सुनील कुमार (संपादक, डेली छत्तीसगढ़ )
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की लिखी एक किताब उनके गुजर जाने के बाद अब छपकर आ रही है, और किसी भी लेखक-प्रकाशक की बाजार की रणनीति के मुताबिक इस किताब के चुनिंदा हिस्से मीडिया में जारी किए जा रहे हैं जो कि खबर बनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं, और खबरों के पाठकों को एक संभावित ग्राहक के रूप में तैयार कर रहे हैं।
प्रणब मुखर्जी का बहुत लंबा राजनीतिक जीवन केन्द्र सरकार और भारत की राजनीति की धुरी के इर्द-गिर्द इतना महत्वपूर्ण रहा है कि उनके मुकाबले कोई दूसरा नाम याद नहीं पड़ता। किसी भी पार्टी में प्रणब मुखर्जी जितने महत्वपूर्ण किसी दूसरे नेता की याद नहीं पड़ती। यूपीए सरकार के समय तो एक वक्त ऐसा था जब प्रणब मुखर्जी 50 से अधिक अलग-अलग मंत्री-समूहों के मुखिया थे।
वे प्रधानमंत्री तो नहीं थे, लेकिन प्रधानमंत्री के तुरंत बाद सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति जरूर थे। प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी, राजीव, नरसिंहराव, सोनिया, मनमोहन और राहुल गांधी के साथ सरकार और पार्टी में लंबा काम किया था, और पिछली करीब आधी सदी के भारत के राजनीतिक इतिहास के वे एक प्रमुख किरदार थे।
वे इंदिरा गांधी के समय से संसद में रहे, और उनके साथ मंत्रिमंडल में भी रहे। इसलिए उनकी लिखी बातें भारत की समकालीन राजनीति और सरकार की बड़ी अहमियत वाली बातें हैं। इनमें बहुत सी बातें ऐसी होंगी जो गुजर चुके लोगों के बारे में होंगी, लेकिन जब भी कोई इतिहास लिखा जाता है, उसके बहुत से किरदार तो गुजर ही चुके रहते हैं।
सार्वजनिक जीवन में जिन लोगों ने भी लंबा काम किया है, उनकी यह सामाजिक और सार्वजनिक जवाबदेही होती है कि अपने इर्द-गिर्द का इतिहास लिखकर जाएं। कुछ सरकारी ओहदे ऐसे होते हैं जो ऐसा कुछ लिखने पर कानूनी रोक लगाते हैं, लेकिन उनसे परे के लोगों को समाज के प्रति अपनी यह जिम्मेदारी जरूर पूरी करनी चाहिए।
बंद कमरों के बीच की बहुत सी बातचीत और बहुत से फैसले ऐसी किताबों के रास्ते ही सामने आते हैं। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले एक किताब खूब खबरों में आई थी जब मौलाना अबुल कलाम आजाद की आत्मकथा का एक सीलबंद हिस्सा अदालती दखल के बाद खोला गया था।
मौलाना ने ही 30 पेज का यह हिस्सा प्रकाशक को नहीं दिया था, और सीलबंद करके रखा था कि इन्हें उनकी मौत के 30 बरस बाद खोला जाए। इन पन्नों पर आजादी और विभाजन के दौर का वह हिस्सा था जिसमें वे पटेल और नेहरू सरीखे अपने साथियों के लिए भी आलोचक थे।
अबुल कलाम आजाद इन सीलबंद पन्नों को इस शर्त के साथ छोड़ गए थे कि उन्हें मौत के 30 बरस बाद प्रकाशित किया जाए। मौलाना की लिखी बातें सामने आने पर कई लोग उनसे असहमत रहे, और यह माना गया कि उन्होंने 1950 के दशक की लीडरशिप को बदनाम करने का काम किया है।
अभी-अभी कुछ हफ्ते पहले भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के संस्मरणों की एक किताब आई है जिसमें राहुल गांधी के बारे में कुछ आलोचनात्मक बातें हैं। उन्हीं से भडक़कर कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर डाली। लेकिन दो दिनों के भीतर प्रकाशक के जारी किए हुए एक दूसरे हिस्से में ओबामा नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते दिख रहे हैं।
हमारा यह मानना है कि महत्वपूर्ण सार्वजनिक जगहों पर रहने वाले लोगों को अपने संस्मरण लिखकर जाना चाहिए ताकि लोग इतिहास के उस दौर को उनके नजरिये से, उनकी कही बातों के रास्ते देख और समझ सकें। उनका लिखा हुआ सच है या झूठ है, इसे तय करने का काम उस दौर के दूसरे लोग अपने लिखे हुए में कर सकते हैं, लेकिन बहुत सी बातें ऐसे लेखन से ही सामने आती हैं।
आपातकाल से लेकर वी.पी. सिंह की सुनामी तक, और फिर नरसिंह राव के ताकतवर मंत्री से लेकर भाजपा जाने तक का अपना राजनीतिक इतिहास विद्याचरण शुक्ल छोडक़र जाना चाहते थे, लेकिन उनके लिखने की बस तैयारी ही तैयारी चलती रही, वे लिखना शुरू भी नहीं कर पाए, और बस्तर के नक्सल-हमले में दूसरे बहुत से कांग्रेस नेताओं के साथ शहीद हो गए।
उनके पास के दस्तावेज, उनकी बातें अब कभी सामने नहीं आ पाएंगे। संस्मरण और आत्मकथा लिखना, समकालीन इतिहास लिखना एक हौसले की बात भी होती है क्योंकि उसमें कई लोगों को नाराज करने वाला सच भी रहता है, और झूठ लिखने पर उसके उजागर होने का खतरा भी रहता है।
ऐसी किताबों से प्रकाशकों का कारोबार तो चलता ही है, लेकिन यह घटनाओं के पात्र का लिखा इतिहास रहता है जो कि पेशेवर इतिहासकारों से अलग रहता है, और इसीलिए एक अलग महत्व का भी रहता है। प्रणब मुखर्जी की लिखी बातों के टुकड़े अलग-अलग लोगों को खुश और नाराज कर सकते हैं, लेकिन उनका लिखा हुआ आज के राजनीतिक संस्मरण लेखन में एक सबसे महत्वपूर्ण लेखन है, और इससे पिछली आधी सदी की भारतीय राजनीति, और सरकार को बेहतर समझने में आसानी होगी। बाकी नेताओं और दूसरे प्रमुख लोगों को भी लिखने का हौसला जुटाना चाहिए।
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