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justice abhijit gangopadhyay … मन में राजनीति रखने वाले जज साहब का ‘न्याय’ करेगी सुप्रीम कोर्ट

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सुनील कुमार (वरिष्ठ पत्रकार, त्वरित और धारदार टिप्पणी वाले )

politicswala Report कोलकाता हाईकोर्ट के एक विवादास्पद जज, जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने कल इस्तीफा दे दिया है। आने वाले कल वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने खुद ने यह घोषणा की है। यह भी माना जा रहा है कि वे भाजपा टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे।

वे लगातार राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए बहुत से मामलों में सरकार और इसके नेताओं के खिलाफ फैसले देते आ रहे थे। सरकार के दर्जन भर से अधिक मामलों को उन्होंने जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दिया था।

उन्होंने ममता सरकार द्वारा नियुक्त किए गए 32 हजार से अधिक शिक्षकों को बर्खास्त कर दिया था। बाद में एक से अधिक जजों की बेंच ने उनके इस फैसले पर रोक लगाई। उनसे जुड़े हुए और भी कई विवाद रहे, वे एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। इस पर उन्होंने एक टीवी चैनल को इंटरव्यू दिया जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति की।

इस इंटरव्यू में उन्होंने तृणमूल नेता अभिषेक बैनर्जी के खिलाफ भी बातें कहीं, और इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने कहा था कि कोई जज जिन मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, उसके बारे में वे इंटरव्यू देने जैसा काम नहीं कर सकते। अगर उन्होंने याचिकाकर्ता के बारे में इस तरह की बातें कही हैं, तो उन्होंने इस मामले की आगे सुनवाई का कोई हक नहीं है।
जो जज किसी राजनेता की तरह के बयान दे रहे हैं, वे ऐसे मामलों की सुनवाई में नहीं रह सकते। इसके बाद भी कुछ दूसरे मामलों को लेकर जब सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस गंगोपाध्याय को सुनवाई से हटाया, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी को ही नोटिस जारी कर दिया। उन्होंने अपने एक साथी जज पर भी आरोप लगाया कि वे एक राजनीतिक पार्टी के लिए काम कर रहे हैं।

RElated story…

कुछ महीने पहले कलकत्ता हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने जस्टिस गंगोपाध्याय का बहिष्कार करने की घोषणा की थी। अलग-अलग खबरें बताती हैं कि किस तरह यह जज लगातार ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ आदेश करते आ रहे थे, और हर मामले को जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दे रहे थे। अब इस्तीफे के दो दिन के भीतर ही भाजपा में जाने की उनकी घोषणा कई सवाल खड़े करती है।

हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था में हाईकोर्ट के जज बहुत हद तक स्वायत्तता से काम करते हैं, और उनके फैसलों को पुनर्विचार के लिए, या उनके खिलाफ कोई अपील किए बिना आगे चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट भी देश की सबसे बड़ी अदालत होने के बावजूद हाईकोर्ट पर अधिक काबू नहीं रखता। और अगर कोई हाईकोर्ट जज सुप्रीम कोर्ट से उलझने पर आमादा हो जाए, तो फिर न्यायपालिका के भीतर एक बड़ी मुश्किल नौबत आ खड़ी होती है।

जब ऐसे कोई लड़ाकू जज राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रखने लगते हैं, किसी एक पार्टी के समर्थन या विरोध के लिए प्रतिबद्ध हो जाते हैं, तो उनके फैसले शक के घेरे में ही रहते हैं। ऐसी खुली राजनीतिक और चुनावी महत्वाकांक्षा इसके पहले हमें हाईकोर्ट या उसके ऊपर के किसी जज में देखना याद नहीं पड़ता है।

