सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में एक गांव के भूतपूर्व उपसरपंच को गांव की ही एक भीड़ ने उसी के घर में जिंदा जला दिया क्योंकि उन्हें शक था कि गांव के एक व्यक्ति की सरहदी मध्यप्रदेश में लाश टंगी हुई मिली थी, और वह आत्महत्या न होकर इस भूतपूर्व उपसरपंच की करवाई हुई हत्या थी। भीड़ ने उपसरपंच को उसी के घर के भीतर घेरकर, बांधकर घर सहित जिंदा जला दिया था, घर की कुछ महिलाओं को किसी तरह बचाकर निकाला गया था। अब छत्तीसगढ़ की ही दो और खबरें दो दिनों में दहलाने वाली आई हैं। रायगढ़ जिले के एक गांव में धान चोरी के शक में आरोप लगाते हुए एक आदमी को खंभे से बांधकर इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई। और धमतरी जिले के एक गांव में एक नौजवान के घर आदमी-औरत आधी रात के बाद लाठी-डंडों से लैस होकर पहुंचे, और उसे उस पर धान चोरी का आरोप लगाया, और उसे बाहर ले जाकर सुबह तक पीटा गया। मरने वाले नौजवान का बाप गिड़गिड़ाते रहा, कोटवार ने भी उसे छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी भगा दिया गया। इस मामले में सामने आया है कि सरपंच की मौजूदगी में इस युुवक को पीट-पीटकर मारा गया। जब जी-भरकर मारकर यह टोली चली गई, तब पिता और दूसरे लोग इस जख्मी युवक को अस्पताल ले गए, अस्पताल के रास्ते उसकी मौत हो गई।
जिन लोगों को ये घटनाएं मामूली हिंसा लगती हैं, उन्हें अपनी खैरियत की फिक्र करनी चाहिए। इन तीनों ही मामलों में मारने वाले लोग पेशेवर मुजरिम न होकर आम लोग थे, और उन्होंने यह सोचते-समझते यह हिंसा की कि इसमें मौत हो सकती है, या मार डालने के लिए ही उन्होंने इस हद तक पीटा। दोनों ही मामलों में धान चोरी का आरोप था, और यह जाहिर है कि कोई एक इंसान भला कितनी धान चोरी कर सकता है। और इतनी सी बात को लेकर अगर खुली जगह पर सबके सामने ऐसी भीड़त्या की जाती है, तो यह मामला एक जान जाने से अधिक फिक्र का इसलिए है कि गैरमुजरिम लोगों के मुंह ऐसे कत्ल का खून लग चुका है। मुजरिम अगर कत्ल करें, सुपारी लेकर किसी को मारें, या आपसी गैंगवार में किसी को खत्म करें, तो भी वह उतनी बड़ी फिक्र की वजह नहीं रहती है क्योंकि ऐसे मुजरिम या गुंडे-बदमाश पहले से लोगों और पुलिस की नजरों में रहते हैं। लेकिन जब आम लोग कत्ल करने लगें, तो वह अधिक फिक्र की बात रहती है।
किसी देश या समाज में जब धर्म या जाति के नाम पर, या राजनीतिक मुकाबले और दुश्मनी में लोगों का कत्ल करना शुरू हो जाता है, तो जहां-जहां तक ऐसी खबरें पहुंचती हैं लोगों के भीतर वह आदिम हिंसा जागने लगती है जिसे कि हजारों बरस के सभ्यता के विकास ने, और पौन सदी के लोकतंत्र ने कुछ हद तक सुलाया हुआ था। लोकतंत्र के पहले भी अलग-अलग युगों में अलग-अलग किस्म की राज व्यवस्था, और न्याय व्यवस्था थी, और लोगों का खुद सजा दे देना, कत्ल कर देना, सभ्यता के विकास के साथ घटता चला गया था। अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं में भी लोगों का सीधे हिसाब चुकता करना बंद या खत्म हो चुका था, और उन्हें राजा के पास शिकायत लेकर जाना पड़ता था, और वहां सजा होती थी। भारत में पिछली पौन सदी में एक बहुत साफ-साफ लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था विकसित और स्थापित हुई है जिसमें जनता या भीड़ को इंसाफ करने की कोई भूमिका नहीं दी गई है। ऐसे में अगर मामूली से धान की चोरी के आरोप में गैरमुजरिम लोगों की भीड़ भी पीट-पीटकर किसी को मार डाल रही है, तो लोगों के बीच यह देश के कानून के लिए, प्रदेश की पुलिस व्यवस्था के लिए एक बड़ी गहरी हिकारत के अलावा और कुछ नहीं है।
