हिन्दुस्तान में धार्मिक भावनाओं को लेकर नौबत ऐसी खतरनाक मानी जाती है कि इस्लाम से जुड़े कुछ लोगों को नाराज कर सकने वाली सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेज को हिन्दुस्तान ने तब प्रतिबंधित कर दिया था जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश ने भी ऐसा नहीं किया था।
सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार )
देश के एक चर्चित और विवादास्पद कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की याचिकाओं की सुनवाई से मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने को अलग कर लिया है। 2020 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एक चर्चित और विवादास्पद टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी को जमानत दी थी, तब कुणाल कामरा ने जस्टिस चन्द्रचूड़ और सुप्रीम कोर्ट की खिल्ली उड़ाते हुए कई ट्वीट की थीं।
अभी जस्टिस चन्द्रचूड़ ने इसलिए अपने को अलग कर लिया क्योंकि अर्नब को जमानत देने वाली बेंच पर वे भी थे। आत्महत्या के लिए उकसाने के एक आरोप में अर्नब गोस्वामी को जिस आनन-फानन तरीके से सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली थी, उस पर कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम जोक ऑफ द कंट्री कहा था।
इसके अलावा कुणाल ने सुप्रीम कोर्ट की एक गढ़ी हुई तस्वीर पोस्ट की थी जिसमें अदालत की इमारत भगवा रंग की दिख रही है, और भाजपा का झंडा उस पर फहरा रहा है। इसके अलावा इस कॉमेडियन ने यह भी लिखा कि जस्टिस चन्द्रचूड़ उस एयरहोस्टेज की तरह हैं जो कि अर्नब को शैम्पेन परोस रहे हैं, और आम मुसाफिर इस इंतजार में हैं कि उन्हें प्लेन में चढऩे भी मिलेगा या नहीं।
इस पर जब आपत्ति की गई थी तो कुणाल कामरा ने माफी मांगने से इंकार कर दिया था और कहा था कि सुप्रीम कोर्ट का सम्मान उसके जैसे कॉमेडियन के ट्वीट से नहीं घटता, बल्कि इस संस्था के अपने कामों से घटता है।
जस्टिस चन्द्रचूड़ का अपने को अलग कर लेना तो ठीक है, लेकिन इससे अभी मुद्दे की बात धरी रह जाती है कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना क्या होती है? और अवमानना का यह कानून कितना जायज है?
लोगों को याद होगा कि बरसों पहले एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के कई जजों पर भ्रष्टाचार का खुला आरोप लगाया था, और बाद में इसकी अवमानना-सुनवाई भी हुई थी। पिता-पुत्र अपनी बात पर अड़े थे, और उन्होंने किसी भी तरह की माफी मांगने से इंकार कर दिया था।
जितना अभी याद पड़ता है उस मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कोई सजा सुनाने से परहेज किया, और वह मामला शायद अब तक ताक पर धरा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के बारे में उस वक्त भी ऐसी चर्चा रहती थी कि वे भ्रष्ट हैं, और चूंकि यह बयान देने वाले देश के दो दिग्गज वकील थे जो कि सार्वजनिक जीवन में भी पारदर्शिता के ऊंचे पैमानों को लेकर काम कर रहे थे, और जो अदालती जवाबदेही की मांग करते हुए लंबे समय से संघर्ष कर रहे थे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट उन्हें आम लोगों की तरह सजा नहीं दे पाया था। अब कुणाल कामरा के मामले से देश में यह भी तय होने जा रहा है कि व्यंग्य को लेकर भारतीय समाज में कितनी सहनशीलता हो सकती है, या नहीं हो सकती है?
