बीबीसी इंडिया के पूर्व संपादक निधीश त्यागी के पहलगाम हमले पर कुछ और तीखे सवाल
- रास्ता लंबा है. सब्र का. शिक्षा का. विचार का. रोजगार का. कारोबार का. प्यार का. पर जो दस साल में न हो सका, वह अभी और इन लोगों से कैसे होगा? ये पकौड़े और पंक्चर से ऊपर ही नहीं उठ पाए.
निधीश त्यागी
इस शोर में जो बातें अलक्षित रह गईं, कल उनमें से कुछ का जिक्र किया था. आज कुछ और जोड़े दे रहा हूँ. शायद थोड़ा शोर कम हो और रोशनी थोड़ी ज्यादा.
जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हो रहा है. कल पहलगाम की दुर्भाग्यपूर्ण आतंकवादी घटना सोशल मीडिया के रणबांकुरों के लिए वर्चुअल लिंचिंग का मौक़ा बन गई है. अब तो जिस तरह की बातें हमारे व्हाट्सएप ग्रुप, सोशल मीडिया के टिप्पणीकार करते हैं, जिनमें हमारे भाई लोग भी शामिल हैं, और रिश्तेदार भी और बहुत से ऐसे पत्रकार भी, जिनके साथ मैंने काम किया है, भावुकता की ओवरडोज़ का शिकार होकर सांप्रदायिक नफरत और हिंसा के तरफ़दार हो रहे हैं.
ये वे लोग हैं, जिन्हें उन लोगों पर शर्म नहीं आती है, जो बिलकिस बानो के बलात्कारियों को माला पहना रहे हैं, न गौरक्षा के नाम पर इंसानों के मारे जाने पर, न ही हमारे उन सड़कछाप नेताओं पर, जो खुलेआम भद्दी भाषा में बेतुके विचारों को करंसी दे रहे हैं, न ही बलात्कारी और हत्यारे बाबाओं को पैरोल मिलने पर और न ही एक फ्रॉड के शरबत जिहाद की बात करने पर.
पर आइये, थोड़ा शोर से बाहर निकलते हैं.इस घटना की एक पीड़िता बता रही है, कि धर्म पूछा और फिर गोली मार दी. पीड़िता के साथ सहानुभूति होनी ही चाहिए. उनका परिवार वहां छुट्टी मनाने गया था और किसे उम्मीद रही होगी कि वे अपने परिवार के सदस्यों को खोकर वहां से लौटेंगी. भयावह है. वह खासी परेशानी में यह सब कह रही थीं, अगर आपने भी वह वीडियो देखा हो तो. सदमे में, दुख में, विह्ववलता में. आतंकियों के निशाने पर हिंदू पुरुष सैलानी थे. औरतों और बच्चों को उन्होंने छोड़ दिया. वह परेशान थी, जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.
हालांकि मृतकों की सूची में मुसलमान नाम भी है. और, इन सैलानियों को बचाने, उन्हें वहां से सुरक्षित निकालने, अस्पताल में उनकी दवा-पट्टी करने, उन्हें अपने खच्चरों पर लादकर उस जगह से बाहर ले जाने वाले लोग कौन थे. कौन थे, जो इन सैलानियों की सलामती के लिए काम कर रहे थे. क्या वे भी आतंकवादी थे? क्या वे हिंदू थे? थोड़ा सोचने की बात है. हाल में जब कश्मीर में तूफान आया था, तो जिन लोगों ने अपने घर, इमारतें, पूजा स्थल खोल दिये थे, वे कौन लोग थे?
