कल्याण सिंह नरेंद्र मोदी से भी पहले से हिन्दू हृदय सम्राट रहे हैं। राममंदिर के लिए अपनी सत्ता, सियासत कुर्बान करके भाजपा को दिल्ली की सत्ता का कल्याणी मार्ग भी इस पिछड़े नेता की बदौलत मिला पर अगड़ों की भाजपा ने कल्याण को बड़ी निर्ममता से बाहर किया।
संजीव आचार्य ( वरिष्ठ पत्रकार )
कल्याण सिंह भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी से भी पहले न केवल हिंदू हृदय सम्राट थे बल्कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद और प्रधानमंत्री पद के भी प्रबल दावेदार थे ।
अटल बिहारी वाजपेई के रहते हुए ही भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार में उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जाने लगा था। एनडीए के संयोजक रहे जॉर्ज फर्नाडिस ने यह बात कही भी थी कि कल्याण सिंह में धैर्य नहीं है वरना अटल बिहारी वाजपेई के बाद वही भाजपा के भावी नेता होते।
यह बात सही भी है कि कल्याण सिंह धैर्य नहीं रख पाए, लेकिन क्या कमी या गलती सिर्फ उन्हीं की थी ? क्या यह सही नहीं है कि वह संघ परिवार और भाजपा की सवर्ण वर्चस्व वाली राजनीति के शिकार हो गए?
पिछड़े वर्ग की लोध जाति के कल्याण सिंह 90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी के राम मंदिर आंदोलन के अगुआ नेता रहे। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने जब 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया था और इसके बाद कई कार सेवकों की मृत्यु हो गई थी ।
बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा नेतृत्व ने यह तय किया कि मुलायम सिंह से मुकाबले के लिए राज्य में हिंदुवादी राजनीति करने वाले पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह को ही मुकाबले में उतारा जाएगा। इस रणनीति का लाभ भी मिला ।कल्याण सिंह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी 1991 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हुई ।
कल्याण सिंह ने अपने मुख्यमंत्री काल में नकल रोकने के कानून पर अमल करवाकर न केवल एक सख्त प्रशासक की छवि बनाई बल्कि वह पिछड़े वर्ग के पक्ष में निर्णय लेने वाले मुख्यमंत्री के तौर पर भी सामने आए।
यह एक ऐसा पक्ष था जो कल्याण सिंह को आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री पद तक ले जा सकता था । उनका “हिंदू हृदय सम्राट” एवं साथ में ही पिछड़े वर्ग का होना उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का एक प्रबल पक्ष था।
चूंकि उस समय तक भाजपा की केन्द्र स्तर की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी, डॉ मुरलीमनोहर जोशी जैसे दिग्गज सक्रिय थे, उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर दावेदार माना जाता रहा था ।
लेकिन कुछ उनका अड़ियल स्वभाव, कुछ उच्चस्तर की राजनीतिक साजिशें, अचानक मुख्यमंत्री रहते हुए पहले लखनऊ और फिर दिल्ली में कल्याण सिंह का पार्टी के प्रभावशाली सवर्ण नेताओं के साथ टकराव शुरू हो गया।
यह टकराव लखनऊ के स्तर पर ब्राह्मण बनियों की पार्टी के तौर पर मानी जाने वाली भाजपा के कलराज मिश्रा, लालजी टंडन ,राजनाथ सिंह के साथ होते हुए केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई , मुरलीमनोहर जोशी के साथ एक बड़े झगड़े का कारण बना। कल्याण सिंह क्योंकि अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी की तरह जनसंघ के जमाने से पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता के तौर पर संघर्ष करते हुए आगे बढ़े थे , स्वाभाविक था कि उनमें स्वाभिमान तो था ही साथ ही साथ वह अपने आप को वरिष्ठ भी मानते थे।