लोगों को इस बात का अच्छी तरह अंदाज और अहसास है कि कत्ल करने पर क्या होता है। आज के वक्त तकरीबन तमाम कातिल पकड़ लिए जाते हैं, फिर चाहे वे दूसरे प्रदेशों से आए हुए पेशेवर शूटर ही क्यों न हों। ऐसे में अपने इलाके में सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच की गई सामूहिक हत्या के बारे में लोगों को अच्छी तरह अंदाज होगा कि इससे जेल जाने का बहुत बड़ा खतरा रहेगा, और उम्रकैद जैसी सजा भी हो सकेगी। इसके बाद भी अगर भीड़ इस तरह की हिंसा करती है, और एक मामले में तो घरेलू महिलाएं भी इस हिंसा में शामिल थीं, तो यह साधारण लोगों के इस बुरी तरह हिंसक हो जाने का एक खतरनाक सुबूत है। जब घर-परिवार के भीतर लोग बलात्कार करने लगें, जब स्कूल के शिक्षक, हेडमास्टर, और प्रिंसिपल ही छात्रा से बलात्कार करने लगें, जब बेटियां ही अपने प्रेमी के साथ मिलकर मां-बाप का कत्ल करवाने लगें, जब बीवी प्रेमी के साथ मिलकर पति का कत्ल करवाने लगें, तो यह समाज में कानून के राज के लिए बड़ी हिकारत, और सजा के डर से आजादी का साफ मामला है।
जब देश में कुछ ताकतें धार्मिक आधार पर इस तरह की भीड़त्या का अभिनंदन करती हैं, कुछ ताकतें जातियों के आधार पर ऐसे कत्ल को जायज ठहराती हैं, तो फिर कातिल सोच का संक्रमण खबरों के साथ-साथ दूर-दूर तक फैलता है, और बाकी आम लोगों को भी ऐसे कत्ल का हौसला देता है, उकसावा देता है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि हर समाज में नाबालिगों की पीढ़ी को भी अपने आसपास के बालिग लोगों के ऐसे सार्वजनिक और सामूहिक जुर्म से एक राह सूझती है, और हमने देखा है कि आसपास चारों तरफ नाबालिग लडक़े रेप और गैंगरेप कर रहे हैं, कत्ल कर रहे हैं। हिंसा का संक्रमण कानून के सम्मान को पूरी तरह खत्म करते चल रहा है। नतीजा यह निकल रहा है कि समाज में जो लोग आसपास के लोगों को गलत काम करने से रोक सकते थे, रोकते थे, वे भी अब दूसरों के हाथों में चाकू, या जेब में पिस्तौल की कल्पना करते हुए अपनी अतडिय़ों पर हाथ रखते हुए सहमे हुए चुप रह जाते हैं, और समाज में रोक-टोक की सामूहिक जिम्मेदारी भी खत्म हो रही है। अब कम ही लोगों का हौसला बीच-बचाव करने का, या गुंडागर्दी को रोकने का रह गया है।
इस नौबत को सुधारना तो तुरंत मुमकिन नहीं है, लेकिन इसे और अधिक बिगडऩे देने से रोकने के लिए यह जरूरी है कि समाज में धर्म, राजनीति, जाति, किसी भी आधार पर हिंसा को मान्यता देना बंद किया जाए। अभी चार दिन पहले ही बीबीसी पर एक रिपोर्ट आई थी कि किस तरह बंगाल में राजनीतिक पार्टियों के बीच टकराव में इस्तेमाल होने वाले घरों में बने हुए बम टकराव के बाद खुले में पड़े रह जाते हैं, और वहां पिछले तीन दशकों में इनसे खेलते हुए या इनसे टकराकर 565 बच्चे या तो मारे गए हैं, या घायल हुए हैं। बंगाल की राजनीति में बमबारी की ऐसी हिंसा बढ़ते-बढ़ते अब आम हो चुकी है। देश में भीड़त्या को इसी तरह आम नहीं होने देना चाहिए।