रामदेव जैसे दसियों हजार करोड़ के कारोबारी को खुद हर किस्म की बकवास करना जायज लगता है, लेकिन अपने खिलाफ बने कार्टून जिसे विचलित कर देते हैं, ऐसे लोकतंत्र का अब वही भगवान मालिक है, जिस मुल्क में कार्टूनिस्ट की जगह नहीं है, उस मुल्क में लोकतंत्र की जगह भी नहीं है।
रामदेव नाम के देश के एक सबसे विवादास्पद कारोबारी की ओर से उनकी दुकान के कर्मचारियों ने दो कार्टूनिस्टों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है। गजेन्द्र रावत, और हेमंत मालवीय के खिलाफ उत्तराखंड पुलिस में शिकायत की गई है कि इन्होंने अश्लील पोस्टर बनाकर सोशल मीडिया पर फैलाकर योग गुरू की छवि खराब की है, और धार्मिक भावनाओं को भडक़ाया है।
भाजपा सरकार की पुलिस ने एक गैरजमानती धारा में जुर्म दर्ज करके इन दोनों कार्टूनिस्टों की तलाश शुरू कर दी है। इनमें से एक कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा है कि रामदेव जैसे ताकतवर बाबा के वकीलों का मुकाबला करने की उनकी ताकत नहीं है, और पुलिस जब चाहे वे समर्पण कर देंगे।
उन्होंने यह भी लिखा है कि 70 के दशक में उनके पिता भी ऐसे ही कार्टूनिस्ट थे, कार्टूनों में उनके सवाल भी ऐसे तीखे होते थे, वे ऐसे करारे कटाक्ष करते थे, वे एक छोटे से अखबार में छपते थे, तब भी जब आपातकाल था, लेकिन उस वक्त भी किसी ने उन पर मुकदमा नहीं किया।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब बर्दाश्त खो चुका है। अब जिसके हाथ जिस राज्य की पुलिस है, उसकी सोच पुलिस का कानून बन जाती है। अब अखबारनवीसी करने वाले लोगों को सरकारें तरह-तरह की साजिश गढक़र एक के बाद दूसरे मुकदमों में उलझाकर एक में जमानत के पहले दूसरे में गिरफ्तारी करके लोगों की जिंदगी के कई बरस बिना जमानत खत्म कर देने का काम कर रही हैं।
लेखक, पत्रकार, कार्टूनिस्ट, और सामाजिक आंदोलनकारी बिना बेल महज जेल की रणनीति से खत्म किए जा रहे हैं। और ऐसी साजिश में कई किस्म की विचारधाराओं की सरकारें शामिल हैं। भाजपा तो सबसे आगे है ही, लेकिन ममता बैनर्जी की सरकार ने भी कम कार्टूनिस्टों को गिरफ्तार नहीं किया है, और दूसरे कई प्रदेशों में भी दूसरे किस्म से वैचारिक लड़ाई लडऩे वालों को पुलिस की ताकत से शिकस्त दी गई है।
अब सोशल मीडिया पर असहमति को जिंदा रखने वाले कार्टूनिस्टों की बारी आई है, और यह बात बिल्कुल साफ है कि सरकारों की ताकत के सामने, और अदालतों में दौलतमंद शिकायतकर्ताओं के सामने एक कलम और ब्रश से लैस कार्टूनिस्ट की औकात ही क्या है।
मैं पहले भी सोशल मीडिया पर कई बार यह बात लिख चुका हूं कि किसी देश में लोकतंत्र का पैमाना बड़ा आसान होता है। वहां राजनीतिक कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट को जितनी आजादी रहती है, बस उतनी ही आजादी देश में रहती है। मैं खुद अपने अखबार के लिए आए दिन पिक्सटून बनाते रहता हूं, चूंकि स्केचिंग नहीं आती, इसलिए पहले से छपी हुई कुछ तस्वीरों के नीचे अपनी बात जोडक़र पिक्सटून बनाकर अखबार और सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहता हूं।