इस नाते वह पार्टी के प्रदेश स्तर के अन्य नेताओं के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते थे । उनके मुख्यमंत्री रहते हुए लखनऊ में लालजी टंडन कलराज मिश्रा और राजनाथ सिंह लगातार उनके खिलाफ मोर्चाबंदी करके उन्हें पद से हटाने की जुगत में लगे रहते थे। चूंकि अटल बिहारी वाजपेई लखनऊ से लोकसभा का चुनाव लड़ते थे इसलिए लालजी टंडन के साथ उनके रिश्ते बहुत करीबी थे। लालजी टंडन कलराज मिश्रा दोनों ही 1991 में जब भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई थी तो मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक तौर पर प्रबल दावेदार थे।
लेकिन यह वह दौर था जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह पिछड़ों को लामबंद करने के लिए मंडल कमीशन की राजनीति को ले आए थे। ऐसे में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव केएन गोविंदाचार्य, जोकि भारतीय जनता पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग करना चाहते थे और जो स्वयं भी वीपी सिंह के प्रशंसक थे, उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि मंडल की राजनीति के दौर में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाने से भाजपा को भविष्य में लाभ होगा।
इस फैसले से स्वाभाविक था, कलराज मिश्र लालजी टंडन एवं त्रिपाठी जैसे नेता नाराज थे । इन लोगों का मानना था कि कल्याण सिंह सवर्ण विरोधी मानसिकता के साथ आगे बढ़ रहे हैं । धीरे धीरे इन नेताओं और कल्याण सिंह के बीच में टकराव बढ़ता चला गया। गाहे-बगाहे एक दूसरे के खिलाफ मीडिया में आरोप-प्रत्यारोप के दौर भी शुरू हो गए ।
दिसंबर 1992 आते आते अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बेहद सक्रिय था एवं विश्व हिंदू परिषद के तेवर गरम थे ।
आखिरकार 6 दिसम्बर को बाबरी ढांचे का विध्वंस हुआ और तत्कालीन केंद्र की नरसिंह राव सरकार ने उत्तर प्रदेश श्री कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी कल्याण सिंह को दोषी मानते हुए दिन भर कोर्ट में रहने की सजा सुनाई। हालांकि कल्याण सिंह कुर्सी खो बैठे, लेकिन हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर पूरे देश के संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हो गए।
नये हिन्दू ह्रदय सम्राट बने कल्याण सिंह को पूरा भरोसा था कि चुनाव के बाद वह एक बार फिर मुख्यमंत्री बनेंगे। विधानसभा चुनाव 1993 में हुए जिसमें भाजपा ने कल्याण सिंह के पोस्टर के साथ “जो कहा सो किया” के नारे को लेकर के चुनाव लड़ा।
लेकिन उत्तर प्रदेश में जातिगत ध्रुवीकरण हिंदुत्व पर भारी पड़ गया। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिला कर के गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा और वह सत्ता में आ गए।
1996 में फिर विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर के उभरी । लेकिन किसी भी दल को बहुमत न मिलने की वजह से प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। इस दौरान भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय नेतृत्व ने बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के साथ गठबंधन के लिए बातचीत शुरू कर दी और परिणाम स्वरूप 4 महीने के बाद प्रदेश में बसपा भाजपा की सरकार का गठन हुआ।
