष्ण आडवाणी के हालात को लेकर आम आदमी कहता है कि उन्हें समय पर कुछ नहीं मिला, संघर्ष का लाभ नहीं मिला। सत्ता आई तो अटलबिहारी प्रधानमंत्री बन गए और महामहिम बनने का वक्त आया तो अपनो ने किनारे कर दिया।
बिना पायलट कांग्रेस का विमान कैसे उडेगा
यह सवाल भी अब अहम हो गया है कि राजस्थान में बिना पायलट के कांग्रेस का विमान कैसे उडेगा। यह तय है कि पायलट के नहीं होने से कांगे्रेस को भारी नुकसान होने वाला है। प्रदेश की 49 सीटों पर सचिन पायलट का दबदबा है। सचिन पायलट के नहीं रहने से गुर्जर व मीणा के वोट खिसक सकते हैं।
अशोक गहलोत पर अब तक सिर्फ जाट विरोधी होने का ठप्पा रहा है लेकिन अब जाट के साथ गुर्जर व मीणा भी उनके खिलाफ हो सकते हैं। हालांकि एक जाट को ही प्रदेशाध्यक्ष बनाकर पार्टी ने छवि सुधारने की कोशिश की है लेकिन अभी गोविन्द सिंह डोटासरा के दम पर राजस्थान की दो सौ सीटों पर लडने का भरोसा करना बेमानी है। निसंदेह नए प्रदेशाध्यक्ष में गजब का आकर्षण और जज्बा है लेकिन उन्हें पार्टी स्तर पर व्यवस्था को समझने में वक्त लगेगा। ऐसे में निकाय चुनावों में गहलोत के कंधे से कंधा मिलाकर ही काम करना होगा। कंधा टकराने से स्थिति बिगड सकती है।