अब ऐसे कार्टून बनाने की वजह से पता नहीं कार्टूनिस्ट का दर्जा मिले या नहीं, लेकिन एक कार्टूनिस्ट पर जिस तरह का खतरा आज मंडरा रहा है, वह खतरा कभी-कभी महसूस होता है। फेसबुक की मेहरबानी से हर दिन पिछले बरसों में उसी तारीख पर पोस्ट की गई चीजें दुबारा सामने आती हैं, और सच तो यह है कि दस-बारह बरस पहले, यूपीए सरकार के वक्त सरकार के खिलाफ बनाए गए जितने पिक्सटून अभी सामने आते हैं, वे हैरान करते हैं कि दस-बारह बरस पहले ही इस देश में खतरे के किसी अहसास के बिना आराम से सरकार के खिलाफ कितना भी आक्रामक लिखा जा सकता था। आज तो शायद ऐसा कुछ लिखने पर सरकारों के कई किस्म के बुलडोजर रवाना हो जाएंगे।
अब सवाल यह है कि जो लोग असहमति को सोशल मीडिया पर जिंदा रख रहे हैं, उन्हें अगर पैसों की ताकत से, बड़े-बड़े महंगे वकीलों की सेवाएं लेकर अदालत तक घसीटा जाएगा तो असहमति कब तक जिंदा रह सकेगी? हर किसी के सामने गांधी और भगतसिंह की मिसालें रखना भी ठीक नहीं है, इनमें से एक ने अपने आपको पारिवारिक जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था, और दूसरे की तो फांसी के दिन तक परिवार बनाने की उम्र ही नहीं हुई थी।
लेकिन आज जो लोग असहमति की बात उठाना चाहते हैं, जिनका मीडिया का कोई छोटा सा कारोबार है, या जो लोग सोशल मीडिया पर अपनी बात लिखते हैं, उनको कुचलने के लिए सरकार और अदालत इन दोनों की ताकत का मिलाजुला इस्तेमाल किया जाएगा, तो असहमति कितने वक्त तक जिंदा रह पाएगी?
दुनिया के सभ्य और विकसित लोकतंत्र असहमति पर जिंदा रहते हैं, उनसे सीखते हैं, उनकी इज्जत करते हैं। और कार्टून तो अभिव्यक्ति की एक ऐसी स्वतंत्रता है कि जिसका इस्तेमाल नेहरू की पूरी जिंदगी नेहरू के खिलाफ होते ही रहा, लेकिन उन्होंने ऐसे हर आलोचक-कार्टूनिस्ट का हौसला ही बढ़ाया।
इमरजेंसी के दौर को छोड़ दें, तो इंदिरा ने अपने खिलाफ बने किसी कार्टून पर कोई कार्रवाई नहीं की, राजीव गांधी से लेकर राहुल गांधी तक अनगिनत कार्टून उनके नौसिखिया होने से लेकर उनके पप्पू होने तक के बनाए जाते रहे, राहुल गांधी को आज भी खिलौनों से खेलता बच्चा दिखाया जाता है, लेकिन इनके मुंह से कभी किसी कार्टूनिस्ट के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुना गया। सच तो यह है कि लोकतंत्रों में कार्टून की मार सरकार पर होनी चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में आज यह सिर्फ विपक्ष के लिए इस्तेमाल होते दिखती है, यह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के हाल का एक सुबूत भी है।
ऐसे में अडानी-अंबानी की तरफ से मीडिया को सौ-सौ करोड़ रूपये के मानहानि के नोटिस दिए जाते हैं, रामदेव जैसे दसियों हजार करोड़ के कारोबारी को खुद हर किस्म की बकवास करना जायज लगता है, लेकिन अपने खिलाफ बने कार्टून जिसे विचलित कर देते हैं, ऐसे लोकतंत्र का अब वही भगवान मालिक है जिसे आज देश की सरकार अपनी पूरी ताकत से स्थापित करने में लगी हुई है। जिस मुल्क में कार्टूनिस्ट की जगह नहीं है, उस मुल्क में लोकतंत्र की जगह भी नहीं है।
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