यह फार्मूला तय हुआ कि 6-6 महीने दोनों दल का मुख्यमंत्री होगा। बहुजन समाज पार्टी की ओर से मायावती ने 21 मार्च 1997 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली । नियमानुसार उन्हें 21 सितंबर को पद छोड़कर के कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनने देना चाहिए था।
लेकिन बसपा के तेवर इसके ठीक उल्टे दिखाई दे रहे थे। और वही हुआ भी। मायावती ने भाजपा से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। नाराज कल्याण सिंह ने बहुजन समाज पार्टी तोड़ दी और कांग्रेस के भी एक गुट को साथ लेकर के सरकार का गठन किया।
इस दौर में केंद्र की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेई भी प्रधानमंत्री बनने के लिए विभिन्न दलों को साथ लेने के अभियान में जुटे हुए थे। 1998 में अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बने थे ।
13 महीने के बाद लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के समय उनकी सरकार 1 वोट से गिर गई । कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी के समर्थन का वादा किया था लेकिन कल्याण सिंह के बसपा तोड़ने के निर्णय से नाराज होकर उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई की सरकार को समर्थन नहीं दिया।
यहीं से अटल बिहारी वाजपेई और कल्याण सिंह के बीच राजनीतिक टकराव की शुरुआत हो गई। कल्याण सिंह को लगने लगा कि अटल बिहारी वाजपेई क्योंकि केंद्र में प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं इसलिए वह बसपा के समर्थन को प्राप्त करने के लिए उसकी शर्तों को मानने के लिए अपनी पार्टी की कुर्बानी दे रहे हैं ।
दरअसल अक्टूबर 1996 में विधानसभा के गठन के बाद से ही लखनऊ में सवर्ण बनाम पिछड़ों की भाजपा की अंतर्विरोध की राजनीति शुरू हो गई थी। लालजी टंडन कलराज मिश्रा जैसे नेताओं ने ही बसपा से गठबंधन का प्रस्ताव रखा था। कल्याण सिंह का मानना था कि इसके पीछे उनकी मंशा कल्याण सिंह को कमजोर करने की थी। भाजपा-बसपा से गठबंधन हुआ भी लेकिन टूट भी गया।
कल्याण सिंह और लालजी टंडन , कलराज मिश्रा के बीच विरोध की रेखाएं खिंच गयी थी। इन दोनों के पैतरों से निपटने के लिए कल्याण सिंह ने राज्य के भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से हाथ मिला लिया । दोनों की जोड़ी के बाद प्रदेश में पिछड़े ठाकुरों का गठजोड़ सामने आया और भाजपा में ही दो गुट हो गए। एक तरफ बनिए और ब्राह्मण दूसरी तरफ पिछड़े और ठाकुर।
कल्याण सिंह राजनाथ सिंह के हाथ मिलाने का फायदा यह हुआ कि कल्याण सिंह की सरकार अक्टूबर और फरवरी 98 में बहुमत प्रस्ताव जीतने में कामयाब रही। यह गठजोड़ भी ज्यादा दिन नहीं चल पाया ।
क्योंकि कल्याण सिंह जो कि स्वभाव से ही कुछ हद तक अकड़ वाले नेता माने जाते रहे उन्हें राजनाथ सिंह का बढ़ता हुआ कद भी मंजूर नहीं था दूसरी और राजनाथ सिंह को भी इस बात का मलाल था कि वह कल्याण सिंह को पूरी मदद कर रहे थे फिर भी ना तो उनकी प्रदेश की सरकार में बात सुनी जा रही थी ना ही अन्य फैसलों में उनका कोई महत्वपूर्ण योगदान था।
कल्याण सिंह ने उसी दौरान आईएएस अधिकारियों के थोक बंद तबादले किए जिसके बारे में राजनाथ सिंह से उन्होंने कोई सलाह नहीं की थी। दोनों के बीच में टकराव शुरू हो गया था । इस अंदरूनी झगड़े के मौके को देख कर लालजी टंडन ने राजनाथ सिंह की ओर कल्याण विरोध का हाथ बढ़ा दिया।
राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री पद के महत्वाकांक्षी थे और क्योंकि वह जानते थे कि लालजी टंडन अटल बिहारी वाजपेई की करीबी हैं, और उन्हें मुख्यमंत्री बनाने में मदद कर सकते हैं ,इसलिए उन्होंने लालजी टंडन के साथ हाथ मिला लिया।दूसरी और कल्याण सिंह ने भी राजनाथ सिंह के पर कतरने की मुहिम शुरू कर दी।
उन्होंने लखनऊ में ही क्षत्रिय सम्मेलन आयोजित करवाया जिसमें उन्होंने राजनाथ सिंह को ही निमंत्रण नहीं दिया। नाराज राजनाथ सिंह ने मीडिया से कहा कि मुख्यमंत्री को जातिवादी सम्मेलनों में शिरकत करने से परहेज करना चाहिए ।
कल्याण सिंह ने लालजी टंडन को भी सबक सिखाने का मन बना लिया। मुख्यमंत्री मायावती के रहते अंबेडकर पार्क की परियोजना सम्पन्न हुई थी। लालजी टंडन उस समय भी शहरी आवास मंत्री थे ।
अचानक अखबार में कंट्रोलर ऑफ ऑडिटर जनरल की एक रिपोर्ट के हवाले से खबर छपी जिसमें यह कहा गया कि परियोजना में घोटाला हुआ है। लालजी टंडन के करीबी समझ गए कि कल्याण सिंह के इशारे पर अधिकारियों ने जानबूझकर रिपोर्ट लीक करवाई जिससे कि टंडन की छवि बिगाड़ी जा सके।
टण्डन के करीबी लोगों ने मीडिया को स्पष्ट करते हुए बताया कि अंबेडकर पार्क परियोजना में 78 परसेंट काम जन कार्य विभाग ने किया जिसके मंत्री कलराज मिश्रा है। केवल 20% काम ही लालजी टंडन के विभाग ने किया । जाहिर था कलराज मिश्र के विभाग पर सीएजी ने उंगली नहीं उठाई थी। यह माना गया कि कल्याण सिंह ने उन्हें अपनी और करने के लिए ऐसा किया था।
कुल मिलाकर लखनऊ में भाजपा के नेताओं के बीच में तलवारें खींच चुकी थी। इसे सवर्ण बनाम पिछड़ों की लड़ाई की संज्ञा दी गई । कल्याण सिंह लगातार यह मानते रहे कि दिल्ली से अटल बिहारी वाजपेई उन्हें हटाने की मुहिम को समर्थन दे रहे हैं।
इस बात को बल तब मिला जब कल्याण सिंह की करीबी लखनऊ की एक पार्षद कुसुमलता राय ने एक अखबार को दिए हुए इंटरव्यू में खुलकर कह दिया कि” प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की शह पर प्रदेश के कुछ भाजपा नेता कल्याण सिंह की छवि खराब करने का काम कर रहे हैं।”
इसके बाद कुसुम और कल्याण के अंतरंग सम्बन्धों को लेकर जमकर ख़बरबाजी हुई। आरोप दिल्ली दरबार तक पहुंचे। वाजपेयी ने आडवाणी से इस बारे में कल्याण सिंह से बात करने को कहा। आडवाणी ने कल्याण को कुसुम से सम्बन्ध विच्छेद के लिए कहा लेकिन कल्याण सिंह ने साफ इनकार कर दिया।
कल्याण सिंह की सरकार को लोकतांत्रिक कांग्रेस का समर्थन था। उसके नेता नरेश अग्रवाल ने भी कल्याण सिंह के खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी। सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ गई ।
अटल बिहारी वाजपेयी ने कल्याण सहित अन्य नेताओं को दिल्ली बुलाकर मतभेद खत्म करने के लिए कहा। बैठक में कल्याण सिंह ने कहा की तत्काल चुनाव करा लेना चाहिए जिससे कि भाजपा अपने दम पर बहुमत के साथ सत्ता में आ सके।
लेकिन राजनाथ सिंह लालजी टंडन कलराज मिश्रा आदि नेता अटल बिहारी वाजपेई और आडवाणी को यह समझाने में कामयाब रहे के चुनाव अभी नहीं कराए जाने चाहिए ।इसके बजाय इन नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व को इस बात के लिए राजी कर लिया कि कल्याण सिंह की कार्यशैली ठीक नहीं है एवं उन्हें हटाया जाना चाहिए।
इसके बाद लोकसभा के चुनाव हुए और कल्याण सिंह अटल बिहारी वाजपेई के बीच झगड़े की अटकलों को खुलकर सामने आने का मौका भी मिल गया। कल्याण सिंह ने लखनऊ में पत्रकारों द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या अटल बिहारी वाजपेई फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे ?