कश्मीर में जो लोग इस घटना के बाद मोमबत्तियां लेकर शांति मार्च निकाल रहे हैं, वे कौन हैं? प्रख्यात मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ की भारत की सांप्रदायिकता पर एक किताब है ‘कलर्स ऑफ वॉयलेंस.’ करीब तीस साल पहले आई थी. उसके आखिर में साध्वी ऋतंभरा के भड़काऊ भाषण का पैरा दर पैरा विश्लेषण था. इसमें ऋतंभरा ने पाकिस्तान से बात शुरू की, फिर भारत को महान बताया, फिर राष्ट्र और धर्म को लेकर मुसलमानों को दोयम साबित करने की कोशिश की, लोगों ने जय श्री राम के जयकारे लगाए, फिर वे मुसलमानों के लिए अपशब्दों पर आ गईं.फिर आपके और मेरे पड़ोस में रह रहे मुसलमान पर. हिंदू खतरे में आ गये. जय श्री राम के नारे लगने लगे. मस्जिद टूटी. मंदिर का रास्ता बना. आप 2025 के हिंदुस्तान को देख सकते हैं.
सरकार चाहती तो सोशल मीडिया पर चल रही बकवास को रोक सकती थी, जैसा कि वह थोड़ी-सी भी असुविधाजनक बात का रोना लेकर यूट्यूब और फेसबुक से खबरें, तथ्य, डॉक्यूमेंट्री हटवाने के लिए जान लगा देती है, पर उसने ऐसा नहीं किया. नरेन्द्र मोदी जिस तरह वक़्फ़ कानून पर बोलते हुए मुसलमान नौजवानों को पंक्चर बनाने वाला करार दे रहे थे, उसी तरीके से कह भी सकते थे कि आतंकवादी घटना है, गंभीर मामला है, इस बारे में बोलने से पहले थोड़ा विवेक का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, खास तौर पर हिंदुत्व ब्रिगेड को. वह शायद बेहतर सौग़ात-ए-मोदी होती. कोई भी ढंग का और ठीकठाक प्रधानमंत्री होता तो शायद ये करता. इस देश के बहुसंख्यक लोगों से तमीज़दार होने की अपील भी.
पर उनका पहला बयान ही ऐसा आया, जो गुस्से का था. अगर हम गुस्सा हो रहे हैं तो उसका मतलब ही है कि हम आतंकवादी एजेंडे को सफ़ल बना रहे हैं.
याद है मार्च, 2019 की वो घटना, जब न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में दो जगहों पर भीषण गोलीबारी हुई थी और हमले में 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे.जब पूरी दुनिया इसे इस्लामी आतंकवाद बता रही थी, तब उस देश की मुखिया, उनकी प्रधानमंत्री जेसिंडा अडर्न ने क्या किया था. वो हिजाब पहनकर पीड़ितों से मिलने गईं, मुसलमान महिलाओं और पुरुषों को गले लगाया. उन्होंने आतंकवाद पर धर्म का मुलम्मा नहीं चढ़ने दिया. उन्होंने दिखाया कि एक देश का मुखिया होना बहुत जिम्मेदारी का काम होता है. मुखिया का काम है कि उसका दिल बड़ा और नज़र साफ हो. और हमारे मुखिया क्या कर रहे हैं. बीजेपी के सोशल मीडिया पेज हमले की दिल दहला देने वाली तस्वीरों की जिबली इमेज बना रहे हैं. नेतागण गृहमंत्री के लिए लाल दरीचे बिछा रहे हैं.
मोदी जी बीच सऊदी दौरा तो ऐसे छोड़ कर आये कि आते ही आतंकवादियों की खटिया खड़ी होने ही वाली है. सोच, समझ, विचार, मीमांसा करना उनकी सरकार का चरित्र नहीं रहा है. करना तो ये चाहिए था कि सऊदी में ही उन्हें उन धर्मगुरुओं से बात करनी चाहिए थी. दो-एक दिन और रुक कर और दहशतगर्दी से भारत को बचाने का रास्ता निकालना चाहिए था. हालांकि वे दिल्ली से मणिपुर जाने का समय नहीं निकाल पाए. जो आज तक जल रहा है. क्या संघीय ढांचे और संवैधानिक व्यवस्था में कुछ लोगों की जान बाक़ी लोगों से कम कीमती हैं? होनी तो नहीं चाहिए.
