इंदौर। पश्चिम बंगाल में पिछली बार की तुलना में राजनीतिक समीकरण बदले हुए हैं। कांग्रेस, वामदल, तृणमूल और बीजेपी के बीच यहां मुकाबला माना जा रहा है। यानी मुकाबला चतुष्कोणीय होगा। पर जमीनी तौर पर ऐसा है नहीं, कांग्रेस और वामदल अलग-अलग चुनाव लड़ने के कारण कोई बड़ा असर छोड़ते नहीं दिख रहे हैं। यानी सीधा-सीधा मुकाबला बीजेपी और तृणमूल के बीच दिखाई दे रहा है। बीजेपी ने 2014 में केवल दो सीटें जीती थी, आज वह बराबरी से टक्कर में है। किसी पार्टी का पांच साल में मुख्य दल में बदल जाना वाकई काबिले तारीफ है इसके पीछे अमित शाह की रणनीति है। पर जमीनी तौर जो सबसे बड़ी मेहनत की है वो है राज्य के प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय। विजयवर्गीय को राजनीति में बड़ा रणनीतिकार और हारी हुई बाज़ी को जीतने वाला बाज़ीगर माना जाता है। मध्यप्रदेश की कई सीटों पर जो कांग्रेस का गढ़ रही है उन पर वे बीजेपी का झंडा फहरा चुके है। हरियाणा के प्रभारी रहते भी उन्होंने बीजेपी को बड़ी जीत दिलवाई। पश्चिम बंगाल में विजयवर्गीय ने न सिर्फ संगठनात्मक ढांचा मजबूत किया। बीजेपी के झंडे को गांव गांव तक पहचान भी दिलवाई। अपने अंदाज़ के मुताबिक वे हमले भी बड़े नेताओं पर ही करते हैं। जिसके जवाब से उनका कद बढ़ता है, और बीजेपी के प्रति लोगों में उत्सुकता। ये कामयाबी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि एक बंजर राज्य, जिसकी भाषा भी अलग है, और ममता बनर्जी के तमाम अवरोधों के बावजूद ऐसा कर पाना मायने रखता है। शायद इसी को देखकर सिलीगुड़ी और कोलकाता की रैली में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा-कैलाश जी आपके मेहनत रंग ला रही है, कमल खिलता दिख रहा है।
जमीनी राजनीतिक हकीकत को देखते हुए यह लड़ाई दोतरफा यानी तृणमूल और भाजपा के बीच दिख रही है. किस तरह से बीजेपी ने खुद को मजबूत किया इसको सिलसिलेवार समझते हैं। .
वोट परसेंट और दूसरी पार्टी के नेताओं को जोड़ना
लोकसभा सीटों की बात करें तो उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 42 सीटें हैं. इसके बावजूद इस राज्य में भाजपा अब तक अपनी पकड़ नहीं बना पाई. पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने दो सीटें-दार्जिलिंग और आसनसोल – हासिल की थीं. दार्जिलिंग में उसकी जीत के पीछे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन की बड़ी भूमिका थी.पिछले आम चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा का वोट शेयर 17 फीसदी था. इसके बाद पार्टी ने लगातार राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की है. यह कितनी कामयाब रही है, इसकी पुष्टि पिछले साल के पंचायती चुनाव के नतीजे करते हैं. इनमें भाजपा तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के रूप में सामने आई और उसने दूसरा पायदान हासिल किया. इससे पहले साल 2017 के नगर निकाय चुनाव में भी भाजपा तृणमूल के बाद दूसरे स्थान पर थी. 2016 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को केवल 10.2 फीसदी वोट मिले थे लेकिन, 2011 के चुनाव के लिहाज से देखें तो तब भाजपा को मिले वोट प्रतिशत से यह आंकड़ा ढाई गुना अधिक था.चुनावी नतीजों से इतर राज्य में भाजपा संगठन की स्थिति के बारे में बात करें तो तृणमूल की तुलना में यह काफी कमजोर दिखता है. लेकिन, इस कमी को पूरा करने के लिए पिछले कुछ समय के दौरान पार्टी में लगातार दूसरे दलों के बड़े नेताओं को न केवल शामिल किया गया है बल्कि उन्हें टिकट भी दिया गया है. बताया जाता है कि राज्य के लिए घोषित भाजपा उम्मीदवारों में से एक-चौथाई दूसरे दलों से आए हुए नेता हैं.
कांग्रेस और वाम दलों का हाशिए पर जाना
राज्य की राजनीति में एक ओर भाजपा जितनी तेजी से ऊपर उठी है, कांग्रेस और वाम दलों का पतन भी उतनी ही तेजी से हुआ है. इन पार्टियों के कई बड़े नेता और कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में शामिल हो चुके हैं. बीते जनवरी में मालदा उत्तर से कांग्रेस सांसद मौसम नूर ने तृणमूल का दामन थाम लिया. वहीं, इस साल की शुरुआत में कांग्रेस के विधायक दुलाल बर और सीपीएम के विधायक खगेन मुर्मू ने भाजपा की सदस्यता ली थी.
गंगा नदी पर स्थित फरक्का ब्रिज के किनारे स्थित न्यू फरक्का के रहने वाले इंसान खान बताते हैं, ‘मुर्शिदाबाद और मालदा का इलाका कांग्रेस का रहा है. लेकिन अब पार्टी धीरे-धीरे कमजोर रही है. पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी छोड़ रहे हैं.’ यह हाल कांग्रेस का ही नहीं, वाम दलों खासकर सीपीएम का भी है. वे कहते हैं, ‘सीपीएम में अब तो केवल बूढ़े लोग बचे हुए हैं, जो लाल रंग का झंडा उठाए हुए हैं. पार्टी के पास अब शक्ति नहीं है इसलिए इसका लोग पार्टी छोड़कर जा रहा है.’ इंसान की मानें तो इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता पहले तृणमूल के साथ जा रहे थे. लेकिन, अब वे बड़ी संख्या में भाजपा में भी शामिल हो रहे हैं.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति
बीते तीन-चार वर्षों के दौरान पश्चिम बंगाल में भाजपा का विस्तार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण साथ-साथ बढ़ते दिखे हैं. अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा लगातार राज्य में हिंदुओं के उत्पीड़न और मुसलमानों के तुष्टिकरण को लेकर ममता बनर्जी की सरकार पर निशाना साधती रही है. बीते पखवाड़े अमित शाह ने मौलवियों को वेतन और मदरसों की फंडिंग पर सवाल उठाया था. उन्होंने कहा कि यदि मौलवियों को वेतन दिया जा रहा है तो पुजारियों को क्यों नहीं. इससे पहले वे हिंदुओं को रामनवमी में जुलूस निकालने से रोके जाने को लेकर ममता सरकार पर निशाना साधते रहे हैं.
सत्याग्रह की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तरी दिनाजपुर, दक्षिणी दिनाजपुर और सिलीगुड़ी का दौरा उनकी टीम ने किया. इस दौरान सांप्रदायिक धुव्रीकरण का बढ़ता ताप साफ-साफ नजर आया. सिलीगुड़ी में ऑटो रिक्शा चालक चित्तरंजन गोस्वामी का कहना था, ‘जहां-जहां मुसलमानों की आबादी अधिक है, वहीं हिंदू-मुसलमान फसाद होता रहता है.’ हालांकि, भाजपा को इसका कितना चुनावी फायदा होगा, इसे लेकर मतदाता अनिश्चित ही दिखे. गोस्वामी की मानें तो यदि यह चलन बढ़ता है और सारे हिंदू एक साथ आते हैं तो भाजपा को फायदा होगा.