कहा कि मैं भी चाहता हूं अटल जी फिर से प्रधानमंत्री बने, लेकिन इसके पहले सांसद जिताने होते हैं । उनका इशारा स्पष्ट था कि प्रदेश में अगर भाजपा के सांसद इतनी संख्या में नहीं आए साथ ही अटलजी स्वयं ही चुनाव नहीं जीत पाए तो प्रधानमंत्री कैसे बन पाएंगे ?
और वोटिंग के ठीक 1 दिन पहले कल्याण सिंह ने बैठक लेकर के अधिकारियों को कहा के चुनाव चुनाव में कोई गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए इसके बाद लखनऊ में मतदान के दौरान बहुत सख्ती देखी गई अटल बिहारी वाजपेई चुनाव तो जीत गए लेकिन 70000 वोट कम मिले 1998 में जहां उन्हें 431708 30 वोट मिले थे वहीं 1999 में उन्हें 362709 वोट ही मिले यही नहीं जहां 1998 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को 58 सीटें मिली थी वहीं 1999 में पार्टी 29 पर सिमट कर रह गई पूरे प्रदेश के भाजपा नेताओं कार्यकर्ताओं एवं मीडिया के बीच यह चर्चा ने जोर पकड़ा के कल्याण सिंह की नाराजगी के कारण ही यह परिणाम आए क्योंकि वह मुख्यमंत्री पद से हटाए गए थे इसलिए यह माना गया कि उन्होंने भी अटल बिहारी वाजपेई को प्रधानमंत्री पद से रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी हालांकि अटल बिहारी वाजपेई एनडीए की मदद से 10 अक्टूबर 1999 को एक बार फिर प्रधानमंत्री बन गए ।
आखिर वह दिन भी आ ही गया। जिसने कल्याण सिंह की भावी राजनीति पर पूर्ण विराम लगा दिया। 12 नवंबर को अटल जी ने कल्याण सिंह से इस्तीफा ले लिया और 77 वर्षीय राम प्रकाश गुप्ता को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया। यह कल्याण सिंह की राजनीति पर एक तरह से कुठाराघात लगाने जैसा निर्णय साबित हुआ ।
इसके बाद कल्याण सिंह भारतीय जनता पार्टी में असहज महसूस करने लगे। वह हाशिए पर चले गए राजनाथ सिंह आगे बढ़ते रहे एवं सवर्णों की राजनीति प्रदेश में भाजपा में हावी हो गई।
नाराज कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेई के खिलाफ आखिरकार सार्वजनिक तौर पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर ही दी। उन्होंने मीडिया को कहा ” मैंने इस्तीफा देकर बहुत बड़ी गलती कर दी।
अटल जी में हिम्मत नहीं थी कि मुझे हटा पाते। अटल बिहारी वाजपेई एक साजिशकर्ता है और ब्राह्मण वादी हैं वह एक पिछड़े मुख्यमंत्री को सहन ही नहीं कर सके। अटल जी अपनी प्रधानमंत्री कुर्सी बचाने के लिए राम मंदिर आंदोलन को भी छोड़ने और भारतीय जनता पार्टी को खत्म करने का काम कर रहे हैं।” कल्याण सिंह के इस बयान को भारतीय जनता पार्टी ने अनुशासनहीनता मान कर तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया ।
इस नोटिस के बावजूद कल्याण सिंह के तेवर नरम नहीं पड़े। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई के खिलाफ बयान बाजी जारी रखी । जिसके परिणाम स्वरूप कुशाभाऊ ठाकरे ने उन्हें 6 वर्ष के लिए भारतीय जनता पार्टी से निष्कासित कर दिया। इस तरह कल्याण सिंह की जनसंघ से लेकर के मुख्यमंत्री बनने तक की यात्रा समाप्त हो गई । भाजपा के दरवाजे उनके लिए बन्द हो गए।
2002 में उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई और चुनाव लड़ा। उनकी पार्टी को केवल 4 सीटें ही मिली ।इसके बाद 2004 में आर एस एस के दबाव में अटल बिहारी वाजपेई ने एक बार फिर कल्याण सिंह को भारतीय जनता पार्टी में शामिल किया । 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ा गया।