देश को मोदी की ऐसी क्या गारंटी होगी, कि आगे ऐसा नहीं होगा. आसान रास्ता तो यही है कि वहां सिक्योरिटी बढ़ा दो, सरवेलेंस लगा दो, लोगों की आम दिनचर्या जो पहले से ही बहुत मुश्किल है, उसे और ज़्यादा कस दो, हर कश्मीरी को शक की निगाह से देखो और उन्हें एक के बाद एक अघोषित कर्फ़्यू में धकेलते रहो, उनके इंटरनेट बंद कर दो, उन्हें मस्जिद जाने मत दो, उन्हें नजरबंद कर दो. और फिर कहो, कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है. और उनसे कहलवाओ भी. पाकिस्तान से कट्टी कर लो.
दूसरा रास्ता लंबा है. सब्र का. शिक्षा का. विचार का. रोजगार का. कारोबार का. प्यार का. पर जो दस साल में न हो सका, वह अभी और इन लोगों से कैसे होगा? ये पकौड़े और पंक्चर से ऊपर ही नहीं उठ पाए.
आतंकवादियों के पास एक प्लान था. हमारे पास क्या है? हमारी दो नाकामयाबियां सामने हैं. एक तो इंटेलिजेंस की. दूसरी सुरक्षा की. मोदी जी चाहें तो इन नाकामयाबियों के जिम्मेदार लोगों को हटा कर काबिल लोगों को उनकी जगह तैनात कर सकते हैं. क्या वे ऐसा देश, इसके लोगों, इसके बेहतर इंतज़ाम और व्यवस्था के लिए करेंगे. आपको क्या लगता है?
पीछे की कई घटनाएँ बताती हैं, कि इस सरकार के दावे जो अक्सर दंभ और हिंसक क्रूरताओं से भरे होते हैं, हमारे लिए भरोसा नहीं पैदा कर पाते. जिन लोगों ने उस पर यकीन किया, उनका हश्र हम देख ही रहे हैं, चाहे पहलगाम हो या नोटबंदी या कोविड कुप्रबंध. ये सरकार सिर्फ़ अपने लोगों से थाली बजवा कर रोग भगा सकती है. सवाल करने पर या थाली न बजाने पर आपको टांग भी सकती है.इनकी निर्णायकता ख़तरनाक है, क्योंकि ये सोच-समझकर फैसला करने की बजाय हल्ला कर फैसला सुनाने पर यकीन करते हैं और बाद में भी कहां सोचते हैं. वे जोरों से बोलकर बात को तोड़-मरोड़ सकते हैं और बरगला सकते हैं. वे झूठ भी बोल सकते हैं. हम में से बहुत से लोग हैं, जो ये जानने के बाद भी उन मिथ्या प्रलापों पर यक़ीन करने का दिखावा करते हैं.
नाकाबिल सरकार होना एक बात है. लोकतंत्रों में ऐसा होता आया है. पर वहाँ के चुनाव आयोग ठीक काम कर लेते हैं. और लोग चाहें तो नालायक सेवकों को चलता कर सकते हैं.
पर नाकाबिल होने पर ग़ुरूर करने की मास्टर क्लास कौन लगा सकता है, जैसा हम देख रहे हैं. सरकार ने जो भी फैसले किए, अब तक औंधे मुँह ही गिरे हैं. वे घमंडी जुमलों का म्यूजियम बना रहे हैं. चाहे सामाजिक विकास हो, रक्षा हो, अर्थव्यवस्था हो. चाहे हर बार मीडिया उसे मास्टर स्ट्रोक कहता रहे.
ये नोटबंदी से कश्मीर में आतंकवाद रोकने चले थे. चीन को लाल आँख दिखाने. घर में घुसकर दुश्मन को मारने. थाली बजाकर कोविड भगाने. बादलों का बेनेफिट लेने.आगे ऐसा नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
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