पंकज मुकाती (Editor, Politicwala )
लोकसभा चुनाव का पर्व चल रहा है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों की तासीर एक सी है। राजनीतिक तासीर और मतदाताओं का मिज़ाज़। वैसे तो मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग हुए 23 साल हो गए। पर चुनावी परिणाम दोनों राज्यों के लगभग एक से रहे। पिछले लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिये।
मध्यप्रदेश की 29 में से 28 सीटें बीजेपी ने जीती। कांग्रेस सिर्फ एक सीट छिंदवाड़ा जीत सकी। ऐसा ही परिणाम छत्तीसगढ़ का भी रहा। छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीट में से 09 बीजेपी ने जीती। कांग्रेस सिर्फ दो सीट जीत सकी। ऐसे ही परिणाम विधानसभा में भी रहे। 2003 से 2018 तक दोनों राज्यों में बीजेपी की सरकार रही।
2018 में दोनों राज्यों में जनता ने एक सा फैसला दिया। दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी। 2023 में फिर दोनों राज्यों में एक से परिणाम आये।दोनों ही राज्यों में बीजेपी में वापसी की। इसे एक संयोग नहीं कहा जा सकता ये दोनों राज्यों के मतदाताओं की एक सी सोच है। एक ऐसी सोच जो जमीनी विभाजन, नक़्शे पर विभाजन की रेखायें खींच जाने के बावजूद दोनों एक से ट्रेंड पर है।
अब बात करते हैं, मौजूदा परिदृश्य पर। दोनों ही राज्यों में बीजेपी ने प्रचंड बहुमत से विधानसभा चुनाव जीता है। जाहिर है इससे बीजेपी बढ़त पर दिखाई दे रही है। हालांकि पिछली बार 2018 के विधानसभा चुनाव में दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी थीं, पर लोकसभा चुनाव में जनता ने बीजेपी को ही चुना था।
एक तरह से राज्य के चुनाव में वे कांग्रेस के साथ रहे तो केंद्र में बीजेपी के साथ। यानी मोदी के साथ। इस बार 2023 के चुनाव में तो दोनों ही राज्यों में विधानसभा चुनाव में जनता ने बीजेपी को चुना है। ऐसे में ये माना जा सकता है कि लोकसभा के चुनाव में मतदाताओं के मिज़ाज़ में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा।
सिर्फ छह महीने के अंतराल में राजनीतिक मिज़ाज़ बदलते भी नहीं। बीजेपी ने मध्यप्रदेश में 29 से पूरी 29 सीट जीतने का अभियान छेड़ रखा है। इसके लिए वो हर स्तर पर तैनात है। 29 सीट का मनोवैज्ञानिक माहौल कुछ ऐसा बीजेपी ने खड़ा कर लिया है कि आम मतदाता से लेकर कांग्रेस के बड़े नेता और कार्यकर्त्ता भी ऐसा ही सोचने, देखने लगे हैं।
कांग्रेस के एक बड़े नेता से जब मैंने पूछा आप कोई बड़ा अभियान नहीं चला रहे।उनका जवाब पूरे चुनाव की कहानी खुद कह रहा है – वे बोले, देखिये, अभी ऊर्जा लगाने का कोई मतलब नहीं है। सारी कोशिश मई के बाद करेंगे। यानी की कांग्रेस का प्रदेश संगठन भी ये मान रहा है कि वो बीजेपी से नहीं जीत सकेगा। कुछ ऐसा ही बिखराव छत्तीसगढ़ में भी है। दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव केपहले तक ये माहौल था कि कांग्रेस बहुमत से सत्ता आ रही है।
इस माहौल ने बीजेपी को सचेत किया वो जमीनी स्तर पर काम करने लगी। कांग्रेस मंत्रिमंडल बनाने में जुट गई। इस अति आत्मविश्वास के चलते कांग्रेस ने आती दिख रही सत्ता गंवा दी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रामेश्वर नीखरा ने कहा कि इस हार का कारण ओवरकॉन्फिडेंस है। इस बार जो माहौल है उसमे कांग्रेस का low cofidenc साफ़ दिख रहा है।
राजनीति में जो दिखता है, वैसा ही होगा ये नहीं कहा जा सकता। तमाम जमीनी रिपोर्ट देखें तो ऐसा लगता है कि बीजेपी के लिए मध्यप्रदेश में पूरी 29 सीटें जीतना आसान नहीं है। खुद बीजेपी भी इसे स्वीकार रही है। यही कारण है कि उसने प्रदेश में एक न्यू जॉइनिंग कमिटी ही बना दी। इसके मुखिया है पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा। आखिर इस कमिटी के जरुरत क्यों पड़ी ?