लेकिन इसके बाद कल्याण सिंह की न तो वह राजनीतिक पकड़ रही और न ही प्रदेश के हिंदूवादी वोटों पर उनका वह असर रहा। अपनी राजनीतिक असफलता से परेशान होकर के कल्याण सिंह ने 2009 में एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को अलविदा कह दिया और जनक्रांति पार्टी बनाई ।
अपनी अब तक की राजनीति और छवि के ठीक विपरीत कल्याण सिंह ने अपने धुर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह से हाथ मिला लिए। और उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ा।
परिणाम यह हुआ कि कल्याण सिंह तो एटा लोकसभा सीट से चुनाव जीत गए, लेकिन मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को मुसलमानों ने यह कहकर के नकार दिया कि जिस कल्याण सिंह की सरकार के रहते बाबरी मस्जिद विध्वंस हुई ,उसी को साथ में लेकर के आप हमसे वोट कैसे मांग रहे हैं? परिणाम यह हुआ कि कल्याण सिंह तो एटा लोकसभा से चुनाव जीत गए लेकिन मुलायम सिंह की पार्टी को प्रदेश में मुसलमानों के वोट नहीं मिले। वह कांग्रेस को चले गए।
इसके बाद कल्याण सिंह और समाजवादी पार्टी के बीच में भी टकराव चलता रहा । कल्याण सिंह, जो कि एक समय में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार समझे जाते रहे ,वह थक हार कर घर बैठ गए।
2014 में जब नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हुए, तब उन्होंने उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर कल्याण सिंह को पार्टी में लाने की कोशिशें तेज कर दी। उन्होंने ही कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह को एटा लोकसभा सीट से पार्टी का टिकट दिया । और नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कल्याण सिंह से उत्तर प्रदेश के जिलेवार जातिगत समीकरणों पर विस्तार से बातचीत की।
उनसे सलाह करके पिछड़ों को लामबंद किया। चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने कल्याण सिंह को राज्यपाल बनाकर के राजस्थान भेजा। 2019के चुनाव में उनके बेटे को फिर से लोकसभा का टिकट दिया गया । और उनके पोते को भी उत्तर प्रदेश विधानसभा का टिकट भी दिया गया और जीतने पर योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल में मंत्री भी बनाया गया।
नरेंद्र मोदी जानते थे कि उनके बहुत पहले कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग से भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार थे। वह नहीं बन पाए , लेकिन मोदी उसी पिछड़े वर्ग के कार्ड को खेल करके प्रधानमंत्री बन गए । लिहाजा नरेंद्र मोदी कल्याण सिंह को आखरी समय तक सम्मान देते रहे ।
कल्याण सिंह का पिछले हफ्ते लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद एक बार फिर उनकी राजनीति ,उनके साथ हुए अन्याय, इन सब पर चर्चाएं छिड़ गई हैं।
इस तथ्य को एक बार फिर उभर कर आने का मौका मिला है कि अगर अटल बिहारी वाजपेई , मुरलीमनोहर जोशी और उन का वरद हस्त प्राप्त लखनऊ और दिल्ली के सवर्ण नेता लगातार साजिशें नहीं करते तो कल्याण सिंह न केवल भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते, बल्कि अटल जी के बाद पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी होते ।
लालकृष्ण आडवाणी ने भी उनके साथ वही किया क्योंकि उन्हें भी कल्याण सिंह के दावेदार होने से दिक्कत तो थी ही। कुल मिलाकर ब्राह्मण,ठाकुर ,बनियों के वर्चस्व के कारण पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह का सियासी सफर आधे रास्ते में ही खत्म हो गया। नरेंद्र मोदी सफल हुए क्योंकि उनमें धैर्य, चतुराई, कॉरपोरेट घरानों के साथ नेटवर्किंग की मजबूत काबिलियत थी।