दुनिया के अलग-अलग लोकतंत्रों में देश के प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति से लेकर वहां की संसद, अदालतें, वहां के धर्म, सभी को लेकर बर्दाश्त अलग-अलग तरह के रहते हैं। आज हिन्दुस्तान में जिस तरह आए दिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचने की शिकायत पर बहुत से राज्यों में जुर्म दर्ज हो रहे हैं, उसकी कल्पना भी अमरीका जैसे देश में नहीं की जा सकती जहां धर्मों को लेकर लोगों के अधिकार असीमित हैं।
हिन्दुस्तान में धार्मिक भावनाओं को लेकर नौबत ऐसी खतरनाक मानी जाती है कि इस्लाम से जुड़े कुछ लोगों को नाराज कर सकने वाली सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेज को हिन्दुस्तान ने तब प्रतिबंधित कर दिया था जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश ने भी ऐसा नहीं किया था।
देश में अदालतें धर्मालु लोगों से भी अधिक संवेदनशील हैं, और छोटी से लेकर सबसे बड़ी अदालत तक अपने आपको अवमानना के कानून की फौलादी ढाल से घेरकर बैठती हैं। यह बहस भी बहुत समय से चल रही है कि क्या न्यायपालिका की अवमानना का यह कानून खत्म होना चाहिए? लेकिन हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में जिस तबके को अपने सही या गलत कामों के बचाव के लिए जो कानून हाथ लग जाता है, उसे कोई छोडऩा नहीं चाहते। इसीलिए बात-बात में संसद या विधानसभा की अवमानना की बात उठने लगती है, और सदनों में विशेषाधिकार भंग का प्रस्ताव आने लगता है।
अब इसी एक मामले को लें जिसमें रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी की अंतरिम जमानत के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी। बहुत से लोगों का मानना है कि जिस रफ्तार से अर्नब गोस्वामी को जजों का वक्त पाने का मौका मिला था, वह असाधारण था, और सुप्रीम कोर्ट के सामने बहुत ही आम, दीनहीन या गरीब लोगों के मामले बरसों तक पड़े रहते हैं, लेकिन कुछ चुनिंदा ताकतवर लोगों के मामले बिजली की रफ्तार से अदालती आदेश पाते हैं।
ऐसा सिर्फ कुणाल कामरा का ही नहीं मानना है, बल्कि बहुत से लोगों का मानना है। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के बड़े-बड़े जज भी वकालत के कुछ सबसे बड़े नामों को सबसे पहले बहुत तेजी से सुनने को तैयार हो जाते हैं, और जिन लोगों में इतने बड़े वकीलों की फीस देने की ताकत रहती है, उन्हें जल्द सुनवाई की गारंटी सी हो जाती है।
सुप्रीम कोर्ट को देश में उसकी जो छवि बनी हुई है, उसे एकदम से अनदेखा भी नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र में हर बात अदालत के कटघरे से साबित नहीं की जा सकती, और सुबूतों के बिना भी लोग अपनी भावनाएं तरह-तरह से सामने रखते हैं। जनता के बीच, सोशल मीडिया पर, या अखबारों में लिखकर भी लोग जजों और न्यायपालिका के बारे में अपनी बात रखते हैं।
अभी-अभी देश के कानून मंत्री ने भी कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के तौर-तरीकों से असहमति भी जताई है, और आलोचना भी की है। इन सब बातों को देखते हुए यह लगता है कि अदालतें अपने आपको आलोचना से परे रखने के लिए अगर अवमानना के कानून के पीछे अपने को बचाकर रखेंगी, तो शायद वे अपना भी अधिक नुकसान करेंगी।
हो सकता है कि बहुत से लोगों को कुणाल कामरा के कहे हुए शब्द, और उनकी मिसालें जजों के लिए, अदालतों के लिए अपमानजनक लगें, लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि कुणाल कामरा के शब्दों से परे यही भावनाएं तो देश के और भी बहुत से लोगों की हैं। आलोचना कहां तक जायज है, और कहां उसे नाजायज या सजा के लायक मान लिया जाए, इसकी कोई सीमारेखा नहीं हो सकती, लोगों को अपने आपको व्यक्ति के रूप में, और एक संस्थान के रूप में लगातार तौलते रहना चाहिए कि उनकी आलोचना कितनी जायज है, और कितनी नाजायज।
हम एक अखबार के रूप में लोकतंत्र में आलोचना को अधिक दूर तक आजादी देने के हिमायती हैं, हमारा मानना है कि लोकतंत्र को असहमति के प्रति अधिक लचीला होना चाहिए, अदालतों को भी। हो सकता है कि जजों की आलोचना करते हुए एक कॉमेडियन ने अपने पेशेवर अंदाज में कुछ अधिक चुभती हुई बात कही हो, लेकिन इस पर भी हमारी राय यही रहेगी कि सुप्रीम कोर्ट जजों को बर्दाश्त बढ़ाना चाहिए, और इन आलोचनाओं पर गौर भी करना चाहिए कि क्या कुछ लोगों को सचमुच ही कुछ तरकीबों से जल्द सुनवाई हासिल हो जाती है?
यही सुप्रीम कोर्ट है जिसने अभी हाल के बरसों में ही एक दूसरे मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के खिलाफ उनकी मातहत एक महिला कर्मचारी की यौन शोषण की शिकायत की ऐसी सुनवाई दर्ज की थी जिसमें रंजन गोगोई खुद ही बेंच के मुखिया बनकर बैठे थे। अब अगर आरोपी ही जजों का मुखिया बनकर अपने खिलाफ आरोपों पर इंसाफ करने बैठे तो अदालत की इज्जत तो कम होनी ही थी। देश के किसी छोटे से सरकारी दफ्तर में भी अगर ऐसी शिकायत आई होती, तो क्या आरोपी अफसर को इसकी सुनवाई में बैठने का मौका मिला होता? सुप्रीम कोर्ट और देश की बाकी अदालतों को अपनी आलोचना से इतना अधिक परहेज नहीं करना चाहिए। व्यंग्य की जुबान बोलने वाले लोगों की भावनाओं को भी समझना चाहिए।