जाहिर है, बीजेपी वोट पाने के हर कोने पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है। मिश्रा के इस बयान से पूरी कहानी को समझिये – मध्यप्रदेश में अब तक 16000 से ज्यादा कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता बीजेपी में शामिल हो गए हैं। इन सबको बीजेपी की नीति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटी पर भरोसा है। इसमें कोई शक नहीं है कि प्रदेश के कई बड़े नेता बीजेपी के पाले में खड़े हैं।
इसमें पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के सबसे करीबी लोगों की संख्या सर्वाधिक है। दो दिन पहले ही छिंदवाड़ा से दीपक सक्सेना ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। दीपक सक्सेना कमलनाथ के साथ शैडो की तरह रहे। पिछले चालीस साल से वे कमलनाथ चालीसा पढ़ रहे हैं। दीपक सक्सेना ने कांग्रेस छोड़ी और उनके बेटे ने बीजेपी का भगवा भी ओढ़ लिया।
दीपक सक्सेना की बात इसलिए जरुरी है क्योंकि ये वो शख्स है जिसने 2018 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उपचुनाव के लिए कमलनाथ के लिए अपनी विधायकी छोड़ दी थी। कमलनाथ दीपक सक्सेना की सीट से ही जीते और मुख्यमंत्री बने रहे। आखिर इतने करीबी आदमी ने क्यों कांग्रेस और नाथ का साथ छोड़ दिया। कमलनाथ के एक और करीबी सैयद जाफर भी बीजेपी में चले गए। ये एक ऐसी रणनीति ने जिसने ये माहौल खड़ा कर दिया कि इस बार एक मात्र छिंदवाड़ा सीट भी बीजेपी जीत लेगी।
बड़ी संख्या में नेता, कार्यकर्ताओं के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस चुनाव की तैयारी कर ही नहीं पा रही। उसका संगठन प्रतिदिन सिर्फ बीजेपी ऑफिस की तरफ ही ताकता रहता है कि आज कौन नेता पंजा छोड़कर कमल थाम रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस इस सबमे इतना पिछड़ चुकी है कि 18 सीटों पर अभी तक प्रत्याशी तय नहीं कर पाई है।
उसके कई नेता चुनाव लड़ने से इंकार कर रहे हैं। कुछ नेता जो टिकट के पेनल में थे, वो पार्टी ही छोड़ गए। कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी एक साथ कई मोर्चो पर जूझ रहे हैं। वे न तो संगठन की टीम बना पा रहे हैं न ही चुनाव की योजना। बावजूद इस सबके पिछले विधानसभा चुनाव में कॉग्रेस की सीटें भले कम हुई पर उसका वोट प्रतिशत बना हुआ है। यानी अभी भी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। 29 सीटें बीजेपी जीत ही जायेगी ये दावे से नहीं कहा जा सकता।
आदिवासी सीटों पर कांग्रेस का वोट अभी भी ठीक ठाक बना हुआ है। बहुत संभव है कांग्रेस तीन सीटें जीत ले। इससे उसके संगठन को ताकत मिलेगी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस संगठन में मध्यप्रदेश जैसा बिखराव नहीं है। छत्तीसगढ में भी कांग्रेस अपनी पिछली बार की दो सीट की संख्या बढ़ा ले तो बहुत आश्चर्य नहीं। राम मंदिर का मुद्दा इस चुनाव में बहुत असर दिखायेगा ऐसा नहीं है। हां, मोदी गारंटी जरूर अभी भी बड़े वर्ग को रोके हुए है। लोगो का मोदी के प्रति भरोसा बना हुआ है।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस, बीजेपी दोनों में ही परिणाम पहले से बदले हुए नजर आ सकते हैं। इसका कारण दोनों पार्टियों ने अपने चेहरे बदले हैं। बीजेपी ने 18 साल से सत्ता का चेहरा बने मामाजी को किनारे कर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया है। कांग्रेस ने भी बरसो से जमे दिग्विजय-कमलनाथ को किनारे कर युवा और ऊर्जावान जीतू पटवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।
पटवारी भले आज बगावत का सामना कर हैं पर उन्होंने जिस ढंग से युवाओं को टिकट देने के पैरवी की है वो आने वाले वक्त में कांग्रेस की नई लीडरशिप को आगे लाएगा। मालवा की चर्चित धार सीट से कांग्रेस ने युवा राधेश्याम मुवेल को उतारकर ये साफ़ कर दिया है कि पार्टी बदलाव से पीछे नहीं हटेगी।
अभी 18 सीटों पर भी कुछ युवा चेहरे आएंगे। ऐसे में कांग्रेस कुछ सीटों पर उलटफेर कर सकती है। बीजेपी और कांग्रेस में एक ही सबसे बड़ा अंतर है। बीजेपी में बड़े नेता ने बगावत नहीं की, कांग्रेस में तो खुद कमलनाथ दिल्ली दर्शन करके खाली हाथ लौट आये। शिवराज जो मामा, भैया बने हुए हैं उनके चेहरे के बिना पार्टी दो दशक बाद चुनावी मैदान में है। खुद शिवराज रात दिन संगठन के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। वे नेतृत्व भले ने कर रहे हों पर चेहरा बने हुए हैं।
बीजेपी का संगठन इतना गहरा है कि चेहरे की राजनीति उस पर असर नहीं डालती है। इसके विपरीत कांग्रेस में कमलनाथ के करीबी लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं। छत्तीसग़ढ में रमन सिंह पांच साल से सरकार न होने के कारण वैसे भी चेहरा नहीं थे. अब वे विधानसभा में स्पीकर बन गए हैं। मुख्यमंत्री विष्णु दे साय ने आदिवासी नेतृत्व के तौर पर पैठ बनाई है। ऐसे में शिवराज या रमन सिंह के चेहरा न होने से बीजेपी को कोई नहीं पड़ेगा। बीजेपी में अभी भी सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का ये चुनाव भी अकेले नरेंद्र मोदी सामने पूरी कांग्रेस वाला ही साबित होगा। यानी ये लोकसभा चुनाव चेहरे और मोहरे की लड़ाई ही दिख रहा है।