-श्रवण गर्ग (वरिष्ठ पत्रकार )
ज़िंदगी में कई बार ऐसा होता है जब हाथ में आए हुए शानदार मौक़े ही नहीं शानदार लोग भी देखते-देखते फिसल जाते हैं ।मौक़े तो फिर भी मिल जाते हैं, लोग तो बिलकुल ही नहीं मिलते।और फिर इस बात का मलाल ज़िंदगी भर पीछा करता रहता है।लोग हमसे एकदम सटे हुए खड़े रहते हैं, हम उनकी तरफ़ देखना भी चाहते हैं पर न जाने क्यों ऐसा होता है कि जान-बूझकर खिड़की से बाहर सूनी सड़क पर किसी ऐसी चीज़ की तलाश करते हुए रह जाते हैं जो कि वहाँ कभी हो ही नहीं सकती थी।
नई दिल्ली के जाने माने इलाक़े खान मार्केट की बात है।कुछ साल तो हो गए हैं पर तब तक इरफ़ान एक बड़े कलाकार के रूप में स्थापित हो चुके थे, हर कोई उन्हें जानने लगा था।मैं अपने एक पत्रकार मित्र से मिलने के लिए तब मार्केट में अंदर की पार्किंग वाले खुले क्षेत्र में प्रतीक्षा कर रहा था।बातचीत शुरू होने को ही थी कि मित्र ने इशारा किया —इरफ़ान खड़े हैं।अपनी जानी-पहचानी हैसियत से बिलकुल बेख़बर एक बिलकुल ही आम आदमी की तरह इरफ़ान जैसे किसी चीज़ की तलाश कर रहे हों।
मन में दुविधा थी क्या किया जाए ? मित्र को बुलाया मैंने ही था।मित्र से बातचीत जारी रखी जाए या इरफ़ान को ज़रा नज़दीक से टटोला जाए, बातचीत की जाए ? इरफ़ान अकेले थे, दूर तक भी उनके पास या साथ का कोई नज़र नहीं आ रहा था।आँखें इरफ़ान की पीठ का पीछा कर रही थी और बातचीत मित्र के साथ जारी थी।देख रहा था कि इरफ़ान जा रहे हैं ।वे चले भी गए ।
इरफ़ान देखते ही देखते नज़रों से ग़ायब हो गए।कुछ ही मिनटों में सब कुछ ख़त्म हो गया। सोचता रह गया कि कभी इरफ़ान से मुलाक़ात हो गयी तो इस वाक़ये का ज़िक्र ज़रूर करूँगा।पर आज तो इरफ़ान से मुलाक़ात करने वाले हज़ारों-लाखों लोग इसी तरह प्रतीक्षा करते हुए रह गए होंगे।इरफ़ान तो उसी तरह आँखों से ओझल हो गए जिस तरह उस दिन नई दिल्ली के खान मार्केट में हुए थे।