हमारा ख्याल है कि देश में जो भी महत्वपूर्ण और नाजुक ओहदे हैं, उन पर रहने वाले लोगों के साथ नौकरी पूरी होने के बाद का एक खासा अरसा बिना काम रहने का रहना चाहिए। राजनीति से जुड़े मामलों पर लगातार एक ही रूझान वाले फैसले देकर जस्टिस गंगोपाध्याय पहले से विवादों में घिरे हुए थे, और अब चुनाव लडऩे की संभावनाएं, भाजपा में जाने की संभावनाएं यह खतरनाक नौबत बताती हैं कि न्यायपालिका किस तरह राजनीतिक पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सकती है।

लोगों को याद होगा कि देश के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई किस तरह रामजन्म भूमि सरीखे कई मामलों में सरकार को सुहाने वाले कई फैसले देने के बाद रिटायर होते ही भाजपा की तरफ से राज्यसभा चले गए। इसी तरह एक दूसरे जज रिटायरमेंट के तुरंत बाद एक राज्य के राज्यपाल होकर चले गए।

इन राजनीतिक मनोनयनों के अलावा भी देश में दर्जनों ऐसे बड़े संवैधानिक ओहदे तय किए हुए हैं जहां पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों को ही लाया जा सकता है। और जज रिटायर होने के पहले अपने वृद्धावस्था पुनर्वास का ध्यान रखते हुए ऐसे फैसले देने के लिए जाने जाते हैं जिनसे खुश होकर सरकार उन्हें फिर कई साल की सहूलियतों वाला ओहदा दे दे।

इसलिए चाहे नौकरशाही हो, जज हों, या फौज के ऊंचे ओहदे से रिटायर होने वाले लोग हों, इन सबका राजनीतिक पुनर्वास तुरंत नहीं होना चाहिए, इसमें कम से कम दो बरस का फासला रहना चाहिए।

फिर राज्यों के भीतर बहुत से ऐसे ओहदे बनाए गए हैं जिन पर रिटायर्ड जज या रिटायर्ड अफसर ही आमतौर पर मनोनीत किए जाते हैं। यह सिलसिला भी खत्म करना चाहिए। इस बारे में हम पहले भी एक नेशनल पूल बनाने की बात सुझा चुके हैं, और इनमें से अलग-अलग राज्य अपनी जरूरत के लोगों को छांट सकते हैं, और ये लोग ऐसे ही रहने चाहिए जिन्होंने उन राज्यों में पहले काम न किया हो।

पारदर्शिता और ईमानदारी, निष्पक्षता और जनधारणा, इन सबका ख्याल रखते हुए यह बात बिल्कुल साफ रहनी चाहिए कि सरकार को उपकृत करने की जगह पर बैठे हुए लोग, या कि ऊंची फौजी कुर्सियों से हटने वाले लोग तुरंत किसी राजनीतिक काम में नहीं लगाए जाने चाहिए, ऐसा होने पर लोकतंत्र में इन संस्थाओं की साख तो खत्म होती है, जनता के बीच खुद लोकतंत्र की साख खत्म होती है।

अब जस्टिस रंजन गोगोई की दो कौड़ी की इज्जत उस दिन नहीं रह गई थी, जिस दिन उनकी मातहत कर्मचारी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, और आरोपों की सुनवाई के लिए खुद रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट बेंच के मुखिया होकर बैठ गए थे।

कायदे की बात तो यह होती कि उनकी उस हरकत से असहमति जाहिर करते हुए बाकी तमाम जज उस बेंच से हट जाते, और देश के राजनीतिक दल उनके खिलाफ महाभियोग लेकर आते।

लेकिन लोकतंत्र बेशर्म हो चुका है, और लोगों की ऐसी अश्लील हरकतें आम हो चुकी हैं। हमारा ख्याल है कि कलकत्ता के इस हाईकोर्ट जज के इस्तीफे से एक ऐसी जनहित याचिका की गुंजाइश खड़ी होती है जो सुप्रीम कोर्ट जाकर यह मांग करे कि राजनीतिक दलों से जुड़े जितने फैसले जस्टिस गंगोपाध्याय ने दिए थे, उन्हें दुबारा सुना जाए।

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